कोरोना-काल में रैलियों के बिना क्यों नहीं हो सकते चुनाव?
अमेरिका में पिछले साल नवंबर में राष्ट्रपति पद के लिए मतदान हुए थे, जिसमें चुनाव के दौरान तक कोरोना वायरस का कहर और जनता के स्वास्थ्य की उपेक्षा रिपब्लिक पार्टी के उम्मीदवार और तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को भारी पड़ी थी और उन्हें इस चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार जो बाइडन से हार का सामना करना पड़ा था। अमेरिका में हुए इस चुनाव में ट्रम्प ने बड़ी-बड़ी रैलियों का आयोजन किया था। उन्होंने कोरोना महामारी के बावजूद जिस तरीके से चुनाव प्रचार किया था उसकी वजह से यह माना गया कि अमेरिका के कई इलाकों में कोरोना फैला।
प्रश्न है कि यह सब देखने के बावजूद क्या भारत में विशेष तौर पर सत्तासीन नेताओं ने कोई सबक लिया और अपनी दूरदर्शिता दिखाई? उत्तर है- बिल्कुल नहीं। भारत में भी कोरोना का संकट नया नहीं है, लेकिन जिस तरह से इस समय देश के भीतर कोरोना के कारण तबाही मची हुई है, अस्पतालों में बिस्तर, दवा, इंजेक्शन, ऑक्सीजन, वेंटीलेटर और एम्बुलेंस की कमी दिखाई पड़ रही है, कई बड़े शहर शमशानों में बदलते हुए नजर आ रहे हैं और संक्रमण का प्रसार गांव-गांव तक पहुंच रहा है, वह कल्पना से अधिक भयावह और विचलित करने वाला है। उत्तर-प्रदेश की राजधानी लखनऊ में तो एक बड़े पत्रकार और एक बड़े इतिहासकार की असमय मृत्यु महज इसलिए हो गई कि समय रहते एक को ऑक्सीजन तो दूसरे को रेमडेसिविर इंजेक्शन नहीं मिला था। अमूमन यही हालात भोपाल, इंदौर, सूरत, अहमदाबाद, जयपुर, दिल्ली, पटना और अन्य तमाम शहरों में भी है जहां बुनियादी सुविधाओं के लिए मंत्री स्तर पर सिफारिशों के बावजूद कई कोविड मरीजों के लिए कोई व्यवस्था नहीं हो पा रही है और वे दम तोड़ रहे हैं।
दूसरी तरफ, कोरोना महामारी के इस दौर में बंगाल चुनाव को लेकर यदि बात करें तो कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने जब यह घोषणा की कि वे कोई रैली नहीं करेंगे तो भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय ने उनका मजाक उड़ाते हुए कहा कि राहुल को सुनता कौन है! यदि यह मान भी लें कि राहुल गांधी को बहुत कम लोग सुनना चाहते हैं तब तो यह भाजपा और विशेषकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सोचना चाहिए कि उन्हें सुनने जुटाई जाने वाली भारी भीड़ से तो महामारी कितनी डरावनी और जटिल हो सकती है। केंद्रीय सत्ता में रहते और अपनी जवाबदेही समझते हुए तो प्रधानमंत्री को ही सबसे पहले यह पहल करनी चाहिए थी और यदि वे अपनी सारी रैलियों को निरस्त करते हुए बाकी दलों के नेताओं से भी रैलियों को निरस्त करने की अपील करते तो इसे राजनीतिक प्रतिबद्धताएं और मतभेद भुलाकर राष्ट्रहित में एक बड़ा कदम माना जाता। लेकिन, इसके उलट भारी दबाव में भाजपा ने बड़ी रैलियों की बजाय छोटी यानी कम भीड़ वाली रैलियां करने का निर्णय लेते हुए यह जता दिया है कि केंद्रीय सत्ता में रहने के बाद भी उसके लिए महामारी से अच्छी तरह निपटने से ज्यादा जरूरी है चुनाव जीतना।
हालांकि, कोरोना संकट में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने पहल करते हुए सबसे पहले यह कहा था कि पार्टी बड़ी रैलियों को करने की बजाय मतदाताओं के घर-घर जाकर दस्तक देगी और सोशल मीडिया के जरिए चुनाव अभियान चलाते हुए मतदाताओं से वोट मांगेगी। इसके बाद तृणमूल कांग्रेस की नेता और राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी कह दिया कि वे भी प्रतीकात्मक सभाएं करेंगी। अंत में भाजपा को भी छोटी रैलियों की घोषणा करने के लिए मजबूर होना पड़ा। लेकिन, इसके बावजूद एक चैनल पर देश के गृहमंत्री व बीजेपी में नंबर दो के नेता कहे जाने वाले अमित शाह ने बड़ा अजीब बयान दे दिया। उन्होंने कहा कि कोरोना प्रसार के लिए चुनाव अभियान को कारण बताना गलत है। इसके पीछे उनकी दलील यह थी कि महाराष्ट्र में चुनावी रैलियां नहीं होने के बावजूद वहां कोरोना का संक्रमण तेजी से फैल रहा है।
