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झारखंड के 25 हजार पीडीएस डीलरों के हड़ताल के कारण राशन वितरण प्रभावित

रांची: राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा योजना के तहत आच्छादित 80  करोड़ लाभुकों के बीच प्रतिमाह अनाज का वितरण करने वाले देशभर के पांच लाख से अधिक राशन डीलर कमीशन में बढ़ोतरी करने, शासन-प्रशासन से जारी होने वाले आदेशो में मानवीय पहलुओं की अनदेखी कर जारी करने समेत अन्य मांगो को लेकर विगत एक जनवरी 2024 से बेमियादी हड़ताल पर है। झारखंड में भी 25 हजार से अधिक राशन डीलर/स्वयं सहायता समूहों की बहने अपने परिवार को भुखमरी के कगार से मुक्त कराने को लेकर हड़ताल में शामिल है। जिसके कारण 2024 की पहली जनवरी से ही राशन केंद्रों के बाहर ताले लटके है।

इस संदर्भ में ऑल इंडिया फेयर प्राइस डीलर्स फेडरेशन के राज्याध्यक्ष ओंकार नाथ झा, प्रदेश सचिव राजेश बंसल ने गुरुवार को फोन पर इस बाबर विस्तार से बताया कि झारखंड में 98% पीडीएस डीलर अपनी हक और अधिकार के लिए हड़ताल में शामिल हुए है।

संघ के नेताओं ने कहा कि केंद्र व राज्य सरकारों को देश की सबसे बडी और सफल खाद्य सुरक्षा योजना को संचालित करने वालों के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैये के कारण डीलरों को अपनी रोजी रोटी के लिए विवश होकर हड़ताल का रास्ता अपनाना पड़ता है। संघ के नेताओं ने कहा कि केंद्र व राज्यों की सरकारें समावेशी विकास के रास्ते चल रही है इसपर हमारा कोई विरोधाभास नहीं है। लेकिन सरकारे, शिक्षा, स्वास्थ्य, समाज कल्याण, कृषि, व अन्य विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाने को लेकर योजनाओं के जरिए आर्थिक मदद कर रही है फिर कोटेदारों के साथ सौतेला व्यवहार क्यों मनाया जाता है? कोटेदार भी तो समाज के अंग है। जो विश्व की सबसे बडी खाद्य सुरक्षा योजना का 2014 से ही सफल संचालन कर रहे है।

सरकार ने संज्ञान नहीं लिया मजबूरन हड़ताल करनी पड़ी: ओंकार नाथ झा

हड़ताल कर गरीबों के राशन प्रभावित करने के बाबत संघ के नेताओं ने कहा कि पिछले एक साल से उनका चरणबद्ध आंदोलन के तहत धरना-प्रदर्शन-शासन प्रशासन के जरिये मांगों को लेकर ज्ञापन देने का आंदोलन चलता रहा है। जब सरकार ने संज्ञान नहीं लिया तो मजबूरन में हड़ताल का आह्वान करना पडा है। मांगो के बाबत झा ने कहा कि गरीब कल्याण योजना के तहत 10 से 14 माह का कमीशन बकाया है। इसके अलावा महीनो का रेगुलर राशन वितरण का कमीशन भुगतान में टाल मटोल किया जाता है। अनुकंपा के प्रावधानों में बदलाव करने से अनेक मृत डीलरों के आश्रित भुखमरी के कगार पर है। गोदाम में अनाज की चोरी/कटौती को रोकने में विभाग नाकाम रहा जिसका खामियां भी गरीब डीलरों को भुगतना पड़ता है। ई-पॉश मशीन में नेटवर्क नहीं रहता, निम्न स्तर का ई-काटा आए दिन बिगड़ता रहता है जिसका जिम्मेदार भी लाचार डीलरों को ठहराया जाता है। जो मानवीय स्तर से व्यवहारिक नही है।

कमीशन राशि व्यवहारिक नही: राजेश बंसल

संघ के प्रदेश सचिव राजेश बंसल ने कहा कि राशन डीलर शासन – प्रशासन के अंग है। सरकार के सामुदायिक सेवाओं में डीलर आदेशों का निष्ठा से पालन करते है। लेकिन सरकार द्वारा डीलरों को क्या मिलता है। खुदरा बाजार में 70, 80 रुपये किलो की दाल में डीलरों को महज एक रुपया कमीशन मिलता है जब कि आम प्रचलन में एम रुपये का लेन देन लगभग नहीं के बराबर होता है। इसी तरह 100-150 रुपये की धोती साड़ी लूंगी का कमीशन महज तीन रुपया निर्धारित है जिसमे गोदाम से दुकान तक लाने का ट्रांसपोर्ट भी शामिल है। बावजूद डीलर सरकार के साथ खड़े होकर वितरण करते है। लेकिन ऐसे में डीलर हड़ताल नहीं करे तो क्या करे!

राशन डीलरों की कमीशन शीघ्र बढ़ेगी: विधायक सुदिव्य कुमार

झारखंड मुक्ति मोर्चा के केंद्रीय नेता गिरिडीह के विधायक सुदिव्य कुमार सोनू ने कहा कि सीएम हेमंत सोरेन के नेतृत्व में राज्य सरकार झारखंडी आवाम के हक और अधिकार एवं उनके जीवन स्तर में सुधार को लेकर लगातार यथा संभव कार्य कर रही है। अपनी सरकार के चौथी सालगिरह के मौके पर राजधानी रांची में आयोजित समारोह में सीएम हेमंत सोरेन ने राज्य भर के राशन डीलरो की कमीशन बढोतरी को लेकर घोषणा की है जो स्वागत योग्य है। उन्होने स्पष्ट किया कि वे खुद उनकी वाजिब मांगों को लेकर गंभीर है इस संदर्भ में सीएम से कई चरणों में बात हुई है उनके संज्ञान में है। और सरकार काम कर रही है। सोनू ने विश्वास व्यक्त किया की शीघ्र राज्यभर के पीडीएस डीलरो की कमीशन में बढ़ोतरी होगी। उन्होंने कहा का राज्य हित में हड़ताल वापस लेने पर भी विचार करने की जरूरत है।

‘আধুনিক ভারতের মন্দির’ এর বাইরে: সমসাময়িক ধর্মীয় রাজনীতির একটি সমালোচনামূলক দৃষ্টিভঙ্গি

ভারত স্বাধীন হলে, নেহেরুর ‘Tryst with Destiny’ ভাষণ ভারত যে ভবিষ্যৎ পরিকল্পনা গ্রহণের পরিকল্পনা করেছিল তার জন্য সুর স্থাপন করেছিল। তিনি প্রতিশ্রুতি দিয়েছিলেন, “ভারতের সেবা মানে লাখ লাখ মানুষের সেবা যারা ভুক্তভোগী। এর অর্থ দারিদ্র্য এবং অজ্ঞতা এবং রোগ এবং সুযোগের অসমতার অবসান…আমাদের প্রজন্মের সর্বশ্রেষ্ঠ মানুষটির উচ্চাকাঙ্ক্ষা ছিল প্রতিটি চোখের জল মুছে দেওয়া। সেটা হয়তো আমাদের বাইরে, কিন্তু যতদিন কান্না আর কষ্ট থাকবে, ততদিন আমাদের কাজ শেষ হবে না।” আর এই দিকেই তিনি ভাকরা নাঙ্গল বাঁধ উদ্বোধনের ভাষণে আধুনিক ভারতের মন্দিরের সংজ্ঞা দেন। এইচটি আর্কাইভের একটি প্রতিবেদন এভাবে বর্ণনা করে; “মহান অনুভূতির সাথে প্রধানমন্ত্রী এই সাইটগুলিকে “মন্দির ও উপাসনার স্থান” হিসাবে বর্ণনা করেছেন যেখানে হাজার হাজার মানুষ তাদের লক্ষ লক্ষ সহকর্মীর সুবিধার জন্য মহান গঠনমূলক কার্যকলাপে নিযুক্ত ছিল।

