बिहार में सामाजिक न्याय की चुनौतियां
राजनीतिक दलों को सोचना पड़ेगा कि सामाजिक न्याय की उनकी लड़ाई में समुदायों के पारंपरिक अधिकार, भूमि सुधार, नदियों की स्वच्छता और पर्यावरण संतुलन का अधिकार शामिल हैं या नहीं
इन चुनावों के पहले चरण से पहले मुझे अपने कार्य के सिलसिले में बिहार जाने का अवसर मिला और मै पटना से बेगूसराय, खगरिया, मुंगेर, भागलपुर, सुलतानगंज, कटिहार आदि जिलों से होकर गुजरा और लोगों से बातचीत की। उससे कुछ समय पूर्व ही मैंने सारण और मुजफ्फरपुर का दौरा भी किया। उत्तर प्रदेश के देवरिया जनपद में हमारे प्रेरणा केंद्र से गोपालगंज जिला बिल्कुल सटा हुआ है। बिहार मे इस समय सबसे बड़ा राजनैतिक युद्ध है और तेजस्वी यादव के नेतृत्व मे महागठबंधन मजबूती से लड़ाई लड़ रहा है हालांकि अभी कुछ दिनों पूर्व एक साथी ने सासाराम से फोन पर बातचीत करते हुए कहा कि बिहार में अभी विचारों की राजनीति काम और व्यक्तियों और जातियों की अधिक है इसलिए आप लाख दूसरी और देखे और नकारने की कोशिश करें लेकिन नीतीश के गठबंधन का अभी भी पलड़ा भारी है। ये मित्र कोई सवर्ण बिरादरी के नहीं थे, पिछड़े वर्ग के थे।
मुझे लगता है कि उनकी बातों में बहुत दम है क्योंकि सामाजिक न्याय की तमाम बातों के बावजूद भी अंततः हम सभी जातीय निष्ठाओ से दूर नहीं हो पा रहे हैं। ये चुनाव का समय है और बिहार भारत का सबसे महत्वपूर्ण राज्य है जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां के लोगों का राजनीतिक समझ दूसरे प्रांतों से बहुत अधिक है लेकिन क्या जो कहा जाता है वो इतना सत्य है या मात्र जातियों की गोलबंदी को राजनीतिक चेतना कहा जा रहा है। इन गोल बंदियों से नेता तो व्यक्तिगत तौर पर मजबूत हो रहे हैं लेकिन जनता असहाय और निराश। अगर ऐसा होता तो संसद में दलित, पिछड़ी, आदिवासी जातियों के सांसदों की संख्या 300 से ऊपर है लेकिन संसद में उनके हितों से संबंधित कानून पास नहीं होते और सरकारी संपति के निजीकरण पर कोई सवाल नहीं होते। असल में सत्ता के दलाल विशेषज्ञ अपनी सुविधा के अनुसार सत्य ‘गढ़ते’ रहते हैं और आम जनता उनको केवल इसलिए स्वीकारती और झेलती रहती है क्योंकि ‘वो’ ‘हमारे’ बीच का है या ‘हमारा’ है। असल में इस ‘अस्मिता’ की राजनीति या विचारनीति का सबसे बड़ा लाभ ऐसे ‘मौसम वैज्ञानिकों’ ने ही उठाया जो पहले ही ये अंदाज लगा लेते हैं कि सत्ता किस और जा रही है।
