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गुम होती धुनें, खोते कलाकार: पाकिस्तान के लोक-संगीत की सिसकियां

'इंडस ब्लूज़' पाकिस्तान की सांस्कृतिक विरासत का एक शोकगीत है। यह उन आखिरी कलाकारों और शिल्पकारों की दास्तान है, जो मिटते हुए संगीत को जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं। इनकी कला और धुनें उनके साथ खत्म हो रही हैं, मगर उनकी कहानियां दिलों में गूंजती रहेंगी

वाद शरीफ़ द्वारा निर्देशित यह डॉक्यूमेंट्री पाकिस्तान की मरती हुई विरासत, लोक-संगीत और उन अंतिम पारंपरिक वाद्य-वादक, गायक तथा शिल्पकारों को दर्शाता है जो देश के लिए एक संपत्ति हैं, पर जिनका मूल्य नहीं रह गया है। सिंधु नदी की यात्रा करते हुए इसमें पाकिस्तान की समृद्ध लेकिन उपेक्षित संगीत की संस्कृति पर प्रकाश डाला गया है।

डॉक्यूमेंट्री शुरुआत में सिंध के एकमात्र बोरेंडो-वादक फकीर जुल्फिकार से परिचय कराती है, जो सिंधी बांसुरी का एक प्रकार ‘नार’ भी बजाते हैं। बोरेंडो मिट्टी से बनाया जाता है, बिल्कुल मिट्टी के बर्तन की तरह, जिसमें छोटे-छोटे छेद होते हैं, जिससे वादक ध्वनि की तीव्रता को नियंत्रित कर सकता है। अल्लाहजुरिओ पाकिस्तान में इस वाद्य-यंत्र के अंतिम शिल्पकार हैं और कठिनाई में जी रहे हैं।

इससे आगे डॉक्यूमेंट्री खमीसु खान गांव में जाती है, जहां अब्दुल खमीसु खान रहते थे, जो अल्घोजा के मूल शिल्पकार थे। उन्होंने अपने छात्र इब्राहिम हनेजो को इस वाद्य-यंत्र को बनाने की कला सिखाई और अब वह पाकिस्तान में एकमात्र व्यक्ति हैं जो इस उत्कृष्ट कृति को बनाना जानते हैं। आज के समय में इस वाद्य-यंत्र की कोई मांग नहीं है, इसलिए वह इसे केवल अपने शिक्षक के बेटे अकबर खमीसु खान के लिए बनाते हैं, जो अंतिम अल्घोजा-वादक हैं। इब्राहिम ने इस वाद्य-यंत्र के निर्माण के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया है।

सिंध का सबसे बड़ा जिला थार कुछ सबसे असाधारण प्रतिभाशाली वाद्य-वादकों और गायकों का घर है, माई धाई उनमें से एक है। उमरकोट के सत्तार जोगी, जो सांस्कृतिक संगीत को जीवित रखने की एकमात्र जिम्मेदारी उठाते हैं, एक सपेरे और ‘मुरली बीन’ वादक हैं, क्योंकि वाद्य-यंत्र सार्वजनिक रूप से नहीं बेचा जाता है, इसलिए थार की विरासत का यह प्रतीक धीरे-धीरे लुप्त होता जा रहा है।

इसके बाद डॉक्यूमेंट्री बलूचिस्तान जाती है, जहां हमें सचू खान से मिलवाया जाता है जो पाकिस्तान के एक प्रसिद्ध सरोज कलाकार हैं और हृदय-रोग से जूझ रहे हैं। इस विशेष तरह के सरोज वाद्य-यंत्र के अंतिम शिल्पकार के रूप में मुहम्मद जान अपने दैनिक संघर्ष के बारे में बताते हैं। संघर्ष के बारे में इसलिए एक ऐसे अनूठे सरोज की मांग न के बराबर रह गई है।

वहीं, रहीमयार खान गांव से चोलिस्तान जनजाति की भक्ति मंडली में कृष्ण लाल भील और उनके शिष्य अजमल लाल भील शामिल हैं। वे दोनों रांति वाद्य-यंत्र बनाते हैं और बजाते भी हैं और शिल्पकला के लिए सामग्री खोजने के लिए संघर्ष करते हैं। अजमल खुलासा करते हुए कहते हैं, “इंस्ट्रूमेंट का तार घोड़े के बालों से बना है, पर लोग हमें घोड़े के बाल देने से मना कर देते हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि हम उनका उपयोग करके काला-जादू कर सकते हैं।” यह जोड़ी पाकिस्तान में रांति के एकमात्र वादक और शिल्पकार हैं और जीने के लिए बड़ी मुश्किल से गुजारा कर रहे हैं।

