भारतीय मिश्रित अर्थव्यवस्था में एपीएमसी मंडियां ढहीं तो किन्हें नफा, किन्हें नुकसान
पिछले कुछ दिनों से तीन नए कृषि कानूनों को लेकर देश से लेकर विदेश तक में हंगामा मचा हुआ है। नए कृषि कानूनों के विरोध में किसान लंबे समय से दिल्ली बॉर्डर पर लगातार धरना दे रहे हैं। वहीं अलग-अलग जगहों पर इसके पक्ष और विपक्ष में तमाम तरह के तर्क दिए जा रहे हैं। बहरहाल इन कृषि कानूनों के लागू होने के चलते किसानों के सामने जो जमीनी मुश्किलें पैदा होंगी और उन्हें विभिन्न तरीकों से समझा जा सकता है।
सबसे पहले बिहार का उदाहरण लेते हैं। बात साल 2006 की है। बिहार की नीतीश कुमार सरकार ने कृषि उपज व पशुधन बाजार समिति मंडियों को समाप्त किया था। इसके बाद उनके द्वारा बिहार में कॉर्पोरेट फार्मिंग बिल लागू किया गया। लेकिन, इस कॉर्पोरेट फार्मिंग बिल ने पिछले 15 साल में बिहार में खेतीबाड़ी की हालत बहुत ज्यादा खराब कर दी है। आंकड़े और किसानों के अनुभव भी यही कहानी बयां करते हैं। बिहार सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार बिहार में सीमांत जोतों (एक हेक्टेयर से भी छोटा खेत) की संख्या लगातार बढ़ रही है। वहीं लघु, लघु-मध्यम, मध्यम और वृहद जोतों की संख्या घट रही है। साल 2011 में बिहार में हुई जनगणना की बात करें तो यहां पर करीब 72 लाख खेतिहर हैं, जबकि एक करोड़ 84 लाख खेत मजदूर हैं। कृषि गणना वर्ष 2015-16 के अनुसार बिहार में 91.2 प्रतिशत सीमांत किसान हैं। ऐसी असमानता और खेत की जोतों का लगातार घटते जाना कृषि संकट की बदहाली बयां करता है।
तो फिर मजदूरी ही बचा विकल्प
बिहार में मधेपुरा जिले के सिंहेश्वर के एक छोटे किसान संजय कुमार इस समस्या को और विस्तार से समझाते हैं। संजय कुमार के मुताबिक उनके क्षेत्र के किसानों को लगता है कि अगर वे अपने खेत में काम करने की बजाय कहीं दूसरे क्षेत्र में मजदूरी करें तो ज्यादा ठीक है। इसके पीछे वजह भी ठोस है। अगर किसान हर रोज तीन-चार सौ रुपए के हिसाब से मजदूरी करते हैं तब भी आठ से बारह हजार रुपए तक कमा सकते हैं। लेकिन अगर यही किसान खेती करते हैं तो फिर उनके लिए लागत निकाल पाना भी मुश्किल होगा। ऐसे में अब किसान तभी खेतीबाड़ी की तरफ जा रहे हैं जब उनके पास रोजीरोटी के लिए दूसरा कोई विकल्प नहीं बचता है। किसान संजय कुमार की आगे की बातें इसे और स्पष्ट कर देती हैं। संजय बताते हैं, “एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) के हिसाब से धान का मूल्य 1850 रुपए क्विंटल है। लेकिन, छोटा किसान जब इसे बाजार में बेचने जाता है तो उसे 1100 या 1200 रुपए प्रति क्विंटल का भाव मिलता है। ऐसे में किसान खेती के बजाए मजदूरी का विकल्प क्यों नहीं चुनेगा?”