अब बिहार में जीतन राम मांझी को डेख लीजिए। नीतीश कुमार ने उन्हे मुख्यमंत्री बनाया और फिर हटाया और विधान सभा में उनका मज़ाक भी बनाया लेकिन वो अंत मे उन्हीं के महागठबंधन मे चले गए। मांझी ने मार्च मे अपने नामांकन भरने से पहले अयोध्या में राम लला के दर्शन किये और उनसे अपना पुराना नाता बताया। यही मांझी ने लगभग एक वर्ष पूर्व कहा था कि राम केवल रामायण के पात्र हैं और काल्पनिक हैं। प्रश्न यह नहीं है के भगवान राम काल्पनिक हैं या असली। बात है वैचारिक ईमानदारी की लेकिन इन प्रश्नों पर तो पत्रकार सवाल नहीं पूछते। क्योंकि मांझी एनडीए मे आ गए हैं इसलिए उनके अयोध्या भ्रमण पर आरएसएस और राम जन्मभूमि ट्रस्ट के लोगों ने भी कोई प्रश्न नहीं पूछा कि आप तो पहले भगवान राम की आलोचना कर रहे थे और अब दर्शन के लिए आ गए।
असल में बिहार का संकट यही है और ये दूसरे प्रदेशों में भी ऐसा ही है। आप व्यक्ति और जाति के आधार पर वोट कर रहे हैं और हम विशेषज्ञ उसे ‘विचारधारा’ का स्वरूप पहना कर उसका महिमामंडन कर रहे हैं। असल में वह शुद्ध राजनीति हैं और जातियों को अपनी ताकत दिखाने और वर्चस्व बनाए रखने के लिए जाति के नेता चाहिए। नेताओं ने गठबंधन अपनी जातीय ताकतों के हिसाब से किये हैं। ये जातीय गोलबंदी सामाजिक न्याय नहीं है क्योंकि मुस्लिम प्रश्न आते ही इस गोलबंदी में बिखराव आ जाता है और उनकी स्वीकार्यता केवल तभी है जब मुस्लिम केवल एक वोटर की भूमिका में हैं और नेतृत्व के सवाल से गायब रहे। असल में भाजपा और आरएसएस अभी तक एक बात में पूरी तरह से कामयाब हो गया दिखता है और वो सवाल है मुस्लिम प्रतिनिधित्व का। अब भाजपा तो खुले तौर पर मुस्लिम विरोध की राजनीति कर रही है लेकिन उसने इन सभी दलों को इतना डरा दिया है कि मुसलमानों के सवालों पर कोई भी पार्टी बोलने से कतरा रही हैं। राहुल गांधी और काँग्रेस पार्टी सामाजिक न्याय की बात कर रही हैं और एससी, एसटी और ओबीसी की बात बहुत जोर शोर से उठा रहे हैं लेकिन पूरी भारत जोड़ों यात्रा में और उसके बाद अपने चुनाव अभियान मे राहुल ने एम शब्द से दूरी बनाकर रखी और अब उत्तर भारत मे आकर वह माइनोरिटी शब्द का प्रयोग कर रहे हैं लेकिन वो भी अनमने मन से। सवाल ये नही है कि मुसलमानों की और कोई विशेष ध्यान दिया जाए लेकिन क्या भारत के नागरिक होने के नाते उनके विकास के लिए राजनैतिक दल कोई बात नही कह सकते? क्या मुस्लिम समाज मे व्याप्त समस्याओं चाहे वो सामाजिक हों, आर्थिक हों या सांस्कृतिक हों, उन पर कोई बात नहीं हो सकती?