इसी तरह, पेशावर में एजाज सरहदी का परिवार है, जिसे पाकिस्तान और संयुक्त भारत में सरिंदा को लोकप्रिय बनाने का श्रेय दिया जाता है। भले ही वह देश में बचे एकमात्र सरिंदा-वादक हैं, पर उनके बेटे ने इसके बजाय सैक्सोफोन सीखने का विकल्प चुना है।

पाकिस्तान के सबसे प्रमुख सारंगी-वादकों में से एक ज़ोहैब हसन 34 तारों वाला एक चुनौतीपूर्ण वाद्य-यंत्र बजाते हैं, जिसे बजाना दुनिया का सबसे कठिन माना जाता है। यह लंबे समय से लाहौर के शाही मोहल्ला के शास्त्रीय नृत्य से जुड़ा हुआ था, जिसे जनरल ज़िया-उल-हक के शासन ने गैरकानूनी घोषित कर दिया था। उस्ताद ज़ियाउद्दीन का मानना ​​है कि संगीत को चरमपंथियों द्वारा गैरकानूनी घोषित कर दिया गया है, जबकि पवित्र शास्त्रों में यह साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं है कि इस्लाम में यह निषिद्ध है।

यह डॉक्यूमेंट्री धार्मिक मौलवियों और आतंकवादी हमलों (विशेष रूप से बलूचिस्तान में) के रवैये को भी उजागर करती है जिसने लोक-संगीत परंपरा को और अधिक चोट पहुंचाई है। इस बीच, एक अन्य संगीतकार दिखाता है कि सारंगी की गर्दन में इस्लामी मेहराब है और सवाल करता है कि ऐसा वाद्य-यंत्र गैर-इस्लामी कैसे हो सकता है?

उस्ताद ज़ियाउद्दीन कहते हैं, “सिर्फ़ दो चीजें हैं जिन्हें आप देख नहीं सकते लेकिन आप उन पर आंखें मूंदे भरोसा कर सकते हैं; ‘इश्क़ और ‘मौशक़ी।” लेकिन, संगीत जो हमें वैश्विक स्तर पर जोड़ता है और हमारी विरासत का अभिन्न अंग है, वह हमारे सामने ही अपनी अंतिम सांसें ले रहा है।

दरअसल, डॉक्यूमेंट्री ‘इंडस ब्लूज़’ किसी भी दर्शक को पाकिस्तान की संगीत परंपराओं का रोडमैप प्रदान करती है। यह पाकिस्तान के लोक और शास्त्रीय संगीतकारों के व्यक्तिगत जीवन, अनुभवों और कच्ची भावनाओं के साथ रांती, सारंगी, सरोज, बलूची बैंजो, चरधा, मुरली बीन, अलगोजा, बोरेंडो और सरिंडा सहित प्राचीन वाद्य-यंत्रों की विरासत का विवरण देती है, पर इस दुखद वास्तविकता के साथ कि पूरी सांस्कृतिक विरासत इन गुमनाम नायकों के साथ ही लुप्त हो जाएगी।

ये नायक जब आपको अपने पूर्वजों के बारे में किस्से सुनाते हैं, तो आप उनकी आंखों में गर्व देखते हैं और फिर एक पल पहले उनकी आंखों और आवाज में जो गर्व था, उसकी जगह उनकी विरासत के भविष्य को लेकर चिंता घर कर जाती है। उत्तराधिकार की श्रृंखला में अंतिम व्यक्ति होने के नाते उनके पास आपको बताने के लिए बहुत कुछ है।

कुछ पल ऐसे भी होते हैं जब उनकी मासूमियत और समर्पण आपको मुस्कुराने पर मजबूर कर देते है। फिर कुछ ऐसे पल भी होते हैं जब आप उनके दिलचस्प किस्से सुनकर हंस पड़ते हैं, पर अंत में जो होता है वह यह है कि ये उनके परिवार के आखिरी सदस्य हैं। यही विचार आपको इसे देखने के बाद घंटों तक परेशान करता रहता है और आप सहज रूप से यह सोचने से खुद को नहीं रोक पाते कि हम क्या खोने वाले हैं।

यहां लोक-संगीत के अंतिम संस्कार में कलाकार अपना ही शोकगीत गा रहे हैं। हम एक शिल्पकार को अपने उस्ताद की मौत पर विलाप करते हुए देखते हैं, एक लोक संगीतकार को जिसका बेटा देशी वाद्य बजाने से मना कर देता है क्योंकि इससे पैसे नहीं मिलते हैं।

“जब शांति और प्रेम मर जाते हैं तो संगीत की परवाह किसे है?” दरअसल, एक लोक-संगीत के कलाकार का यह विचार निर्देशक जावेद शरीफ़ की डॉक्यूमेंट्री में कही गईं बातों को सारांश भी है।

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