‘আধুনিক ভারতের মন্দির’ বাক্যাংশটি ছিল পাবলিক সেক্টর, শিক্ষাপ্রতিষ্ঠানগুলিও বৈজ্ঞানিক মেজাজ, স্বাস্থ্য সুবিধা এবং সংস্কৃতির প্রচারের জন্য অ্যাকাডেমিগুলি এবং আপনার কাছে কী আছে তা ধারণা করার জন্য অন্তর্নিহিত থিম। ‘আধুনিক মন্দির’-এর এই আন্ডারকারেন্টের সাথে প্রায় চার থেকে পাঁচ দশকের যাত্রা 1980-এর দশক থেকে উল্টে যেতে হয়েছিল যখন একদিকে সংখ্যালঘুদের সাথে মোকাবিলায় শাহ বানোর ব্যর্থতার প্রতিক্রিয়া বিভক্ত রাজনীতির বন্যার দ্বার উন্মোচন করেছিল। সাম্প্রদায়িক শক্তি ধর্মীয় সংখ্যালঘুদের বিরুদ্ধে ব্যাপক প্রচারণা চালায়। একই সময়ে দরিদ্রদের জন্য ইতিবাচক পদক্ষেপ, এবং মন্ডল কমিশনের বাস্তবায়ন মন্দিরের রাজনীতিকে ত্বরান্বিত করেছিল যা ইতিমধ্যেই হিন্দু জাতীয়তাবাদীদের কৌশল বইতে ছিল।

নেহরুর ‘আধুনিক ভারতের মন্দির’-এর বিপরীতে, ‘মসজিদের নীচে মন্দির’-এর অনুসন্ধান বাবরি মসজিদ বিতর্ককে সামনে নিয়ে আসে। আরএসএস বংশধর বিজেপি জন্ম নেয় (1980) ‘গান্ধীয় সমাজতন্ত্রের’ পোশাক পরে মধ্যমপন্থী অটল বিহারী বাজপেয়ীর নেতৃত্বে। তিনি আরএসএস আদর্শে আবদ্ধ ছিলেন। তিনি হিন্দু তান মন-হিন্দু জীবন (হিন্দু আত্মা এবং দেহ-হিন্দু জীবন) লিখেছিলেন এবং তার হিন্দু জাতীয়তাবাদী রাজনীতিকে এলান দিয়ে মুখোশ দিয়েছিলেন। তিনি লাল কৃষ্ণ আডবাণীর কাছে তার স্থান তুলে দিয়েছিলেন, যিনি ‘মন্দির ওয়াহিন বানায়েঙ্গে’ (বাবরি মসজিদ যেখানে অবস্থিত সেখানে আমরা মন্দির তৈরি করব) স্লোগান নিয়ে এসেছিলেন।

আরএসএস কম্বাইন একটি ধারণা তৈরি করতে সক্ষম হয়েছিল যে মসজিদটি যেখানে অবস্থিত সেখানেই ভগবান রামের জন্ম হয়েছিল। রাম রথযাত্রা, মণ্ডল কমিশন বাস্তবায়নের পরে আরও পেশী পেয়েছে। এই যাত্রা সহিংসতার একটি সিরিজ রেখে গেছে। L.K এর পরিপ্রেক্ষিতে আডবানির রথযাত্রা, 1990 সালের দিকে ভারতের বিভিন্ন অংশে প্রায় 1,800 লোক মারা গিয়েছিল। লালু যাদব আদবানিকে গ্রেপ্তার করলে এই যাত্রা বাতিল হয়ে যায়।

কার সেবকদের দ্বারা 6ই ডিসেম্বর 1992 তারিখে মসজিদটি ভেঙ্গে ফেলা হয়েছিল, যার মধ্যে কিছু নির্বাচিত ব্যক্তি ধ্বংসের মহড়া দিয়েছিল। মঞ্চে আডবাণী, যোশী এবং উমা ভারতী বসেছিলেন যেখান থেকে স্লোগান, এক ধাক্কা অর দো, বাবরি মসজিদ তোড় দো (আরো এক ধাক্কা দাও, বাবরি মসজিদ ভাঙো) এবং “ইয়ে তো কেভাল ঝাঁকি হ্যায় কাশী মথুরা বাকি হ্যায়” (এই শুধু শুরু, কাশী মাথরা অনুসরণ করবে)। ধ্বংসের পর মুম্বাই, ভোপাল, সুরাট এবং অন্যান্য অনেক জায়গায় সহিংসতা দেখা দেয়। একটি দীর্ঘ কাহিনী সংক্ষেপে বলতে গেলে, আইনী ব্যবস্থা ‘বিশ্বাসের’ ভিত্তিতে মামলার রায় দেওয়ার জন্য পিছনের দিকে ঝুঁকেছে এবং যারা ধ্বংসের নেতৃত্ব দিয়েছে তাদের নাম দিয়েছে, কিন্তু তাদের দ্বারা সংঘটিত অপরাধের জন্য তাদের কোনও শাস্তি দেয়নি। বিচার বিভাগ তার সমস্ত প্রজ্ঞা বা অভাব; পুরো বাবরি মসজিদের জমি “হিন্দু পক্ষকে” দিয়েছিলেন।

আরএসএস জোটের এই ‘সাফল্যের’ উল্লাসে; দেশ-বিদেশ থেকে বিশাল তহবিল সংগ্রহ করা হয়েছিল এবং একটি বিশাল মন্দির সমস্ত হিন্দু আচার-অনুষ্ঠানের সাথে প্রধানমন্ত্রী নিজেই উদ্বোধনের জন্য প্রস্তুত। এটি একটি ‘আনুষ্ঠানিকভাবে ধর্মনিরপেক্ষ’ রাষ্ট্রের প্রধানের দ্বারা পরিচালিত একটি অনুষ্ঠান হবে। বাবরি মসজিদ ভেঙ্গে না যাওয়া পর্যন্ত একটি নিয়মিত নির্বাচনী তক্তা ছিল এবং এর পরে ‘মহা রাম মন্দির’ তৈরি করা ছিল বিজেপির নির্বাচনী ইশতেহার এবং নির্বাচনী প্রতিশ্রুতির অংশ। মুসলিম সম্প্রদায়ের ঘেটোয়াইজেশন, মেরুকরণ এবং বিজেপির নির্বাচনী শক্তির উত্থানের সাথে সাম্প্রদায়িক সহিংসতা নিয়মিতভাবে বেড়েছে।

বর্তমান দুর্দশাটি এএম সিং দ্বারা সংক্ষিপ্ত করা হয়েছে, “ক্ষমতায় আসার পর থেকে, বিজেপির বেশিরভাগ রাজনৈতিক বক্তৃতা হিন্দু ও মুসলমানদের মধ্যে সাম্প্রদায়িক উত্তেজনাকে বাড়িয়ে তুলেছে। ভারতীয় সংবিধানে 370 অনুচ্ছেদ বাতিল এবং 2019 সালে নাগরিকত্ব সংশোধনী আইন (CAA) পাসের সাথে তাদের ক্রিয়াকলাপগুলি অনুসরণ করেছে… হিন্দুত্বের নীতিতে ভারতীয় নাগরিকত্বকে পুনঃসংজ্ঞায়িত ও পুনঃনির্মাণ করে, বিজেপি সরকার ভেঙে দিয়েছে ভারতের ধর্মনিরপেক্ষতার ভাগ্য এবং উত্তরাধিকার তার সংবিধানে নিহিত রয়েছে।” এখন একটি ঘেটোয়েড মুসলিম সম্প্রদায়কে দ্বিতীয় শ্রেণীর নাগরিক হিসেবে প্রান্তিকে ঠেলে দেওয়া হয়েছে।

এখন যেহেতু মন্দিরটি উদ্বোধন হতে চলেছে তাই হিন্দুদের একটি বড় অংশকে এই চারপাশে একত্রিত করার জন্য সর্বাত্মক প্রচেষ্টা চলছে। আমেরিকা এবং অন্যান্য দেশে, বিপুল সংখ্যক অনাবাসী ভারতীয়রা বিভিন্ন অনুষ্ঠানের আয়োজন করে এ উপলক্ষে প্রস্তুতি নিচ্ছেন। এখানে বাড়িতে, আরএসএস-এর সমস্ত বংশধরকে এই অনুষ্ঠানের জন্য হিন্দুদের সংগঠিত করার জন্য সক্রিয় করা হয়েছে, হয় নতুন মন্দিরে গিয়ে বা স্থানীয় মন্দিরে গিয়ে আচার অনুষ্ঠানের মাধ্যমে।

কাকে আমন্ত্রণ জানানো হয়েছে এবং কাকে বাদ দেওয়া হয়েছে তা নিয়ে ছোটখাটো বিতর্ক রয়েছে। ভাঙা আন্দোলনের প্রধান স্থপতি লালকৃষ্ণ আদবানি এবং তাঁর ঘনিষ্ঠ সহযোগী মুরলী মনোহর যোশীকে মন্দিরের ট্রাস্ট প্রাথমিকভাবে পরামর্শ দিয়েছিল, তাদের বার্ধক্য এবং অজোধ্যায় প্রচণ্ড ঠাণ্ডার কারণে উদ্বোধনে না যাওয়ার জন্য, দ্বিতীয় চিন্তাধারায় ভিএইচপি, প্রধান সংগঠন। তাদের আমন্ত্রণ জানিয়েছে।