मार्च महीने के आरंभ में जब मैंने बिहार, झारखंड और बंगाल कि गंगा से जुड़े क्षेत्रों की यात्रा की तो एक बात समझ आई कि हालांकि जनता में इतना मन भेद नहीं दिखाई दिया लेकिन एक बात जो मेरे साथ हुई वो देखकर मुझे लगा कि सवाल केवल राजनीतिक मंचों में अच्छी बात बोलने तक ही सीमित नहीं है अपितु सामाजिक गठबंधन का भी है। मुसलमानों में भी जाति प्रथा है इस बात से कोई इनकार नहीं किया जा सकता। ये बाबा साहब अंबेडकर स्वयं से अपने शोध मे बता चुके हैं। मुसलमानों के बड़े नेताओ और विशेषज्ञों ने कभी इस बात को स्वीकार नहीं किया कि उनके यहाँ भी जातीय भेदभाव है। असल में ये इस कटु सत्य है कि पाकिस्तान विभाजन का एक बड़ा कारण पंजाबी और उर्दू बोलने वाले सामंती पाकिस्तानी नेतृत्व ने पूर्वी पकिस्तानियों या ये कहिए कि आज के बांग्ला मुसलमानों को कभी भी अपने समकक्ष नहीं माना। महत्वपूर्ण बात यह भी है कि पाकिस्तान में अंबेडकर जयंती मनाने वाले कभी ये नहीं कहते कि मुसलमानों में भी पिछड़ापन है या मुसलमानों में भी जातिया होती हैं। बहुत से भारतीय और अंबेडकर कहने वाले लोग इस पाकिस्तानी प्रॉपगंडा का शिकार हो जाते हैं। इस प्रकार परेशानी इस बात से होती है कि मुसलमानों में जातियां हैं और छुआछूत भी है ये प्रश्न उन समाजों और देशों में कभी नहीं उठा जहां मुस्लिम बहुसंख्यक है या शरिया कानून हैं और इसका कारण है इस्लामिक देशों में शरिया कानून और नेतृत्व सामंती लोगों के हाथ में। दक्षिण एशिया में भी पाकिस्तान और बांग्लादेश में असल में ऐसे ही होता है। पाकिस्तान में दलित समस्या हो हिन्दुओं का आंतरिक मसला समझा जाता है और वहां के सत्ताधारियों ने इसे हिन्दू विरोधी प्रॉपगंडा का हिस्सा बना दिया है जिसका इस्तेमाल भारत को वैश्विक मंचों पर शर्मिंदा करने के लिए किया जाता है।
मैंने ये बात यहाँ इसलिए लिखी क्योंकि मैं ये मानता हूँ कि मुसलमानों में भी पसमन्दा और दलित लोग हैं जिसे सवर्ण मुस्लिम नेतृत्व में अपने राजनीतिक और धार्मिक कारणों से कभी भी स्वीकार नहीं किया, वैसे ही जैसे ब्राह्मण एक तरफ अपनी श्रेष्ठता का बखान करते नहीं थकते और समय मिले तो यह भी कह देंगे कि हिन्दू धर्म में तो कोई छुआछूत नहीं होती और ये जो जातीय विभाजन है वो कर्म के आधार पर है। आज भी ये तर्क धड़ल्ले से दिए जाते हैं लेकिन इससे वर्णाश्रम धर्म की जमीनी हकीकत नहीं बदल जाती। आज आरक्षण के सवाल के चलते दलितों के विभिन्न समुदायों के मध्य जबरन मतभेद किया जा रहा है। ईसाई, दलितों और मुस्लिमों दलितों के सवाल पर वैसे भी बहुत से संगठन पहले से कोर्ट में है। इससे बहुत से सवाल खड़े किया जा रहे हैं। कुछ कहते हैं कि यदि मुस्लिम और ईसाई दलितों को आरक्षण मिल गया तो धर्म परिवर्तन को कानूनी शह मिल जाएगी। इसके विपरीत लोग कहते हैं कि धर्म व्यक्ति का निजी मामला है और भारतीय उपमहाद्वीप में धर्मों में जाति विद्यमान है इसलिए आरक्षण का आधार धर्म न