किसानों की बढ़ेंगी मुश्किलें
नए कृषि कानूनों के आने के बाद स्थितियां और विपरीत होने वाली हैं। कृषि वैज्ञानिक डॉक्टर संकेत ठाकुर चेतावनी देते हुए कहते हैं, “कृषि क्षेत्र में निजी कंपनियां आज भी हैं, मगर केंद्र सरकार अपनी नीतियों और कानूनों के जरिए निजीकरण को बढ़ावा दे रही है। इससे बिहार की तर्ज पर पंजाब और हरियाणा के संपन्न कहे जाने वाले किसान भी बड़ी संख्या में तेजी से खेती छोड़ने के लिए मजबूर हो सकते हैं।” डॉक्टर संकेत ठाकुर इसके पीछे की वजह बताते हैं। वह कहते हैं, “एमएसपी और एपीएमसी मंडियों का एक-दूसरे से एक संबंध होता है। एक जमाने में किसान को बाजार आधारित शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए सरकार द्वारा एमएसपी का निर्धारण करते हुए किसानों की उनकी अपनी मंडी बनाने की योजना को मूर्त रूप देने का काम शुरू किया गया था। अब यह सरकार फिर से पीछे ले जाते हुए किसानों के फसलों के दामों को बाजार दर पर निर्धारित कराने के लिए आगे बढ़ रही है। यानी, सरकार एक तरीके से किसान को उनकी फसल की एमएसपी देने की जिम्मेदारी से पीछे हट रही है।” इसके नुकसान किस तरह से हो सकते हैं? इसके बारे में भी कृषि वैज्ञानिक डॉक्टर संकेत ठाकुर स्पष्ट करते हुए कहते हैं, “बाजार आधारित व्यवस्था में तो कंपनियां किसानों से मामूली दामों पर उनकी फसल खरीदकर उसे उपभोक्ता तक पहुंचाने के लिए अधिकतम दर पर बेचना चाहेंगी। इसमें कोई नियंत्रण या निगरानी न रहने पर तो किसान से लेकर उपभोक्ताओं तक का नुकसान होना है।” इसी कड़ी में डॉक्टर संकेत छत्तीसगढ़ का उदाहरण देते हैं, “छत्तीसगढ़ में करीब 24 लाख धान उत्पादक किसान हैं जिनकी उपज को एमएसपी पर खरीदा जाता है। भविष्य में यदि उन्हें भी बिहार के किसान की तरह काफी कम दाम पर अपना धान बेचना पड़ा तो वह भी खेत बेचकर मजदूरी का रास्ता अख्तियार करने को मजबूर होगा।”
फिर निजीकरण के खतरे से कौन बचाएगा
नए कृषि कानूनों के आने के साथ कृषि क्षेत्र में निजीकरण का खतरा भी मंडरा रहा है। इस खतरे के बारे में चेतावनी देते हुए कृषि कानूनों के अध्ययन से जुड़े शोधार्थी जिगीश एएम एपीएमसी मंडियों की आवश्यकता पर जोर देते हैं। वह कहते हैं, “हमारी मिश्रित अर्थव्यवस्था का आखिरी ढांचा एपीएमसी मंडियां ही हैं। ये भी ध्वस्त हो गईं तो देश पूरी तरह निजीकरण की गति पकड़ लेगा। वजह, पानी, बिजली, सड़क, रेल से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य और दूरसंचार जैसे सभी सेक्टर एक-एक कर कॉर्पोरेट के शिकंजे में जा रहे हैं। अब कृषि के क्षेत्र में भी कॉर्पोरेट का नियंत्रण बढ़ता जाएगा, इसलिए यहां पहली आवश्यकता यह है कि सरकार कॉर्पोरेट के शोषण से किसानों को बचाने के लिए कॉर्पोरेट को रेगुलेट करें। लेकिन, इससे उलट नए कृषि कानूनों में कॉर्पोरेट को तो हर तरह की पाबंदियों से मुक्त ही रखा गया है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इन कानूनों में कॉर्पोरेट के शोषण से किसानों को बचाने के कोई उपाय नहीं किए गए हैं।”