বাবরি ধ্বংস যেহেতু এই সাম্প্রদায়িক রাজনীতিকে ক্ষমতায় আসতে সাহায্য করেছিল, তাই মন্দিরের উদ্বোধনকে মেরুকরণকে একীভূত করার এবং নির্বাচনী লভ্যাংশ কাটাতে আরেকটি প্রক্রিয়া বলে মনে হচ্ছে। এই উপলক্ষে প্রচুর সংখ্যক বিশেষ ট্রেন এবং বাসের পরিকল্পনা করা হচ্ছে। মন্দিরের রাজনীতি তুঙ্গে পৌঁছেছে।

সময় এসেছে বৈজ্ঞানিক মেজাজের প্রচারের সাথে নেহরুর ‘আধুনিক ভারতের মন্দির’-এর ধারণাকে স্মরণ করার! বর্তমানে ধর্মবিশ্বাস ও বিশ্বাসের অন্ধ বিশ্বাসকে তুঙ্গে তোলা হচ্ছে। ভারত যখন ঔপনিবেশিক অন্ধকার থেকে বেরিয়ে আসতে শুরু করেছিল, এটি একটি দিকও নিশ্চিত করেছিল যেখানে ‘লাইনের শেষ ব্যক্তি’ প্রাথমিক ফোকাস হবে। রাম মন্দিরকে ঘিরে রাজনীতি আবর্তিত হওয়ার সাথে সাথে, কাশী এবং মথুরার মন্দিরগুলি অনুসরণ করে, দেশের সমস্ত অসুখের জন্য তাকে দায়ী করার সাথে সাথে ‘শেষ ব্যক্তি’ এবং নেহেরুর ‘ট্রিস্ট উইথ ডেসটিনি’ প্রতিশ্রুতির বঞ্চনাগুলিকে বাদ দেওয়া হয়েছে!

দেখুন: যমুনা– হিমালয় থেকে প্রয়াগরাজ

প্রায় দুই বছর যমুনা এবং অন্যান্য নদীর বিভিন্ন স্থান ট্র্যাক করার পর, আমি এখানে আমার যমুনা নদী এবং এর যাত্রার তথ্যচিত্র শেয়ার করছি। ভিডিওটি আমার দ্বারা সম্পাদনা করা হয়েছে যদিও আমি একজন পেশাদার সম্পাদক নই তবে আমাদের সকলের সমস্যা এবং সমস্যা রয়েছে। তাদের আটকে রাখার পরিবর্তে, হিমালয় নদী সমতল এলাকায় আসার সময় যে সংকটের মুখোমুখি হয় সে সম্পর্কে সচেতনতা ছড়িয়ে দেওয়ার জন্য আমি ভিডিওটি সর্বজনীন ডোমেনে রাখার সিদ্ধান্ত নিয়েছি।

ভাষ্য এবং আখ্যান কর্মের সময় আমার দ্বারা লাইভ করা হয়. পাহাড়ের নদীগুলি শক্তি এবং জীবন দ্বারা পূর্ণ তাই অনেক সময় জিনিসগুলিকে কঠিন করে তোলে বিশেষ করে যখন আমরা কথা বলতে চাই তবে আমি যে অঞ্চল এবং যে অবস্থানটি বলছি সে সম্পর্কে আপনাকে অনুভব করার জন্য আমি এর মধ্যে কিছু জিনিস রেখেছি।

আমি আশা করি একটি নির্দিষ্ট সময়ে, আমি একটি ইংরেজি বর্ণনা দিতে সক্ষম হব। আমি একটি বইয়ের উপর কাজ করছি কিন্তু অনুভব করেছি যে ভিজ্যুয়ালগুলিও গুরুত্বপূর্ণ তাই এটি শেয়ার করছি।

লেখক, বিদ্যা ভূষণ রাওয়াত, একজন সবুজ ক্রুসেডার, নদীগুলির চারপাশে সময় কাটাতে এবং এটি বুঝতে এবং লিখতে ভালোবাসেন, তিনি গঙ্গা সম্পর্কেও লিখেছেন– গঙ্গা তৈরির বিষয়টি বোঝা।

Watch: Yamuna– Himalaya to Prayagraj

[dropcap]A[/dropcap]fter nearly two years of tracking various places in the Yamuna and other rivers, I am sharing here my documentary on the Yamuna River and its journey. The video is edited by me though I am not a professional editor but we all have our issues and problems. Rather than keeping them on hold, I decided to put the video in public domain in greater interest to spread awareness about the crisis that the Himalayan rivers face when they come to the plain areas.

The commentary and narrative are put by me live during the action. The rivers in the mountains are full of energy and life therefore many times making things difficult particularly when we want to speak but I have kept some of these things to make you feel about the area and the location I am speaking.

I hope at a certain point in time, I shall be able to put an English narration. I am working on a book but felt that visuals too are important hence sharing this.

The author, Vidya Bhushan Rawat, a green crusader loves to venture out and spend time around rivers to understand and write on it, has also pen down about Ganges– Understanding the making of Ganga.

With one resignation, does JMM fire a salvo?

Ranchi: As Dr Sarfaraz Ahmad, the legislator from Gandey, Giridih resigned from the legislative assembly, and news spread out on the first day of 2024, it indicated for the time to come in the politics of Jharkhand.

Chief minister Hemant Soren, who had got seven notices from the Enforcement Directorate office to appear before it, played his cards before taking any final calls on the appearance before ED on alleged money-laundering charges.

The tribal chief minister seems to be giving a message to ED and its political opposition Bharatiya Janata Party that he is ready for every situation.

But let’s first understand the resignation.

How important is senior leader Sarfaraz Ahmad’s resignation

Sarfaraz Ahmad joined active politics in 1977 and not only was he once president of Bihar congress during the time of united Bihar, but also a Member of Parliament (MP) from Giridih and three times MLA.

He was very close to former Prime Minister Rajiv Gandhi, and his assassination made him a political orphan. There was a time when he had to fight for a ticket in Congress. He eventually left the grand old party. He became a rebel but won the election. He later returned to his party. But, in 2019, he joined JMM and became a legislator again. After the resignation, political observers believe that he will be sent to Rajya Sabha by JMM and Congress together since Diraj Sahu, Congress’s Rajya Sabha member’s term is getting over in March this year. The resignation of a leader, who spent almost five decades in Jharkhand’s politics would come in a huff.

Dr Ahmad told eNewsroom, “I am not going to fight the Lok Sabha election, but if the party will send me to Rajya Sabha, I will surely serve there.”

He also issued a press statement on his resignation and mentioned, “I have resigned to strengthen the party, the government and the hands of Hemant Soren.”

After this political development, the more simplistic way is to believe that Hemant Soren will resign and his wife will be at the helm of affairs in the state.

This is what BJP leaders, who have always expressed more excitement every time some development with the ruling government and party takes place, did this time as well. 

Soren puts on a brave face

Since 2020, Jharkhand has been disturbed and it was predicted that the Hemant Soren government will not last this year and that year. The government has completed four years, and we have grown strength to strength,” claimed JMM MLA Sudivya Sonu to eNewsroom.

Significantly, when the news of Sarfaraz Ahmad was flashed on the first day of 2024, Soren was attending a function in Saraikela-Kharsawan. There he claimed that he would not only complete his term but return to power as well.

The party has called its ministers and MLAs for a meeting on January 3 at the chief minister’s house.

BJP’s claim

Soon after the resignation of Sarfaraz Ahmad, Godda MP and BJP leader Nishikant Dubey tweeted that the New Year would not be good for the Soren family as soon Hemant Soren resigned and his wife Kalpana will be made the CM.

Like Dubey, BJP state president, Babulal Marandi also claimed that Hemant Soren wants to make his wife as chief minister of Jharkhand.

Meanwhile, December 31, 2023, was the deadline to respond to the seventh and final notice of ED, to appear before it. But Soren skipped it.

But what if, Hemant Soren, neither resigns nor gets arrested by the ED? It happened on many occasions when rumours were strong that CM Soren’s government would not last. 

Another perspective

Gandey constituency, a more secure seat for the INDIA alliance can help both JMM and Congress to adjust their candidates here. There is a senior Congress leader, who is not happy with the alliance government as he has been ignored for a long. His candidature from Gandey not only can solve the issue of assembly seat adjustment but also give strength to INDIA in one of the most high-profile Lok Sabha seats in Jharkhand also. 