होकर जाति हो जो सही है लेकिन जाति प्रथा को हिन्दू धर्म तक सीमित्त कर (जो तकनीकी तौर पर सही भी है) आरक्षण को सीमित कर दिया गया है। सवाल ये है कि हलालखोर और वत्तल जैसी जातिया मैला ढोने के काम में लगी हैं लेकिन उन्हे सरकारी या नगर निगमों में काम नहीं मिलता। हो सकता है कि अब दिहाड़ी पर काम मिलता हो जिसमें बीमारी या छुट्टी पर पैसे काटते हैं। जम्मू कश्मीर में तो इतना खतरनाक कानून था कि उत्तल और वाल्मीकि लोगों को सफाई कार्य के अलावा और कोई काम में अनुमति नहीं थी।
मेरा यह आलेख भटक नहीं रहा। मैं केवल ये कह रहा था कि मुझे लगा था कि राजनीतिक एकता के चलते सामाजिक वैमनस्य कम होने लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बिहार में राजद के बारे में फैलाया जाता है कि एमवाई पर आधारित है। मैंने पटना से एक टैक्सी हायर की और 6 दिन के लिए मेरे साथ थी। ड्राइवर एक नवयुवा था जो लगातार व्हाट्सप्प वीडियो कॉल करता रहता था। मेरे कई बार समझाने के बावजूद वो अपनी आदत से बाज नहीं आता जिसके फलस्वरूप कई स्थानों पर हमें बहुत परेशानी हुई क्योंकि वह रास्ता भटक जाता था। मैंने उससे पूछा कि किसे वोट कर रहे हो तो उसने उत्तर दिया कि तेजस्वी यादव अच्छा काम किये हैं और आबकी बार युवा उन्हें ही वोट करेगा। मुझे खुशी हुई कि यात्रा में एक संवैचारिक व्यक्ति साथ में है तो हमेशा अच्छा रहता है। पहले दिन हम मुंगेर में रुके। हमारी यात्रा लंबी और थकाऊ थी। अपने विश्राम स्थल पर समान रख कर हमने मुंगेर के ऐतिहासिक किले को देखा और शाम को खाने की तलाश में कोई रेसटाउरेन्ट ढूँढना शुरू किया। थोड़ी देर बाद हम एक रेसटाउरेन्ट में घुसे जिसमे बिरयानी, मटन, चिकन और मछली की विभिन्न डिशों के विषय में लिखा था। मैंने अपने ड्राइवर से पूछा के अंदर जाकर देख लो कि क्या क्या चीजें उपलब्ध हैं। वह अंदर गया और फिर तुरंत बाहर आ गया कि यहां नहीं खाना है। मैंने पूछा क्यों? मै भी अंदर गया तो देखा कि रेसटोरेन्ट साफ सुथरा था और मुझे पसंद सभी आइटम वहाँ पर थे। मैं कही पर भी मछली की वराइयटी पसंद करता हूँ। चिकन मेरी लिस्ट में अंतिम होता है जब तक कि देशी ना हो। मेरी समझ में नहीं आया कि यह क्यों बाहर आया। मैंने उससे फिर से पूछा, मीट मछली तो खाते हो न? जी सर, उसने कहा? फिर, यह क्यों नहीं खाना चाहते, मैंने पूछा। सर, आपने नहीं देखा क्या? अरे, क्या देखना था। खाना बनाने में देर नहीं लगती और जगह भी साफ सुथरी थी, पार्किंग के लिए भी स्पेस था। नहीं सर, ये मुसलमान का होटल है? क्या आप मुसलमानों के यहाँ खाना खा लेते है? मुझे बहुत बड़ा झटका लगा? अरे भाई, वो एक होटल है। हिन्दू का हो या मुसलमान का, वो आपको जो चाहोगे वो देगा मैंने कहा। बस केवल एक अंतर होता है, मुस्लिम होटल में आपको हलाल मीट मिलेगा लेकिन बाकी सभी आइटम तो पब्लिक डिमांड का ही होता है। मुझे तो हलाल, झटका खाने से कोई परहेज नहीं। मेरी बात सुनकर वो बहुत