झारखंड

क्या झारखंड के मुसलमान राजनीतिक और सामाजिक तौर पर हेमंत सोरेन सरकार में उपेक्षित महसूस कर रहें

गठबंधन के पांच साल के कार्यकाल में, मॉब लिंचिंग का नहीं रुकना, उर्दू शिक्षा की उपेक्षा और राजनीतिक हाशिए पर धकेले जाने जैसे कारणों से राज्य के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय सरकार से निराश

रांची: 2019 में जब हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार सत्ता में आई तो मुसलमानों ने इसमें प्रमुख भूमिका निभाई थी।

राज्य में सबसे बड़े अल्पसंख्यक, मुसलमानों ने रघुवर दास के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के कार्यकाल के दौरान मॉब लिंचिंग की कई घटनाएं देखी। मुस्लिम अधिकारियों को अच्छी या महत्वपूर्ण पोस्टिंग नहीं मिल रही थी। भाजपा सरकार ने मुस्लिम समाज के लोगों को अहमियत ही नहीं दिया था।

इसलिए जब हेमंत सोरेन ने झामुमो, कांग्रेस और राजद के नेतृत्व में राज्य में सरकार बनाई, तो समुदाय के लोगों ने सोचा कि उनके समाज के लिए कुछ बेहतर होगा। हालांकि, लगभग पाँच वर्षों के बाद, समुदाय उनके लिए चीजों को बेहतर बनाने के लिए किए गए किसी भी बदलाव को लेकर मुतमइन नहीं है।

राजनीतिक प्रतिनिधित्व

जब भ्रष्टाचार के आरोप में हेमंत सोरेन को जेल हुई, तो सभी ने इसे फर्जी मामला मानते हुए प्रवर्तन निदेशालय और भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया। हालांकि, जब वरिष्ठ कांग्रेस नेता और मंत्री आलमगीर आलम को गिरफ्तार किया गया था, तो गठबंधन नेताओं द्वारा ऐसा कोई विरोध प्रदर्शन नहीं किया गया था। किसी ने इतना भी सवाल नहीं बताया कि मंत्री के सरकारी निजी सहायक संजीव लाल पहले अर्जुन मुंडा और सीपी सिंह के साथ थे। उनकी नियुक्ति सरकार द्वारा की गई थी, इसलिए उक्त मामले में दोनों भाजपा नेताओं की भी जांच होनी चाहिए।

2019 में झारखंड में झामुमो और कांग्रेस पार्टियों से जीतने वाले केवल दो मुस्लिम थे: आलमगीर आलम और इरफान अंसारी कांग्रेस से, झामुमो से डॉ सरफराज अहमद और हाजी हुसैन अंसारी। आलमगीर अभी जेल में हैं और इरफान को कैबिनेट में शामिल किया गया है। डॉ सरफराज को अपनी सीट छोड़नी पड़ी, जहां से कल्पना सोरेन विधायक बनीं। डॉ सरफराज को राज्यसभा सदस्यता से मुआवजा दिया गया है। हाजी हुसैन अब जीवित नहीं हैं और उनकी जगह पार्टी ने उनके बेटे हफीजुल हसन को मैदान में उतारा, जो अब हेमंत सोरेन कैबिनेट में मंत्री हैं।

हालाँकि, गठबंधन, जिसे अब इंडिया ब्लॉक कहा जाता है, ने लोकसभा चुनाव के दौरान एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को मैदान में नहीं उतारा।

सामाजिक तौर पर: मुसलमानों के लिए न्यूनतम लेकिन सभी के लिए काम किया गया

पार्टी के नेता गर्व से कहते हैं कि उन्होंने सबके लिए काम किया और यह नहीं देखा कि किसने किस पार्टी को वोट दिया। वहीं मुसलमानों को लगता है कि उनके काम से समझौता किया गया जबकि अन्य समुदायों के लोगों का काम किया गया। समुदाय के एक नेता ने नाम न छापने का अनुरोध करते हुए आरोप लगाया, “जब भी कोई ऐसा मुद्दा होता था जिसमें गठबंधन नेताओं को मुसलमानों के लिए स्टैंड लेना पड़ता था, तो रणनीतिक चुप्पी बनाए रखी जाती थी।”

“जिन लोगों ने वोट नहीं दिया, या बीजेपी को वोट दिया या अन्य पार्टियों के समर्थक हैं, उन्हें या तो काम दिया जा रहा है या उन्हें बिजनेस पार्टनर बनाया जा रहा है, जिससे उन्हें सीधे वित्तीय लाभ हो रहा है। इस प्रणाली से, योग्य पार्टी कार्यकर्ता और विशेष रूप से मुस्लिम कार्यकर्ता खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं,” उन्होंने कहा।