झारखंड में 2024 आम चुनाव से पहले राजनीतिक सरगर्मी पहले दिन से शुरू

गिरिडीह: झारखंड मुक्ति मोर्चा (Jharkhand Mukti Morcha) के कद्दावर नेता गाण्डेय विस क्षेत्र के विधायक डॉ सरफराज अहमद ने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया है। जिसके स्वीकृति की पुष्टि झारखंड विधानसभा के प्रभारी सचिव ने एक जनवरी 2024 को करते हुए स्पष्ट किया कि डॉ अहमद के इस्तीफे के बाद गाण्डेय सीट रिक्त हो गई है।

2024 की पहली जनवरी को झारखंड की राजनीति को अपने जीवन के लगभग पांच दशक देने वाले डॉ अहमद जैसे कद्दावर नेता जब अचानक विधायकी से इस्तीफा देते हैं तो निकट भविष्य में राज्य की राजनीति में किसी बड़े सियासी उलटफेर की चर्चा होना, अनुमान लगाना स्वाभाविक है।

जाने जेएमएम विधायक सरफराज अहमद के बारे में

एकीकृत बिहार प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे डॉ अहमद  2019 में कांग्रेस (Congress) छोड़कर झामुमो (JMM) में शामिल हो गये थे। 2019 में जेएमएम के टिकट पर चुनाव लड़ा और तीसरी बार गाण्डेय के विधायक बने। इससे पहले 1984 में गिरिडीह लोकसभा से कांग्रेस के टिकट पर सांसद बने थे। स्व राजीव गांधी के समय 1985 में एआईसीसी (AICC) के संयुक्त सचिव रहे।

हालांकि जेएमएम और कांग्रेस पार्टी की और से इस संदर्भ में किसी नेता का कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है। सत्तारूढ़ दल के नेता कुछ भी बोलने से बच रहे है। स्वयं डा अहमद ने भी कुछ नहीं कहा है। उन्होंने एक बयान जारी कर इतना बताया, मेरे ये कदम के ये कदम पार्टी और सरकार को मजबूती और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के हाथों को मजबूत करने के लिया उठाया है।

इस बीच सियासी अनुमान से प्राप्त संकेतों के मुताबिक डा अहमद के इस्तीफे के कई कारण हो सकते है। चर्चा है कि ईडी (ED) के लगातार बढ़ते दबाव और विपक्ष के हमले के मद्देनजर सीएम हेमंत सोरेन इस्तीफा देकर अपने उत्तराधिकारी के रूप में पत्नी कल्पना सोरेन को ला सकते है। छह माह के भीतर होने वाले गाण्डेय में विस चुनाव कल्पना सोरेन चुनाव लड़ सकती है। क्योंकि गाण्डेय सीट भले ही सामान्य है लेकिन जेएमएम के स्व सलखन सोरेन तीन और डॉ अहमद तीन बार यहां से विधायक बने है।

भाजपा के कैंडिडैट जय प्रकाश वर्मा जो पिछली बार जेएमएम कैंडिडैट के खिलाफ खड़े थे, वो खुद अब जेएमएम जॉइन कर चूके हैं, इसलिए पार्टी के लिए ये एक ‘सेफ सीट’ मानी जा रही है।

सूत्रों के मुताबिक जेएमएम इसी साल झारखंड में होने वाले राज्यसभा चुनाव में डॉ अहमद को एडजेष्ठ कर सकती है। कुछ विश्लेषक 2024 के आम चुनाव में अपने पुराने घर वापस लौटकर इंडिया गठबंधन के बैनर तले कोडरमा से लोकसभा का चुनाव भी लड़ सकते हैं को भी एक कारण बता रहें है।

पर 1977 से कांग्रेस पार्टी के बैनर तले सक्रिय राजनीति की शुरुआत करने वाले डॉ अहमद ने ईन्यूज़रूम को साफ किया कि कोडरमा लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने का कोई इरादा नहीं है और सक्रिय राजनीति में बने रहेंगे।

Beyond ‘Temples of Modern India’: A Critical Look at Contemporary Religious Politics

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[dropcap]W[/dropcap]hen India became independent, Nehru’s ‘Tryst with Destiny’ speech set the tone for the future course that India planned to undertake. He pledged, “The service of India means the service of the millions who suffer. It means the ending of poverty and ignorance and disease and inequality of opportunity…The ambition of the greatest man of our generation has been to wipe every tear from every eye. That may be beyond us, but as long as there are tears and suffering, so long our work will not be over.” And in this direction, he defined the temples of Modern India in the speech while inaugurating Bhakra Nangal dam. A report in HT archive describes it thus; “with great feeling the Prime Minister described these sites as “temples and places of worship” where thousands of human beings were engaged in great constructive activity for the benefit of millions of their fellow beings.   

The ‘Temples of Modern India’ phrase was the underlying theme for conceptualizing the public sectors, educational institutions also promoting the scientific temper, health facilities, and academies for the promotion of culture and what have you. The nearly four to five decades’ journey with this undercurrent of ‘Modern Temples’ was to be turned upside down from the decades of the 1980s when on one side the response to Shah Bano’s fiasco of dealing with minorities opened the floodgates of divisive politics. The communal forces unleashed a massive propaganda war against the religious minorities. At the same time the affirmative action for the downtrodden, and the Mandal Commission implementation gave the fillip to temple politics which was already in the strategy books of Hindu nationalists.

In contrast to Nehru’s ‘temples of Modern India’, the search for ‘temples underneath the mosque’ brought to the fore the Babri Mosque dispute. The RSS progeny BJP took birth (1980) wearing the clothes of ‘Gandhian Socialism’ with moderate posing Atal Bihari Vajpayee at the helm. He was steeped in the RSS ideology. He wrote Hindu Tan Man-Hindu jeevan (Hindu soul and body-Hindu life) and masked his Hindu nationalist politics with élan. He yielded his place to Lal Krishna Advani, who came up with the slogan of ‘Mandir Wahin Banayenge’ (We will build the temple where Babri mosque is located).

RSS Combine was able to create a perception that Lord Ram was born precisely at the spot where the mosque is located. Ram Rath Yatra, got more muscles after the Mandal Commission implementation. This yatra left a series of trails of violence. In the wake of L.K. Advani’s rath yatra, nearly 1,800 people died in different parts of India around 1990. This yatra was aborted when Lalu Yadav arrested Advani.

The mosque was demolished on 6th December 1992, by the Kar Sevaks, some selected ones of which had well rehearsed the demolition. Advani, Joshi and Uma Bharati were sitting on the stage from where the slogan, Ek Dhakka Aur do, Babri Masjid Tod do (Give one more push, break the Babri Mosque) and “ye to keval Jhanki hai Kashi Mathura baki hai” (this is just the beginning, Kashi Mathra will follow). After demolition violence did follow in Mumbai, Bhopal, Surat and many other places. To cut a long story short, the legal system bent over backwards to give the verdict of the case based on ‘faith’ while naming those who led the demolition, but not giving them any punishment for the crimes committed by them. The judiciary in all its wisdom or lack of it; gave the whole Babri Mosque land to the “Hindu Side”.

In the glee of this ‘success’ by RSS combine; large funds were collected from home and abroad and a huge temple is ready to be inaugurated by the Prime Minister himself with all Hindu rituals. This will be a ceremony undertaken by the head of a ‘formally secular’ state. Babri Masjid was a regular election plank till it was demolished and after that building of the ‘grand Ram Temple’ was part of BJP’s election manifestos and electoral promises. The communal violence shot up regularly along with the ghettoisation of the Muslim community, the polarization and the rise of the electoral might of the BJP.

The present plight is well summed up by AM Singh, “Since coming to power, much of the BJP’s political discourse has exacerbated communal tensions between Hindus and Muslims. Their actions have followed suit, with the abrogation of Article 370 in the Indian Constitution and the passage of the Citizenship Amendment Act (CAA) in 2019… By redefining and remanufacturing Indian citizenship on the principles of Hindutva, the BJP government has broken the fate and legacy of India’s secularism enshrined in its constitution.” Now a ghettoized Muslim community has been pushed to the margins as second-class citizens.

Now as the temple is to be inaugurated all round efforts are on to mobilize the large section of Hindus around this. In America and other countries, a large number of NRIs are preparing for the occasion by organizing different programs. Here at home, all the progeny of RSS have been activated to mobilize the Hindus for the occasion, either by visiting the new temple or by visiting the local temples and performing rituals.

There are minor controversies about who has been invited and who is left out. Lal Krishna Advani, the Chief architect of the demolition movement and his close aide Murali Manohar Joshi were initially advised by the temple trust, not to visit the inauguration due to their old age and biting cold in Ajodhya, on second thought VHP, the overarching organization has invited them.