आश्चर्य में पड गया। ऐसे लगा जैसे उसने कभी ऐसे सोचा ही नहीं। सर, मुसलमान लोग तो गाय खाते हैं? मैंने कहा भाई गौमांस तो भारत में प्रतिबंधित है और फिर भी मैं ये कहूँगा कि होटल मे किसी गैर मुस्लिम को उसके बिना पूछे या कहा कोई भी किसी भी प्रकार का मांस खाने के लिए नहीं दे सकता। और मुसलमान केवल गाय ही खाते हों ऐसा नहीं है। वो मटन, मच्छी और चिकन भी खाते हैं। आप जो भी खाए वो आपको मिलेगा। आप यदि दाल मांगोगे तो दाल या सब्जी मिल जाएगी और कोई आपको जबरन कोई चीज नहीं खिला सकता लेकिन वह उस होटल में खाने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं था। वह बार बार मुझसे पूछ रहा था कि क्या आप मुसलमानों के हाथ का खाना खा लेते हो। मैंने उसे समझाया कि खान पान को लेकर मै हमेशा ही स्थानीयता को प्राथमिकता देता हूँ और मुझे किसी भी स्थान पर उपलब्ध भोजन को लेने में कोई आपत्ति नहीं है और ये सब होटल कोई फ्री में नहीं देते। हम पैसा देते हैं और अपनी पसंद का भोजन करते हैं। खैर, वह नहीं माना इसलिए हमें दूसरा ढाबा ढूँढना पड़ा जो आगे चलकर ‘पंडित का था जहां पर चिकन मिल रहा था और उसने मुझसे कहा अब वो आराम से खाना खा लेगा।
मुंगेर से चलकर हम भागलपुर पहुंचे और फिर वहाँ से हमें सुलतानगंज पहुंचना था। रास्ते में मैं अपने ड्राइवर से बातचीत करता रहा कि अब समय बदल गया है और आप इस प्रकार से अपने को बदलो। वक्त पर जो मदद कर दे वही अपना होता है। साहेबगंज में मेरे रहने की व्यवस्था हमारे मित्र रामदेव विश्वबन्धु जी के सहयोग से एक मुस्लिम मित्र के यहाँ पर की गई थी। मैंने जब इस विषय में अपने ड्राइवर को बताया कि आज सुलतानगंज में रुकना है और जिनके यहा रुकना है वह हमारे मुस्लिम मित्र हैं तो वह परेशान हो गया। सर, हम गाड़ी में ही सो जाएंगे। खाना हम बाहर खाएंगे। खैर, शाम को जब साहबगंज पहुंचे तो अब्दुल सुभान साहब ने बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया और उनके संस्थान में रहकर बहुत प्रसन्नता हुई। ड्राइवर बहुत देर तक तो गाड़ी मे ही रहा लेकिन अब्दुल सुभान साहब ने जो स्वागत और जगह उपलब्ध कराई तो वह खुश हो गया। मैंने उसे बताया कि मैं भी खाना खा रहा हूँ और यदि तुम्हें दाल लेनी हो तो बता देना । बाद में उसने मेरे साथ खाना खाया।
इस प्रकार की घटनाएं हर बिरादरी में हैं क्योंकि राजनीति अक्सर बिरादरियों की अपनी ताकत है। हम राजनीतिक रूप से साथ में आते हैं लेकिन सांस्कृतिक और सामाजिक स्तर पर हमारे पूर्वाग्रह हैं। मुस्लिम भी गैर मुस्लिमों के घर केवल शाकाहारी खाना ही खाते हैं क्योंकि उनकी धार्मिक मान्यताओ में हलाल के अलावा कोई दूसरे किस्म का मीट हराम है। पुराने समय में विभिन्न जातियों में संबंध थे और वे एक दूसरे की धार्मिक मान्यताओं का सम्मान करते हुए जब भी घर पर आमंत्रित करते थे तो इस बात का विशेष ध्यान रखते थे। बहुत से मुस्लिम जब हिन्दुओं को अपने घर में बुलाते हैं