जबलपुर के एडवोकेट जयंत वर्मा कृषि क्षेत्र में निजीकरण के कारण होने वाले बदलाव और उनसे जुड़े नुकसानों को लेकर किसानों और युवाओं को जागरूक करने का काम कर रहे हैं. इस मामले पर वह बताते हैं, “भारत में कॉर्पोरेट को बढ़ावा देने के लिए एक नीति के तहत जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में कृषि के योगदान को 1990 के दशक से घटाने की कवायद की जा रही है। इसके अंतर्गत एक छोर से किसान की उत्पादन लागत को साल-दर-साल बढ़ाया जा रहा है। दूसरे छोर से उसकी उपज का जायज दाम न हासिल हो यह कोशिश भी हो रही है। यही वजह है कि खेती हर साल पहले से ज्यादा महंगी होती जा रही है। उत्पादन लागत न निकालने के कारण लगातार घाटा सहने वाले किसान अपनी जमीनें बेचकर खेती को अलविदा कह रहे हैं।”
कहीं अमेरिका जैसा न हो जाए हाल
एडवोकेट जयंत वर्मा कहते हैं, “जनगणना के आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं कि हर साल लाखों किसान खेती छोड़ते जा रहे हैं। कई दशक पहले जैसा अमेरिका में हो चुका है वही हमारे यहां हो रहा है। अमेरिका में भी कभी छोटे किसानों ने खेती में हो रहे घाटे को देखते हुए अपने खेत बेच दिए थे। अब उन खेतों पर ज्यादातर बड़ी कंपनियों या बड़े किसानों का अधिकार है। वहां हालत यह है कि छोटे या मझोले किसानों के बजाए खेती कॉर्पोरेट द्वारा कराई जा रही है।” नए कृषि कानूनों को लेकर चिंताएं जयंत की बातों में साफ जाहिर हैं। वह इसके खतरे बताते हुए कहते हैं, “भारत में भी सरकार के कृषि कानूनों का मसौदा यही है कि खाद्यान्न उत्पादन से लेकर, मंडी, संग्रहण और उसके वितरण से जुड़ी सभी गतिविधियों पर कुछ कॉर्पोरेट का नियंत्रण हो जाए। इसके लिए उन्हें निवेश से लेकर मुनाफा कमाने तक हर स्तर पर आर्थिक के साथ ही राजनैतिक संरक्षण भी दिया जा रहा है।” जयंत आगे आगाह करते हैं, “जरा सोचिए, जब कोई एक कॉर्पोरेट ही कई लाख मैट्रिक टन खाद्यान्न जमा करने के लिए कई करोड़ रुपए की लागत से कई विशालकाय गोदाम बना रहा है तो ऐसे में साफ है कि सामान्य कॉर्पोरेट तो कृषि क्षेत्र के निजीकरण की प्रक्रिया में वैसे भी शामिल नहीं हो सकता है। यदि एक ही कॉर्पोरेट के पास देश का बहुत सारा खाद्यान्न जमा हो जाए तो खाद्यान्न की कीमतों में उतार-चढ़ाव लाने और उसे अपने हिसाब से नियंत्रित करने के नजरिए से भी तो यह एक खतरनाक पहलू है।”
कृषि कानूनों के अध्ययन से जुड़े शोधार्थी जिगीश एएम कृषि-क्षेत्र में निजीकरण से जुड़े अन्य खतरों के संबंध में बताते हैं। जिगीश इसके पीछे कॉर्पोरेट कंपनियों की मंशा को वजह बताते हैं। उनके मुताबिक, “हर कॉर्पोरेट कंपनी अधिकतम मुनाफे के लिए काम करती है। ऐसे में यदि निजी कंपनियां बीज, खाद, उर्वरक और कृषि औजारों के मूल्य बढ़ा दें तो इससे किसानों के लिए खेती करना पहले से ज्यादा मुश्किल होता जाएगा, क्योंकि इससे उत्पादन की लागत और कई गुना बढ़ती जाएगी।” जिगीश के मुताबिक विषय कृषि क्षेत्र में निजी कंपनियों के आने का नहीं है, बल्कि इस क्षेत्र में उनके एकाधिकार का है। वजह, कई निजी कंपनियां आज भी बेरोक—टोक अपना कारोबार कर ही रही हैं। बुनियादी बात यह है कि निजीकरण के चलते जब ये इस सेक्टर पर हावी होंगे तो किसानों से उपज की खरीदी से लेकर उन्हें बेचने तक कॉर्पोरेट पर नियंत्रण और निगरानी कैसे होगी?