As the Babri demolition helped these sectarian politics to come to power, the inauguration of the temple seems to be yet another mechanism to consolidate the polarization and to reap electoral dividends. A large number of special trains and buses are being planned for the occasion. Temple politics has reached its acme.

It is time to recall Nehru’s concept of ‘temples of Modern India’ with the promotion of scientific temper! Currently, religiosity and faith blind faith are being heightened. As India started coming out of the colonial darkness it also ensured a direction where the ‘last person in the line’ was to be the primary focus. With the politics revolving around Ram Temple, to be followed by temples in Kashi and Mathura, the deprivations of the ‘last person’ and Nehru’s ‘Tryst with Destiny’ promises have been dumped along with holding him responsible for all the ills of the country!

এ আই এম পি এল বি সেক্রেটারি ফয়সাল রহমানি আমেরিকা, ইরান এবং পাকিস্তানের ইউনিফর্ম সিভিল কোড-এর জাল খবরের নিন্দা করেছেন

কলকাতা: বিশ্বব্যাপী একক নাগরিক আইন কোড সম্পর্কে, এমনকি মার্কিন যুক্তরাষ্ট্র, ইরান এবং পাকিস্তানেও ভুল তথ্য প্রচার হচ্ছে। তবে মার্কিন যুক্তরাষ্ট্রে ৫০টি, ইরানে ১১টি এবং পাকিস্তানে ৩টি ব্যক্তিগত আইন আছে। পাকিস্তানে, হিন্দুরা জন্য দুটি ব্যক্তিগত আইন রয়েছে। এটি কলকাতায় থাকা আইমারাত শারিয়ার সচিব এবং আল ইন্ডিয়া মুসলিম পার্সোনাল লব বোর্ড এবং আমির-এ-শারিয়ত (প্রধান), ইমারাত শারিয়া, বিহার-ঝারখণ্ড-ওড়িশা অঞ্চলের উপস্থিত ছিলেন, উওলি ফয়সাল রহমানির কাছে এটি দাবি করা হয়েছে। এনিউজরুম এক্সক্লুসিভ সাক্ষাতকারে, রহমানি, যে কেমন ভুল তথ্য প্রচার হয়েছে তার কথা বলেছেন।

ইনিউজরুম: মার্কিন যুক্তরাষ্ট্র, ইরান এবং পাকিস্তান সহ সারা বিশ্বে ইউসিসি কার্যকর হওয়ার পিছনে সত্য কী?

ফয়সাল রহমানি: যুক্তরাষ্ট্র, ইরান ও পাকিস্তানে ইউনিফর্ম সিভিল কোড চালু হওয়ার খবর ভুল।

এআইএমপিএলবি (AIMPLB) সদস্য বলেছেন, এটি এমেরিকা, ইরান এবং পাকিস্তানে যেভাবে টিভি স্টুডিওতে প্রচার হচ্ছে, তার মতো এগুলি কার্যকর হয়নি।

প্রতিটি দেশে UCC কার্যকর হওয়ার বিষয়ে ভুল তথ্য ছড়ানো হয়েছে। প্রথমত, আমি আপনাকে বিশ্বের সবচেয়ে শক্তিশালী দেশ – মার্কিন যুক্তরাষ্ট্র সম্পর্কে বলি। এটির 50টি রাজ্য রয়েছে এবং সেখানে একটি নয় কিন্তু ‘পঞ্চাশ’ ব্যক্তিগত আইন রয়েছে, প্রতিটি রাজ্যের নাগরিক আইন রয়েছে।

ইউনিফর্ম সিভিল কোড

আইওটাতে, একটি মেয়ে 14 বছর বয়সে বিয়ে করতে পারে, তবে ক্যালিফোর্নিয়ায়, একটি মেয়ে 18 বছর বয়সে বিয়ে করতে পারে। এখানে, কোনও মেয়ে যদি তার বাবা-মায়ের কাছ থেকে অনুমতি নেয় তবে সে 16 বছরের মধ্যে বিয়ে করতে পারে। টেক্সাসে, একজন মেয়ে 16 বছর বয়সে বিয়ে করতে পারে। এভাবে, মার্কিন যুক্তরাষ্ট্রে ব্যক্তিগত আইনে বিভিন্ন ব্যক্তিগত সমস্যা রয়েছে। উল্লেখযোগ্যভাবে, মার্কিন যুক্তরাষ্ট্রে বসবাসকারী বেশিরভাগ মানুষ এক ধর্মের, প্রধানত প্রোটেস্ট্যান্ট খ্রিস্টান। তারপরও দেশ ঐক্যবদ্ধ আছে, ভাঙেনি।

দ্বিতীয় উদাহরণটি আমরা নিতে পারি ইরান সম্পর্কে। ইরানকে আমাদের সামনে এমন একটি দেশ হিসাবে চিত্রিত করা হয়েছে যেখানে খারাপ লোকেরা বাস করে, সেদেশে প্রচুর ভুল অভ্যাস রয়েছে। কিন্তু ইরানেও আমরা গবেষণা করে দেখেছি যে সেখানে ‘এগারোটি’ ব্যক্তিগত আইন চালু আছে। খ্রিস্টান, ইহুদি, হানাফি, মালিকি এবং শিয়াদের জন্য বিভিন্ন ব্যক্তিগত আইন রয়েছে। আর কারো সাথে কারো কোন ঝামেলা নেই। সবাই তাদের আইনের চর্চা করছে ইউনিফর্ম সিভিল কোড।

একইভাবে, টেলিভিশন স্টুডিওতে পাকিস্তান সম্পর্কে প্রচার করা হয়েছিল যে সেখানে ইউসিসি কাজ করছে, যা সম্পূর্ণ ভুল তথ্য।

পাকিস্তানে তিনটি ব্যক্তিগত আইন রয়েছে। একটি মুসলমানদের জন্য এবং দুটি হিন্দুদের জন্য, সম্ভবত উত্তর ও দক্ষিণে বসবাসকারী হিন্দুদের জন্য।

এটি সত্য নয় যে বিশ্বের প্রতিটি দেশে একটি ইউসিসি রয়েছে এবং ভারতই একমাত্র দেশ যেখানে কোনও ইউসিসি নেই।

আমার এখানে উল্লেখ করা উচিত যে দুবাইয়ে একটি প্রক্রিয়া চলছে যে হিন্দুদের জন্য আলাদা ব্যক্তিগত আইন হবে। কীভাবে হিন্দু বিবাহ এবং স্থায়ী হিন্দুদের বিবাহবিচ্ছেদ বিভিন্ন ব্যক্তিগত আইন দ্বারা পরিচালিত হওয়া উচিত তা নিয়ে কথা বলা হচ্ছে। সৌদি আরবও এ নিয়ে ভাবছে।

তবে দুবাই সম্পর্কে পড়েছি, সৌদি আরবের কথা শুনেছি মাত্র।

ইনিউজরুম: ইউনিফর্ম সিভিল কোড-এর বাস্তবায়ন না করা কি ভারতের অখণ্ডতার জন্য হুমকি?

ফয়সাল রহমানি: ভারতের অখণ্ডতার জন্য কোনো হুমকি নেই, বরং এর বিপরীত।

অনুচ্ছেদ 44 বলে যে একটি সিভিল কোড থাকতে হবে। তবে প্রথমে আমাদের দেওয়ানী কার্যবিধির সংজ্ঞা জানা উচিত। এর অধীনে, আর্থিক আইন, সম্পত্তি আইন, কোম্পানি আইন, এবং চুক্তি আইন আছে। এরকম বেশ কিছু আইন এর আওতায় পড়ে। ফৌজদারি এবং প্রশাসনিক নয় যে আইন, দেওয়ানী আইনের অধীনে আসে।

দেওয়ানি আইনের একটি খুব ছোট অংশ হল ব্যক্তিগত আইন, যা বিবাহ, বিবাহবিচ্ছেদ এবং উত্তরাধিকার কিভাবে সংঘটিত হবে তা নির্ধারণ করে। অনুচ্ছেদ 44 বলে যে সমগ্র ভারতে একক সিভিল কোড থাকা উচিত।

এখন দেওয়ানি আইনের মধ্যে সম্পত্তি আইন আছে। সারা দেশে যদি একই রকম হয়, তাহলে নাগাল্যান্ডের মানুষের প্রতিক্রিয়া কেমন হবে, যদি রাজ্যের বাইরের লোকেরা সেখানে গিয়ে জমি কিনবে? আদিবাসীরা কেমন অনুভব করবে যদি তাদের সম্পত্তি অন্যরা বের করে আনে? এই মানুষগুলোর প্রতিক্রিয়া কেমন হবে এবং দেশের জন্য কতটা ভালো হবে? মানুষ এই প্রশ্ন জিজ্ঞাসা করা উচিত.