तो उनके लिए शाकाहारी व्यंजन भी तैयार करते हैं। वैसे अधिकांश हिन्दुओं में हलाल या झटका खाने को लेकर कोई बहुत सवाल नहीं थे लेकिन साम्प्रदायिकरण के चलते ये अब शुरू हो गया है हालांकि अभी भी अधिकांश लोग इसकी परवाह किये बिना होटेल्स में जाते हैं और चाव से खाते हैं। आप जो भी खाए, ये आपकी निजी चाहत लेकिन खान पान को लेकर समुदाय या व्यक्तियों के प्रति पूर्वाग्रह रखना अच्छी बात नहीं है। संघ परिवार ने इसी सांस्कृतिक सवाल से लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया और सामाजिक न्याय का नाम लेने वाले लोग इसका उत्तर नहीं दे पाए। भारत में समुदाय के सवाल न केवल राजनीतिक हैं अपितु सामाजिक और आर्थिक भी हैं। बाबा साहब ने इस बात को सांझ और धम्म का मार्ग स्वीकार किया। फुले ने सत्यशोधक हो या पेरियार का आत्मसम्मान का आंदोलन, सभी में समुदायों के सांस्कृतिक प्रश्नों को बेहतर तरीके से उठाया और एक नया विकल्प भी दिया।
आज सामाजिक न्याय का मतलब केवल सरकारी नौकरियों में आरक्षण तक सीमित नहीं होना चाहिए या सत्ता में भागीदारी का सवाल क्योंकि वो तो होना अवश्यम्भावी है। भारत कई समस्याओं का समाधान केंद्र या राज्य की राजधानियों में बैठे ‘विशेषज्ञों’ के ज्ञान से नहीं अपितु पूर्ण फेडरल व्यवस्था पर होगी। केंद्र और राज्यों के हाथ में कुछ शक्ति होनी चाहिए लेकिन विकेन्द्रीकरण को ईमानदारी से जिला, गाँव और शहर तक में पहुंचाया जाए। बिहार मे आज का संकट केवल ये नहीं है कि जातियों की खेमे बंदी हो क्योंकि उसका लाभ केवल नेताओ को मिलता है समाज को नही। बिहार की सामाजिक न्याय वाली ताकते तो भूमि के प्रश्न को ही गायब कर चुकी हैं? नीतीश बाबू ने तो बहुत पहले बंदोपाध्याय कमीशन बिठाया था लेकिन न नीतीश ओर न लालू इस पर बात करने को तैयार हैं। बड़े बड़े लोगों ने अपनी जमीनो को सीलिंग से बचा के रखा है और अधिकांश मामले न्यायालय में लंबित हैं। मंदिरों, मस्जिदों, मठों, गौशालाओ, आश्रमों के नाम से लाखों एकड़ भूमि अभी भी कानून की गिरफ्त से बाहर है। विनोबा के भूदान की जमीने कभी भी भूमिहीन परिवारों को नही मिली आखिर क्यों? आखिर जमीन के पुनर्वितरण का सवाल क्यों नहीं हमारी पार्टियों के अजेंडे में है? ये कोई नहीं कह रहा कि लोगों की जमीन छीन के गरीबों में वितरित कर दे। बात केवल इतनी है कि एक समय सीमा निर्धारित करके, विशेष अदालतें गठन कर ये मामले सुलझाए जाए। दलितों को दिए गए कागज मात्र कागज है उन पर उनका कब्जा नहीं हो पाया है। अगर जमीनो का वितरण होगा तो ये सामाजिक न्याय को ही मजबूत करेगा। भूमिहीन परिवारों में केवल दलित ही नहीं हैं अपितु अति पिछड़ा वर्ग के लोग भी आते हैं। बिहार की शर्मनाक बात यही है कि यहा पर सामाजिक न्याय की बात करने वाली पार्टियों ने भी ऐसे प्रश्नों से मुंह चुरा लिया है और सरकारी नौकरियों का झुनझुना पकड़ा रहे हैं। पहले नौकारिया तैयार करें, सरकारी सेवालों को मजबूत करें, अस्पताल, सरकारी स्कूल आदि को मजबूत करें और तब विभिन्न वर्गों को नौकारिया प्रदान करें।
