गणतंत्र दिवस: संविधान और आज की हकीकत
76 वर्षों बाद भी गणतंत्र के वादे अधूरे: अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव, संविधान के मूल सिद्धांतों को कमजोर करने की कोशिशें चिंता का विषय बनी हुई हैं

पूरे देशवासियों को 76वें गणतंत्र दिवस की दिली मुबारकबाद। 75 साल का सफर पूरा करने के बाद आज हम ‘रिपब्लिक ऑफ इंडिया’ के नाम से पहचाने जाने वाले भारत का गणतंत्र मना रहे हैं। रिपब्लिक का मतलब है एक ऐसा सिस्टम, जो पूरी तरह जनता के लिए और जनता के द्वारा चलता है। इसका मतलब है कि हर नागरिक (citizen) का इसमें बराबरी का योगदान हो।
गणतंत्र का यही ताना-बाना हमारे संविधान में बखूबी समझाया गया है। संविधान न सिर्फ हर इंसान को समान अधिकार (equal rights) देता है, बल्कि उसकी हिफाजत भी करता है। ये यकीन दिलाता है कि दो नागरिकों के बीच किसी भी तरह का भेदभाव (discrimination) नहीं होगा। संविधान की प्रस्तावना (preamble) में इन बातों का खासतौर पर जिक्र किया गया है।
हमारा देश सिर्फ गणतंत्र नहीं, बल्कि लोकतंत्र (democracy) भी है। इसका मतलब है कि जनता की चुनी हुई सरकार उनके लिए काम करेगी। लेकिन पिछले 75 सालों में, जहां हमारा लोकतंत्र और गणतंत्र मजबूत हुआ है, वहीं इस दौरान कई तरह की चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा है।
75 साल का सफर और संविधान की ताकत
आज जब हम 76वें गणतंत्र दिवस की खुशियां मना रहे हैं, हमें यह भी याद रखना चाहिए कि हमारे संविधान ने हर दौर की मुश्किलों में हमारी मदद की है। 75 साल पहले हमारे बुजुर्गों ने एक ऐसे भारत की बुनियाद रखी थी, जहां हर धर्म और तबके के लोगों को बराबरी के हक दिए गए।
लेकिन 2014 के बाद हालात धीरे-धीरे बदलने लगे। संवैधानिक और लोकतांत्रिक संस्थाओं पर दबाव डालकर, संविधान के मूल्यों को कमजोर करने की कोशिशें हो रही हैं। आज जरूरत है कि हम संविधान के उसूलों को समझें और इन्हें बचाने के लिए आवाज उठाएं।
भेदभाव के बढ़ते मामले और प्रशासन का रवैया
संविधान में यह साफ कहा गया है कि किसी भी नागरिक के साथ मजहब, जाति, या रंग के आधार पर भेदभाव नहीं होगा। लेकिन हाल के सालों में कुछ घटनाएं ऐसी हुई हैं, जो संविधान के इस बुनियादी उसूल के खिलाफ जाती हैं।
उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में भेदभाव साफ नजर आता है। संभल की घटना इसका उदाहरण है। पांच मुस्लिम युवाओं की मौत के बाद प्रशासन का रवैया भेदभावपूर्ण रहा। यहां तक कि सिविल कोर्ट के एक जज का बयान भी अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ था।
देशभर में मॉब लिंचिंग की घटनाएं बढ़ रही हैं। कई जगह मुस्लिमों को जबरदस्ती ‘जय श्री राम’ के नारे लगवाए गए। यह नफरत बच्चों तक भी पहुंच चुकी है।
बांका की घटनाएं: नफरत की तस्वीर
हाल ही में बिहार के बांका जिले में दो घटनाएं सामने आईं, जो इस्लामोफोबिया (Islamophobia) की ओर इशारा करती हैं। पहली घटना 24 जनवरी 2024 की है। चार लड़कों ने मदरसे के मासूम बच्चों (10-12 साल) से जबरन ‘जय श्री राम’ के नारे लगवाए और उन्हें मारा-पीटा।
हालांकि, पुलिस ने फौरन कार्रवाई करते हुए चारों आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया। इस घटना में एसईआरएफ (SERF) और कुछ अन्य संगठनों ने दबाव बनाया, जिसके चलते यह कार्रवाई मुमकिन हो पाई। लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि ऐसी फौरन कार्रवाई देश के दूसरे हिस्सों में बहुत कम देखने को मिलती है।
दूसरी घटना बांका के रजौन प्रखंड में हुई। इंडियन बैंक के मैनेजर ने बुर्का पहनी एक मुस्लिम महिला को आतंकवादी कह दिया। यह घटना महिला के पति के सामने हुई, जिससे यह साफ होता है कि इस्लामोफोबिया समाज में कितना गहरा असर कर चुका है।
मदरसों और मस्जिदों को निशाना बनाने की साजिश
मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाने की घटनाएं बढ़ रही हैं। 2014 के बाद मदरसों और मस्जिदों पर हमले तेज हुए हैं। कुछ लोग मदरसों को आतंकवाद से जोड़ने की कोशिश करते हैं, लेकिन यह सिर्फ एक नफरती नैरेटिव है। इंदिरा गांधी के दौर में भी मदरसों की जांच हुई थी, लेकिन किसी तरह का सबूत नहीं मिला।
दरअसल, यह सिर्फ मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक (second-class citizen) बनाने की साजिश का हिस्सा है। सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर और कई सुप्रीम कोर्ट के वकील इस पर चिंता जाहिर कर चुके हैं।
अल्पसंख्यकों के खिलाफ बढ़ती नफरत
2014 के बाद, मस्जिदों और मदरसों के अलावा मुस्लिम समाज की पहचान से जुड़े प्रतीकों पर भी हमले बढ़े हैं। मॉब लिंचिंग के अलावा, कई राज्यों में मुस्लिमों से जबरदस्ती नारे लगवाए गए और उनकी धार्मिक स्वतंत्रता पर सवाल उठाए गए।
यह सब संविधान की उस मूल सोच के खिलाफ है, जो हर नागरिक को समान अधिकार और इज्जत देने की बात करती है।
गणतंत्र के असल मायने
हम आज 76वां गणतंत्र दिवस मना रहे हैं। लेकिन यह सिर्फ एक तहरीक नहीं, बल्कि जिम्मेदारी भी है कि संविधान के उसूलों को बचाया जाए। गणतंत्र का मतलब सिर्फ झंडा फहराना नहीं है, बल्कि हर नागरिक को बराबरी का हक और इज्जत देना है।
अगर हम संविधान की इस बुनियाद को कमजोर होने देंगे, तो हमारा गणतंत्र सिर्फ नाम का रह जाएगा। हमें मिलकर यह यकीन दिलाना होगा कि हर मजहब और तबके को बराबरी का दर्जा मिले, क्योंकि यही असली गणतंत्र है।
(लेखक अफ्फान नोमानी लेक्चरर और स्तंभकार हैं और एसईआरएफ इंडिया से जुड़े हैं।)