এছাড়াও, দেশে একক দেওয়ানি আইন কার্যকর হলে বর্ণপ্রথাও বিলুপ্ত হবে কারণ যে কেউ যে কাউকে বিয়ে করতে পারবে। যখন বর্ণপ্রথা অপ্রাসঙ্গিক হয়ে যায় তখন তফসিলি জাতি, তফসিলি উপজাতি এবং অন্যান্য অনগ্রসর জাতি এবং সেইসাথে যারা অর্থনৈতিক ভিত্তিতে রিজার্ভেশন পাচ্ছেন তাদের জন্য প্রদত্ত সংরক্ষণ আর বৈধ থাকবে না।

যদি একটি সুন্দর সকালে ঘোষণা করা হয় যে সবকিছু অভিন্ন হচ্ছে, তাহলে কি দেশের অখণ্ডতা অক্ষুণ্ন থাকবে নাকি অখণ্ডতা ক্ষতিগ্রস্ত হবে? যে কেউ এর উত্তর দিতে পারে।

ইউসিসি গোয়ানদের বিশেষ অধিকার কেড়ে নেবে এবং দেশের অন্যান্য অংশের মতো একই আইন প্রয়োগ করবে। যাইহোক, আমি বিশ্বাস করি যে কাশ্মীর থেকে 370 ধারা সরিয়ে নেওয়া হয়েছে, গোয়ার জন্য বিশেষ আইনও সরানো হবে।

এগারোটি রাজ্য- আসাম, মেঘালয়, মিজোরাম, গুজরাট, মহারাষ্ট্র এবং কর্ণাটকের মধ্যে বিশেষ মর্যাদা বাদ দেওয়া হবে। এসব যখন ঘটবে, তখন দেশ কি একীভূত হবে নাকি বিভক্ত হবে?

ইনিউজরুম: গুজরাটের বিশেষ মর্যাদা কী?

ফয়সাল রহমানি: গুজরাটে বেশ কিছু তফসিলি এলাকা রয়েছে। এছাড়াও, সেখানে এমন কিছু এলাকা রয়েছে যেখানে শুধুমাত্র হিন্দুরা জমি কিনতে পারে, মুসলিমরা নয়। এবং কিছু এলাকা আছে, যেখানে শুধুমাত্র মুসলমানরা জমি কিনতে পারে। গুজরাটের মুসলমানদের অবস্থা হল তাদের ঘেটোতে থাকতে হবে এবং তারা সেই নির্দিষ্ট এলাকা বা রাস্তার বাইরে জমি বা অ্যাপার্টমেন্ট কিনতে পারে না। তাই ইউসিসি কার্যকর হলে এই বিধানও শেষ হয়ে যাবে।

ইনিউজরুম: এটা কি শুধু মুসলমানদের বা দেশে বসবাসকারী প্রত্যেকের উপর প্রভাব ফেলবে?

ফয়সাল রহমানি: প্রতিটি ধর্ম ও রাষ্ট্র ক্ষতিগ্রস্ত হবে, শুধু মুসলমান নয়।

এটি ভারতে বসবাসকারী 52টি উপজাতীয় সম্প্রদায়কে প্রভাবিত করবে। উপজাতিদের জমি রক্ষার আইনের অবসান ঘটবে.. শেষ হবে ১১টি রাজ্যের বিশেষ মর্যাদা। উত্তর-পূর্ব রাজ্যগুলির বিশেষ মর্যাদা শেষ হবে।

মুসলমানদের ক্ষতি শুধুমাত্র ব্যক্তিগত আইন সংক্রান্ত। অন্যদের অর্থ, চাকরি, সম্পদ ও সম্পত্তির ক্ষতির সম্মুখীন হতে হয়। প্রভাব শুধুমাত্র মুসলমানদের জন্য নয়; এটি হিন্দু, তফসিলি জাতি, নাগা, উপজাতি এবং অন্যান্যদেরও প্রভাবিত করবে। অন্যদিকে শিখদের নিজস্ব আইন রয়েছে। উদাহরণস্বরূপ, তারা বিবাহ অনুষ্ঠানের সময় শুধুমাত্র তিনটি রাউন্ড (ফেরি) নেয় এবং ইউনিফর্ম সিভিল কোড অনুশীলনগুলি তাদের সম্প্রদায়ের মধ্যে ভালভাবে নথিভুক্ত।

اے آئی ایم پی ایل بی کے سیکرٹری فیصل رحمانی نے امریکہ، ایران اور پاکستان میں یکساں سول کوڈ لاگو ہونے کی جعلی خبروں کی مذمت کی

کولکتہ: ریاستہائے متحدہ امریکہ، ایران اور پاکستان سمیت پوری دنیا میں یکساں سول کوڈ کے کام کرنے کے بارے میں غلط معلومات گردش کر رہی ہیں۔ لیکن امریکہ کے پاس 50، ایران کے 11 اور پاکستان کے 3 پرسنل لاز ہیں۔ پاکستان میں ہندوؤں کے لیے دو پرسنل لاز ہیں۔ اس کا دعویٰ آل انڈیا مسلم پرسنل لا بورڈ کے سکریٹری اور امیر شریعت (چیف) امارت شرعیہ، بہار-جھارکھنڈ-اڈیشہ کے ولی فیصل رحمانی نے کیا ہے، جو کولکتہ میں تھے۔ ای نیوز روم کے ساتھ ایک خصوصی انٹرویو میں، رحمانی، جنہوں نے ہندوستان کے ساتھ ساتھ دیگر ممالک کے شہری قانون کا مطالعہ کیا ہے، نے یکساں سول کوڈ کے بارے میں بات کی، اور اس کے بارے میں کس طرح غلط معلومات پھیلائی گئی ہیں۔

  ای نیوز روم:یکساں سول کوڈ کے امریکہ، ایران اور پاکستان سمیت دنیا بھر میں فعال ہونے کے پیچھے کیا حقیقت ہے؟

فیصل رحمانی: یو سی سی کے امریکہ، ایران اور پاکستان میں فعال ہونے کی خبریں غلط ہیں۔

اے آئی ایم پی ایل بی کے رکن نے کہا کہ نہ ہی اسے امریکہ، ایران اور پاکستان میں نافذ کیا گیا ہے جیسا کہ ٹی وی اسٹوڈیوز میں پروپیگنڈہ کیا جا رہا ہے۔
ہر ملک میں یکساں سول کوڈ کے فعال ہونے کے بارے میں غلط معلومات پھیلائی گئی ہیں۔ پہلے میں آپ کو دنیا کے سب سے طاقتور ملک امریکہ کے بارے میں بتاتا ہوں۔ اس کی 50 ریاستیں ہیں اور وہاں ایک نہیں بلکہ ‘پچاس’ پرسنل لاز ہیں، ہر ریاست کا اپنا شہری قانون ہے۔

آئی او ٹا میں لڑکی کی شادی 14 سال کی عمر میں ہو سکتی ہے لیکن کیلیفورنیا میں لڑکی کی شادی 18 سال میں ہو سکتی ہے۔ یہاں اگر لڑکی کو والدین سے اجازت مل جائے تو وہ 16 سال میں شادی کر سکتی ہے۔ ٹیکساس میں، ایک لڑکی 16 سال کی ہونے پر شادی کر سکتی ہے۔ اس طرح، پورے امریکہ میں ذاتی قوانین میں کئی مختلف ذاتی مسائل ہیں۔ اہم بات یہ ہے کہ امریکہ میں رہنے والے زیادہ تر لوگ ایک ہی مذہب سے ہیں، زیادہ تر پروٹسٹنٹ عیسائی۔ پھر بھی ملک متحد ہے اور ٹوٹا نہیں۔

دوسری مثال ہم ایران کے بارے میں لے سکتے ہیں۔ ایران کو ہمارے سامنے ایک ایسے ملک کے طور پر پیش کیا گیا ہے جہاں برے لوگ رہتے ہیں، اس ملک میں بہت سارے غلط کام ہوتے ہیں۔ لیکن ایران میں بھی جب ہم نے تحقیق کی تو پتہ چلا کہ وہاں پر ‘گیارہ’ پرسنل لاز کام کر رہے ہیں۔ عیسائیوں، یہودیوں، حنفیوں، مالکیوں اور شیعوں کے لیے مختلف پرسنل لاز ہیں۔ اور کسی کو کسی سے کوئی مسئلہ نہیں۔ سب اپنے اپنے قوانین پر عمل کر رہے ہیں۔