बिहार एक और बड़े संकट से गुजर रहा है। वो संकट है प्रकृति का। हर वर्ष बाढ़ की विभीषिका से बिहार के लाखों किसानों की खेती चौपट हो रही है। पटना से खगड़िया, भागलपुर, मुंगेर और फिर मुजफ्फरपुर, सारण आदि को यदि हम देखने तो नदियों मे रेत माफिया का कब्जा है। बिहार की नदियों के साथ जो अत्याकर हो रहा है उसने एक तरफ पर्यावरण का गहन संकट पैदा कर दिया है और आने वाले दिनों में बिहार में या तो बाढ़ होगी या सूखा। मार्च में ही तापमान आसमान छूने लगा tहा और हर तरफ धूल ही धूल। इस संकट पर चर्चा नहीं हो रही है। बिहार का ये संकट सबसे पहले गरीबों पर आता है जो हर वर्ष बाढ़ की मार भी झेलते हैं और अप्रैल से जून तक गर्मी की मार मरते हैं। बिहार का रेगीस्तानिकरण हो रहा है। नदिया अपना रास्ता बदल रही है लेकिन क्या साफ हवा पानी, पर्यावरण और कृषि हमारे सामाजिक न्याय के सवाल नहीं हैं? आखिर इससे सबसे अधिक प्रभावित कौन समाज हो रहे हैं?
बिहार के मछुआरों की जीविका पर गहरा संकट है। नदियों में पानी नहीं है और कई इलाकों को डॉल्फिन अभयारण्य घोषित कर दिया गया है जिसके चलते मछुआरे अब मछली नहीं मार सकते। उन पर जुर्माना किया जा रहा है। सरकार नदियों में मछलिया बढ़े इस् प्रश्न पर तो कभी सोचती भी नही होगी क्योंकि नदियों के जरिए अब पर्यटन को बढ़ाने की बात हो रही है। कुछ बड़ी कॉम्पनियों को ठेका मिल जाएगा बाकी हजारों मछुआरों को अपनी ही नदियों पर चलने पर प्रतिबंध लग जाएगा। नदियों का सवाल न केवल पर्यावरण अपितु विभिन्न समुदाय विशेषकर मछुआ समुदाय की जीविका से जुड़ा हुआ है। आज बिहार में गंगा बचाओ अभियान सीधे सीधे मछुआरों की जीविका के सवाल को उठा रहा है। सुल्तानगंज से लेकर कहलगांव का क्षेत्र बेहद महत्वपूर्ण है लेकिन सरकार को लग रहा है कि पर्यटन से वो बहुत राजस्व कमा लेगी। हकीकत ये है कि सुल्तानगंज से लेकर कहलगांव, विक्रमशिला तक का पूरा क्षेत्र पुरातत्व की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है और बिहार की ऐतिहासिक बौद्ध कालीन विरासत को समेंटे हुए है। यह बात भी ध्यान रखनी चाहिए कि कहलगाँव भी व्यापार का एक बहुत बाद केंद्र था और मछुआ समुदाय जलपरिवहन से जुड़ा हुआ था जो आज पूरी तरह से समाप्त हो गया है। यहाँ ये बताना भी आवश्यक है कि सुलतानगंज से लेकर कहलगाँव तक मछुआ समुदाय जल जमींदारी जिसे स्थानीय भाषा में पानीदारी कहते थे, का शिकार था जिसे बिहार में लालू प्रसाद यादव ने अपने पहले कार्यकाल मे खत्म किया था। आज भी बिहार के मछुवारे लालू यादव को इस जमींदारी को खत्म करने का श्रेय देते हैं लेकिन अब उसके बाद क्या। नदियों के कटान से और सरकार की नई नीतियों ने मछुआ समुदाय को उसके पारंपरिक पेशे से दूर कर दिया है। जब इस पैसे से वे अच्छे पैसे काम सकते थे तब बड़ी कॉमपनियों को और नदियों में