इस सरकार में भी कई ऐसे लोग हैं जो मुस्लिम अधिकारियों की अच्छी जगहों पर पोस्टिंग नहीं देना चाहते।

इंडिया ब्लॉक के साथी, मुख्य रूप से झामुमो के, अब युवा नेता जयराम महतो की पार्टी जेबीकेएसएस और एआईएमआईएम जैसे में विकल्प तलाश रहे हैं।

इसे लेकर समुदाय के लोगों में नाराजगी देखी जा रही है। 22 जुलाई को यूनाइटेड मुस्लिम फोरम ने रांची प्रेस क्लब में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर अपनी मांगें हेमंत सोरेन सरकार के सामने रखीं।

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उर्दू भाषा संबंधी मुद्दों को लेकर फरोग-ए-उर्दू तहरीक द्वारा कल्पना सोरेन को ज्ञापन सौंपा गया था (फाइल फोटो)

मॉब लिंचिंग कानून

झारखंड सरकार ने राज्य में मॉब लिंचिंग के खिलाफ कानून- भीड़ हिंसा निवारण और मॉब लिंचिंग विधेयक 2021 पारित करने की पहल की। हालांकि, एक साल बाद तत्कालीन राज्यपाल रमेश बैस ने इसे लौटा दिया और हेमंत सरकार से इसमें ‘भीड़’ को परिभाषित करने को कहा। सुधार के बाद सरकार ने बिल दोबारा नहीं भेजा। और यह एक्ट राज्य में लागू नहीं हो सका। नतीजा: झारखंड में मॉब लिंचिंग का कहर जारी है

12 जुलाई को रांची स्थित सामाजिक कार्यकर्ता तनवीर अहमद ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को एक खुला पत्र लिखा और राज्यपाल को मॉब लिंचिंग बिल को फिर से भेजने सहित सरकार से कई मांग अल्पसंख्यकों से जुड़े किए गए।

रांची पुलिस फायरिंग रिपोर्ट

प्रदेश की राजधानी में हुई पुलिस फायरिंग के मामले में दो मुस्लिम युवकों की मौत हो गई, लेकिन सरकार पीड़ितों के साथ खड़ी नजर नहीं आई। निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने वाले ट्रिगर हैप्पी  पुलिसकर्मियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। “कम से कम दो समितियां गठित की गयी, लेकिन दो साल बाद भी, उन्होंने अभी तक एक रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की है,” रांची के एक कार्यकर्ता नदीम खान ने ईन्यूज़रूम को बताया।

“कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा गोलीबारी भी की गई थी, और ऐसा भी माना जा रहा की दो में से एक मुस्लिम युवक की दूसरे समूह की गोली से मृत्यु हो गई। केवल एक निष्पक्ष रिपोर्ट ही तस्वीर साफ कर सकती है।’ इसलिए रिपोर्ट सार्वजनिक होनी चाहिए,” खान ने कहा।

गठबंधन सरकार में सबसे ज्यादा नुकसान उर्दू को हुआ

पिछले पांच वर्षों में गठबंधन सरकार में सबसे ज्यादा नुकसान उर्दू भाषा को हुआ है। न केवल उर्दू शिक्षकों की भर्ती नहीं हुई, बल्कि राज्य के अधिकांश उर्दू माध्यम स्कूलों को सामान्य हिंदी स्कूलों में बदल दिया गया है। यह जगरनाथ महतो के शिक्षा मंत्री रहते हुए हुआ था।

इस बीच झामुमो के घोषणापत्र में मदरसा बोर्ड के साथ-साथ उर्दू अकादमी बनाने की बात भी थी, लेकिन अब तक इसका गठन नहीं किया गया।

जून में फरोग-ए-उर्दू तहरीक के इमरान अंसारी ने नवनिर्वाचित विधायक कल्पना सोरेन से मुलाकात की और उन्हें एक ज्ञापन दिया जिसमें बताया गया कि राज्य में उर्दू शिक्षकों के 3712 पद खाली हैं। इसमें यह भी बताया गया कि राज्य में 544 उर्दू स्कूलों को सामान्य स्कूल घोषित किया गया है। उर्दू स्कूलों में शुक्रवार की साप्ताहिक छुट्टी में बदलाव किया गया है और बाकी उर्दू स्कूलों में 60 दिनों की छुट्टियों को काटकर 53 दिन कर दिया गया है।

“इन सभी मुद्दों के कारण, झारखंड में गठबंधन या इंडिया ब्लॉक के लिए मुस्लिम मतदाताओं में कोई उत्साह नहीं है और यदि इस संबंध में कोई बड़ी कार्रवाई नहीं की गई है। विधानसभा चुनाव के लिए हेमंत सोरेन सरकार के लिए कोई अच्छी खबर नहीं है,” इमरान ने ईन्यूज़रूम को बताया।

 

इंग्लिश में प्रकाशित स्टोरी का अनुवाद

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