اسی طرح ٹیلی ویژن اسٹوڈیوز میں پاکستان کے بارے میں یہ پروپیگنڈہ کیا گیا کہ وہاں یو سی سی کام کر رہی ہے جو کہ سراسر غلط معلومات ہے۔

پاکستان میں تین پرسنل لاز ہیں۔ ایک مسلمانوں کے لیے اور دو ہندوؤں کے لیے، شاید ان ہندوؤں کے لیے جو شمال اور جنوب میں رہ رہے ہیں۔

یہ حقیقت نہیں ہے کہ دنیا کے ہر ملک میں ایک یکساں سول کوڈ ہے اور ہندوستان واحد ملک ہے جہاں یکساں سول کوڈ نہیں ہے۔

مجھے یہاں یہ بتانا چاہیے کہ دبئی میں ایک عمل چل رہا ہے کہ ہندوؤں کے لیے علیحدہ پرسنل لاز ہوں گے۔ مستقل ہندوؤں کے لیے ہندو شادیوں اور طلاقوں کو مختلف پرسنل لاز کے تحت کیسے چلایا جانا چاہیے اس کے بارے میں بات کی جا رہی ہے۔ سعودی عرب بھی اس بارے میں سوچ رہا ہے۔

لیکن میں نے دبئی کے بارے میں پڑھا ہے، سعودی عرب کے بارے میں، صرف سنا ہے۔

ای نیوز روم: کیا یکساں سول کوڈ پر عمل درآمد نہ کرنا ہندوستان کی سالمیت کے لیے خطرہ ہے؟

فیصل رحمانی: بھارت کی سالمیت کو کوئی خطرہ نہیں بلکہ اس کا الٹ ہے۔

آرٹیکل 44 کہتا ہے کہ ایک سول کوڈ ہونا چاہیے۔ لیکن پہلے ہمیں سول کوڈ کی تعریف جاننی چاہیے۔ اس کے تحت، مالیاتی قوانین، جائیداد کے قوانین، کمپنی کے قوانین، اور معاہدہ کے قوانین ہیں۔ اس طرح کے کئی قوانین اس کے تحت آتے ہیں۔ جو بھی قانون، فوجداری اور انتظامی نہ ہو، دیوانی قوانین کے تحت آتا ہے۔

سول قانون کا ایک بہت چھوٹا حصہ ذاتی قوانین ہے، جو اس بات کی وضاحت کرتا ہے کہ شادیاں، طلاق اور وراثت کیسے ہوں گی۔ آرٹیکل 44 کہتا ہے کہ پورے ہندوستان میں ایک ہی سول کوڈ ہونا چاہیے۔

اب سول قوانین کے درمیان پراپرٹی کا قانون ہے۔ اگر پورے ملک میں ایسا ہی ہے تو ناگالینڈ کے لوگ کیا ردعمل ظاہر کریں گے، اگر ریاست سے باہر کے لوگ وہاں جائیں گے اور وہاں زمینیں خریدیں گے؟ قبائلیوں کو کیسا لگے گا اگر ان کی جائیدادیں دوسرے باہر لے آئیں؟ یہ لوگ کیا ردعمل ظاہر کریں گے اور ملک کے لیے کتنا اچھا ہو گا؟ لوگوں کو یہ سوالات کرنے چاہئیں۔

اس کے علاوہ اگر ملک میں واحد شہری قانون نافذ ہو جاتا ہے تو ذات پات کا نظام بھی ختم ہو جائے گا کیونکہ کوئی بھی کسی سے شادی کر سکتا ہے۔ جب ذات پات کا نظام غیر متعلق ہو جائے گا تو درج فہرست ذات، درج فہرست قبائل اور دیگر پسماندہ ذاتوں کے ساتھ ساتھ معاشی بنیادوں پر ریزرویشن حاصل کرنے والوں کو دیا جانے والا ریزرویشن اب درست نہیں رہے گا۔

اگر ایک صبح یہ اعلان ہو جائے کہ سب کچھ یکساں ہو رہا ہے تو کیا اس سے ملک کی سالمیت برقرار رہے گی یا اس کی سالمیت متاثر ہو گی؟ کوئی بھی اس کا جواب دے سکتا ہے۔

یکساں سول کوڈ گوانوں کے خصوصی حقوق چھین لے گا، اور ملک کے دیگر حصوں کی طرح انہی قوانین کو نافذ کرے گا۔ تاہم، میرا ماننا ہے کہ چونکہ کشمیر سے دفعہ 370 کو ہٹا دیا گیا ہے، اس لیے گوا کے خصوصی قوانین کو بھی ہٹا دیا جائے گا۔

گیارہ ریاستیں- آسام، میگھالیہ، میزورم، گجرات، مہاراشٹر، اور کرناٹک سمیت دیگر جن کو خصوصی درجہ حاصل ہے، ہٹا دیا جائے گا۔ جب یہ چیزیں ہو جائیں گی تو ملک ض

ای نیوز روم: گجرات کو کیا خصوصی حیثیت حاصل ہے؟

فیصل رحمانی: گجرات میں کئی طے شدہ علاقے ہیں۔ اس کے علاوہ، وہاں ایسے علاقے ہیں جہاں صرف ہندو ہی زمینیں خرید سکتے ہیں، مسلمان نہیں۔ اور کچھ علاقے ایسے ہیں، جہاں صرف مسلمان ہی زمین خرید سکتے ہیں۔ گجرات میں مسلمانوں کی حالت یہ ہے کہ انہیں یہودی بستیوں میں رہنا پڑتا ہے اور وہ اس مخصوص علاقے یا سڑک سے آگے زمین یا اپارٹمنٹ نہیں خرید سکتے۔ لہٰذا جب یو سی سی لاگو ہو جائے گا تو یہ شق بھی ختم ہو جائے گی۔

ای نیوز روم: کیا اس کا اثر صرف مسلمانوں پر پڑے گا یا ملک میں رہنے والے ہر فرد پر؟

فیصل رحمانی: ہر مذہب اور ریاست متاثر ہوگی، صرف مسلمان نہیں۔

اس سے ہندوستان میں رہنے والی تمام 52 قبائلی برادریاں متاثر ہوں گی۔ قبائلیوں کی زمینوں کے تحفظ کے قوانین ختم ہو جائیں گے.. 11 ریاستوں کو خصوصی حیثیت ختم ہو جائے گی. شمال مشرقی ریاستوں کی خصوصی حیثیت ختم ہو جائے گی۔

مسلمانوں کا نقصان صرف پرسنل لاز سے ہے۔ دوسروں کو پیسے، نوکریوں، اثاثوں اور جائیداد کے نقصان کا سامنا کرنا پڑتا ہے۔ اس کا اثر صرف مسلمانوں پر نہیں ہے۔ یہ ہندوؤں، درج فہرست ذاتوں، ناگاوں، قبائلیوں اور دیگر کو بھی متاثر کرے گا۔ دوسری طرف سکھوں کے اپنے قوانین ہیں۔ مثال کے طور پر، وہ شادی کی تقریب کے دوران صرف تین چکر لگاتے ہیں، اور یہ رسمیں ان کی کمیونٹی میں اچھی طرح سے دستاویزی ہیں۔

क्या EVM से वैयक्तिकता और वोटर की गोपनीयता के अधिकार का हनन होता है

[dropcap]ई[/dropcap]वीएम (EVM) लगभग अपने आरम्भ से ही विवादों के घेरे में रही है. इसको लेकर भिन्न-भिन्न पार्टियां और कार्यकर्ता जिनमें जन सरोकार वाले कार्यकर्ता से लेकर सॉफ्टवेयर प्रोफेशनल तक शामिल रहे हैं. जो बार-बार कहते रहे हैं कि ईवीएम से चुनाव करवाना नुकसानदायक है क्योंकि इससे मतदान के नतीजे प्रभावित किये जा सकते हैं, मशीन में छेड़छाड़ की जा सकती है.

वोटों को रिमोट कंट्रोल या किसी अन्य विधि से बदला जा सकता है और चुनाव के रिजल्ट को मनचाहा लाया जा सकता है. ईवीएम के विरोध में हैदराबाद के सॉफ्टवेयर इंजीनियर वी नरहरि ने गम्भीर रिसर्च भी किया है और अपने एक्स्पेरिमेंट के माध्यम से साबित भी किया है कि ईवीएम में कितने आसानी से छेडछाड की जा सकती है.