खनन को बढ़ावा देकर उन्में बाइओ डाइवर्सिटी को खत्म किया जा रहा है। कहलगाँव में मछुआ समुदाय के लिए संघर्ष कर रहे उनके नेता श्री योगेंद्र साहनी ने बताया कि अब इन नदियों में जैव विविधित खत्म हो गई है। अब गंगा में पानी नहीं रह गया और दोआबा क्षेत्र बढ़ रहा है, खेती खराब हो रही है। वह फरक्का बांध को खत्म करने की बात भी कहते हैं। असल में बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश के मछुआ समुदायों के संगठन फरक्का बांध को ही जैव विविधता की समाप्ति का कारण बताते हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी इस बांध को डिकॉमिशन करने की बात कह चुके हैं और मछुआ समुदाय उसका समर्थन करता है।
बिहार की नदियों को खदान माफिया से मुक्त कराने की लड़ाई भी सामाजिक न्याय की लड़ाई का हिस्सा होना चाहिए। सारण में घाघरा और सोन नदी पर आप एक मिनट भी खड़े नहीं हो सकते। हाईवे पर 10 से 20 किलोमीटर तक का ट्रकों का काफिला नजर आता है। गंगा और घाघरा के किनारे हजारों नावे रेत खदान के लिए तैयार रहती हैं। सोन से लाल बालू निकाली जा रही है। खगड़िया से बेगूसराय में रास्ते भर आपको धूल ही धूल दिखाई डेगी। अनेकों नदियों के मिलने से गंगा विशालकाय हो गई है लेकिन गंगा के चारों ओर धूल की सफेद चादर लपटी दिखाई देती है। कटिहार के कुरसेला गाँव के पास कोसी और गंगा के संगम के पास अब पूरा रेत भरा क्षेत्र बन गया है। साहबगंज से मानिहारण तक मैंने पानी के जहाज से यात्रा की जो अनुभव बहुत अदभुद रहा क्योंकि मैंने पहली बार कर सहित और इतने सारे ट्रकों को एक जहाज पर चढ़ते देखा। लेकिन वहाँ भी लोग बताते हैं कि गंगा का पानी बहुत कम हो गया है।
कुल मिलाकर बिहार के राजनीतिक दलों को सोचना पड़ेगा कि सामाजिक न्याय की उनकी लड़ाई में समुदायों के पारंपरिक अधिकार, भूमि सुधार, नदियों की स्वच्छता और पर्यावरण संतुलन का अधिकार शामिल हैं या नहीं। यदि वे अभी भी नहीं चेते तो आने वाला बेहद चुनौती भरा होगा और खेती किसानी और नदियों के संकट का असर सर्वाधिक बिहार के मूलनिवासियों पर होगा जिनके पारंपरिक धंधे चौपट हो जाएंगे और राज्य बाढ़ और सूखे की विभीषिका से शायद ही मुक्ति पा सके। बिहार के राजनीतिक नेतृत्व को इन प्रश्नों पर गंभीर चिंतन करना होगा और जन भागीदारी से इन प्रश्नों का समाधान ढूँढना होगा। याद रखिए, हमारी नदिया और भूमि हमारी ऐतिहासिक विरासत है जिसको बचाए बिना हमारे कोई पहचान है। हमारी कमियों के समाधान हमें ही ढूँढने होंगे क्योंकि कमियों की आड़ मे चालक पूंजीपति इन सभी पर अपनी गिद्ध अपनी नदियों और उन समुदायों के अधिकारों को बचाना हमारा पहला कर्तव्य है जिन्होंने इन नदियों की सेवा की और खेतों को परिश्रम से सींचा। सामाजिक न्याय की इस लड़ाई में समुदायों के इन प्राकृतिक विरासत की सुरक्षा का सवाल सबसे महत्वपूर्ण होगा और आशा करते हैं कि ये बिहार के राजनैतिक और सामाजिक अजेंडा का हिस्सा बनेगा।