सरकार की आमदनी भी घटेगी
इन सारी परिस्थितियों में कृषि क्षेत्र को कॉर्पोरेट की लूट से कैसे बचाया जाए यह भी एक बड़ा सवाल है। इसके जवाब में कपिल शाह बताते हैं कि इसके लिए सरकार को ज्यादा से ज्यादा सभी क्षेत्रों में एपीएमसी मंडियां खोलनी ही पड़ेंगी। ऐसा होने पर ही किसान को अपनी उपज बेचने के लिए दो बाजार मिलेंगे। कपिल आगे बताते हैं, “एपीएमसी मंडियों में किसान की उपज खरीदने के कुछ नियम होते हैं। इसके लिए एक प्रक्रिया का पालन किया जाता है और उसके लिए पंजीकृत व्यापारियों द्वारा मंडी के भीतर बोली लगाने का भी प्रावधान है। इस दौरान जमा हुए टैक्स का पैसा राज्य सरकार को हासिल होता है। यदि व्यापारी की जगह कॉर्पोरेट आए भी तो वह किसान से मोलभाव करके सौदा कर लेगा और इससे राज्य सरकार की आमदनी भी कम हो जाएगी। वजह, मंडी में टैक्स देना होता है, जबकि नए कानूनों में खुले बाजार को टैक्स-फ्री रखा गया है।”
इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार हरीश दामोदरन कृषि नीतियों से संबंधित मामलों में लगातार रिपोर्टिंग कर रहे हैं। वह पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों की एपीएमसी मंडियों की तुलना गुजरात में दुग्ध सहकारी समितियों से करते हैं। वह बताते हैं, “इन राज्यों में एपीएमसी मंडियां एक तरीके से किसान परिवारों की जीवनशैली और संस्कृति का हिस्सा हो चुकी हैं। अब तक उनकी संपन्नता के पीछे अहम कारक भी मानी जाती रही हैं। कल को सरकार कहे कि दुग्ध सहकारी समितियों में अनियमितताएं हैं या वे बेहतर तरीके से काम नहीं कर पा रही हैं, इसलिए कोई बड़ा कॉर्पोरेट दूध खरीदेगा तो गुजरात में इसका सबसे पहले भारी विरोध होगा और गुजरात से ही इस मुद्दे पर एक बड़ा आंदोलन शुरू हो जाएगा।”
अंत में सवाल यह उठता है कि फिर भारत में मौजूदा कृषि संकट का समाधान किस ओर है? इस बारे में कृषि कानूनों के अध्ययन से जुड़े शोधार्थी जिगीश एएम बताते हैं कि भारत की खेतीबाड़ी की एक प्रमुख समस्या यह है कि हर दस में से आठ किसानों के पास अधिकतम पांच एकड़ तक के खेत हैं। जमीन की इतनी छोटी-छोटी जोतों से मुनाफा तो दूर खेती की लागत निकालना भी बहुत मुश्किल होता जा रहा है। इसलिए सामूहिक सहकारिता पर आधारित खेती ही इस संकट से निकलने का सबसे अच्छा उपाय साबित हो सकता है। यह पूरी व्यवस्था लोकतांत्रिक है और सभी किसानों को उनके मालिकाना अधिकार देने की अवधारणा से जुड़ा है। फिर इसमें सबसे अच्छी बात है कि अनुबंध आधारित खेती की तुलना में यहां किसान का शोषण तो नहीं होगा और उसकी जमीन भी सुरक्षित रहेगी। लेकिन, जिस तरह से केंद्र की सारी नीतियां और योजनाएं निजीकरण के समर्थन में संचालित हो रही हैं, उससे तो लगता नहीं है कि भारत में सरकारी स्तर पर सामूहिक खेती को व्यापक स्तर पर प्रोत्साहित किया जाएगा।