प्रश्न है कि क्या रैलियों के बिना चुनाव संभव नहीं है? यूरोप के कई देशों में रैलियां नहीं होती हैं बल्कि उसकी बजाय कई जगह हॉल में चुनाव सम्मेलन आयोजित किए जाते हैं। इसी तरह, ब्रिटेन जैसे देशों में भी जहां कोरोना विस्फोट हुआ था वहां लॉकडाउन को उपचार नहीं समझा गया था, बल्कि लॉकडाउन के जरिए उन्होंने स्वास्थ्य सुविधाओं के मोर्चे पर कोविड से लड़ने और व्यापक स्तर पर टीकाकरण की तैयारी की थी। इसी क्रम में यदि देखें तो ब्रिटेन की तरह हमारी सरकार ने नागरिकों को उनकी जिम्मेदारी निभाने के मामले में अपेक्षित प्रयास नहीं किए। दरअसल, नागरिकों की तरफ से भी कोरोना प्रोटोकॉल का अच्छी तरह से पालन करने की उम्मीद तो तब बांधी जाती जब देश के प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और मुख्यमंत्री कोरोना प्रोटोकॉल का अच्छी तरह से पालन कर रहे होते।
जब देश अभूतपूर्व संकट के दौर से गुजर रहा है तब भी सत्ता पक्ष द्वारा सर्वदलीय बैठक न बुलाए जाने की बात आश्चर्यजनक और दुर्भाग्यपूर्ण लगती है। यहां तक कि विपक्ष यदि सरकार के साथ कोई सरकारत्मक कदम उठाना चाहता है तो यह बात भी सरकार को रास नहीं आ रही है। उदाहरण के लिए, पिछले दिनों पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखते हुए कोरोना नियंत्रण के लिए सरकार को पांच सुझाव दिए थे। इस पत्र का उत्तर देते हुए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने उल्टा कांग्रेस पर निशाना साधा और कहा कि कांग्रेस के नेता आपके (मनमोहन सिंह) बेशकीमती सुझावों का पालन करें और सहयोग बनाए रखें। इसी तरह, कुछ दिनों पहले महाराष्ट्र की पुलिस ने लगभग पांच करोड़ रुपए के रेमडेसिविर इंजेक्शन की कालाबाजारी को लेकर एक दवा कंपनी से पूछताछ की तो भाजपा के नेता व पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस खुद दवा कंपनी के बचाव में थाने पहुंच गए और उल्टा विरोधी दल के नेताओं पर मुकदमा दर्ज करने की मांग करने लगे। वहीं, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे का यह आरोप है कि ऑक्सीजन के मुद्दे पर जब उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी से संपर्क करने की कोशिश की तो उन्होंने बताया गया कि प्रधानमंत्री पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में व्यस्त हैं। देखा जाए तो प्रधानमंत्री का दायित्व और जवाबदेही पद की शपथ लेने भर से पूरी नहीं हो जाती, लेकिन प्रधानमंत्री के तौर पर नरेन्द्र मोदी के प्रचारक बनकर रह गए हैं जिन्हें हर चुनाव लड़ने और जीतने का नशा हो गया है। प्रश्न है कि ऐसे में यदि चुनाव बाद पश्चिम बंगाल में भी कोरोना मरीजों और उनकी मौतों की संख्या बढ़ी तो इनका जिम्मेदार कौन होगा।
दूसरी तरफ, प्रधानमंत्री मोदी पर चुनावी राजनीति में बहुसंख्यक मतों का इस सीमा तक दबाव है कि उन्हें कुंभ को रोकने के लिए कानूनी कार्रवाई करने की बजाय संतों से यह निवेदन करना पड़ रहा है कि वे पूरे आयोजन को प्रतीकात्मक बनाने के लिए विचार करें। वहीं, अब जिस तरह से एक-एक दिन में सरकारी आंकड़ों में लगभग तीन लाख तक करोना के मरीज सामने आ रहे हैं और रोजाना दो हजार से ज्यादा मरीज मर रहे हैं उससे लगता है कि बंगाल चुनाव के मतदान के लिए अगले सभी चरणों की बजाय एक ही चरण में कराने की घोषणा केंद्रीय चुनाव आयोग द्वारा 15-20 दिन पहले ही कर दी जानी चाहिए थी। लेकिन, इससे उलट आयोग उत्तर-प्रदेश में जिला पंचायत स्तर के चुनाव तक टालने की स्थिति में नजर नहीं आता है। पंचायत चुनावों के नतीजे आने के बाद कोरोना महामारी की स्थिति और भी विकराल हो सकती है कि पंचायत चुनाव के दौरान उम्मीदवार दूसरे राज्यों में काम करने वाले स्थानीय मतदाताओं को वोट डालने के लिए बुलाते हैं।
अंतिम प्रश्न यह है कि मौजूदा संकट में राजनीतिक दलों की स्थिति सार्वजनिक हो गई है, लेकिन केंद्रीय चुनाव आयोग क्या कर रहा है? कोरोना महामारी ने यह जता दिया है कि सरकार के आगे केंद्रीय चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं का कमजोर होना दरअसल महामारी बराबर ही चिंता का विषय है और पश्चिम बंगाल में हो रहीं चुनावी रैलियों को देख यह बात और अधिक पुष्ट होती है कि राजनेताओं पर कार्रवाई करने के मामले में आयोग पूरी तरह असहाय हो चुका है।