अभी तीन राज्यों के विधानसभाचुनाव ने एक बार फिर ईवीएम पर शक को मज़बूत किया है. कुछ प्रभावित पार्टियों ने एक बार फिर ईवीएम के खिलाफ फिर आवाज़ उठाई है. एक बार फिर दिग्विजय सिंह और कुछ नेता ईवीएम के खिलाफ मुखर हुए हैं. और सोशल मीडिया पर भी ईवीएम के खिलाफ एक गुस्सा दिखने लगा है.

लेकिन आज की हमारी चर्चा का विषय है यह नहीं बल्कि हम इस बात पर चर्चा करेंगे कि बिना टेम्परिंग की ईवीएम भी कितनी घातक है. आज हम जिस मुद्दे पर बात करने जा रहे हैं वह ईवीएम के टेक्निकल साईड पर न होते हुए एक अन्य पहलू जो कि उतना ही गम्भीर है जितना कि ईवीएम टेम्परिंग यानी मशीन से छेड्छाड कर उससे मनचाहा रिज़ल्ट निकलवाना. ईवीएम का यह अनदेखा घातक पक्ष क्या है? हम यहाँ ईवीएम की तकनीक वाले प्रश्न पर बात नहीं करेंगे क्योंकि तकनीक विशेषज्ञ और वैज्ञानिक इस पर लगातार अपनी बात रख रहे हैं. हमारा सवाल यहाँ पर वोटर की गोपनीयता का है जो लोकतंत्र मे एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है क्योंकि चुनाव से पहले वोटर किसी भी पार्टी को वोट दे सकता है लेकिन एक बार जब सरकार बनती है तो वह सबकी होती है. कोई भी सरकार या नेता वोटर को इसलिए प्रताड़ित या हरास नहीं कर सकता क्योंकि उसने उन्हे वोट नहीं दिया. डॉ रत्नेश कातुलकर ने इस प्रश्न को बेहद संजीदगी से उठाया है क्योंकि दलित आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के साथ उनके वोटिंग पैटर्न को लेकर अक्सर नेता धमकाने वाली बात कहते हैं.

इस विषय पर विस्तार से जानने और समस्या को गहराई से समझने के लिये आज हम डॉ रत्नेश से बातचीत करेंगे. रत्नेश एक अम्बेडकरवादी चिंतक हैं और पिछले दस साल से अधिक समय से इस बात को उठाते रहे हैं और समाज के सरोकारों से सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं. अभी हाल भी में इनकी एक चर्चित किताब ‘Outcasts on the Margins: Exclusion and Discrimination of Scavenging Communities in Education’ भी आई है.

विद्याभूषण रावत: रत्नेश भाई सबसे पहले हम जानना चाहते हैं कि आखिर ईवीएम टेम्परिंग के अलावा इस मशीन में क्या दोष है?

रत्नेश: ईवीएम पर टेम्पर होने का आरोप एक लम्बे समय से लग रहा है, और हम जानते ही हैं कि जिसके चलते अमेरिका और जापान जैसे विकसित देश इस पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा चुके हैं. लेकिन जैसा आपने कहा आज की हमारी चर्चा इस विषय पर नहीं है बल्कि इसके इतने ही घातक एक अन्य पहलू पर हैं.

ईवीएम का एक बडा दोष जो उसमें अंतर्निहित यानी इन्हेरेंट है वह यह है कि यह मशीन मतदाता की वोटिंग को गुप्त नहीं रहने देती. ईवीएम सीधे-सीधे गुप्त मतदान व्यवस्था की विरोधी है.

अब आप कहेंगे कैसे? तो बता दे कि हम यह नहीं कह रहे कि इस मशीन में कोई कैमरा लगा होता है जो हरेक वोटर की फोटो खींचता रहता है. या यह भी नहीं कि यह वोट की बटन दबाते से फिंगर प्रिंट केच कर लेता. या कोई अन्य तकनीक से वोटर की पहचान कर लेता. बिल्कुल नहीं.

क्या ईवीएम से वैयक्तिकता टेम्परिंग छेड्छाड रत्नेश कातुलकर

इस मशीन में ऐसी किसी तकनीक होने का दावा हम नहीं कर रहे हैं. लेकिन फिर भी कैसे ये एक मतदाता की पहचान उजागर कर देती है इसे समझने के लिये हमें अपनी वोटिंग़ व्यवस्था को समझना होगा. चाहे वह लोकसभा का चुनाव हो या विधानसभा का या कोई और चुनाव. मतदान वोटिंग के लिये एक लोकसभा या विधानसभा… के लिये केवल एक  बूथ तो नहीं होता. बल्कि वोटरों की सुविधा के लिये उनके घर के आसपास होते हैं. यानि एक विधान सभा या लोक सभा के लिये अनेक वोटिंग बूथ जो कि कुछ कालोनी और बस्तियों के क्लस्टर में होते हैं.

अब आपको यह भी समझना होगा कि हमारे देश की बसाहट आज भी सिर्फ जाति और धर्म पर ही केंद्रित है. अब देश की राजधानी दिल्ली को देखिये न इसकी बसाहट शुद्ध रूप से जाति केंद्रित है. यहाँ 207 बस्तियां जाट बहुल है। जिनमें शाहपुर जाट, अधचिनी, महरौली प्रमुख हैं. 70 बस्तियां गुर्जरों की है। वाल्मीकि, सैनी, चमार जाति के अपने-अपने इलाके हैं। बात सिर्फ दिल्ली की नहीं बल्कि हर शहरों में तमाम सवर्ण और कथित उच्च जाति की पौश कालोनी के साथ-साथ दलितों के भीम नगर, अम्बेडकर नगर, वाल्मीकि नगर सामान्य रूप से बसे होते हैं. मुस्लिमों की बसाहट तो हिंदुओं से अलग होती ही है। जैसे भोपाल का नया शहर जहाँ हिंदू बहुल हैं वहीं पुराना भोपाल मुसलमानों का इलाका है। कई शहरों में ईसाई, सिख, जैन जैसे धर्म अनुयायी और सिंधी, बंगाली, पंजाबी जैसे समुदाय अलग बस्तियों में रहते हैं. आदिवासी शहरों में ही नहीं बल्कि इनके गांव भी अलग होते हैं.

ऐसे में जब हर पोलिंग बूथ की ईवीएम गिनती के लिये एक एक कर खोली जाती है तो एक अदने से पोलिंग एजेंट के लिये यह जानना बेहद आसान हो जाता है कि किस जाति, सम्प्रदाय समूह के वोटर ने किस पार्टी को वोट दिया. इतना ही नहीं प्रत्येक समूह की महिलाओं ने किसे वोट दिया और पुरुषों ने किसे. क्योंकि हर बूथ पे महिला और पुरुष के लिये अलग अलग मशीन जो होती है. इसका कारण स्पष्ट है कि प्रत्येक ईवीएम की गिनती पोलिंग बूथ के आधार पर ही होती है. जिसे राजनीतिक पार्टी एजेंटों द्वारा आसानी से डिकोड कर लिया जाता है. राजनीतिक दलों के स्थानीय चुनाव एजेंट इतने चतुर होते हैं कि वे किसी विशेष बूथ पर वोटों की गिनती के आधार पर किसी भी समुदाय के मतदान पैटर्न का पता लगा लेते हैं. इनकी ज़मीनी समझ एसी रूम में बैठे विद्वानों से काफी अच्छी होती है. इस तरह ईवीएम से वोटो की गणना सीधे तौर पर गुप्त मतदान के हमारेसंवैधानिक प्रावधान को तोड़ देती है.

विद्याभूषण रावत: निश्चित ही आपने यह एक अनोखी बात उजागर की है. चलिए मान भी लिया कि ईवीएम से वोटर की पहचान नहीं छिप पाती लेकिन इससे लोकतंत्र को क्या नुकसान? इतनी सी बात पर इस पर प्रतिबंध लगाने की बात करना कहाँ तक उचित है?

रत्नेश: अगर आप ऐसा सोच रहे हैं तो भारी भूल कर रहे हैं. मतदाता की पहचान से एक नहीं बल्कि कई किस्म के खतरे हैं. इनमें दो प्रमुख खतरों की बात करें तो सबसे पहली बात यह कि किसी पार्टी विशेष को वोट नहीं देने पर एक बस्ती विशेष का जाति समूह उस पार्टी के गुंडों के सीधे निशाने पर आ जाता है. ऐसे समूह पर हमला जिसमें गंभीर मारपीट से लेकर जानलेवा हिंसा तक हो सकती है. लोकतंत्र के लिये ऐसी घटनाएं शर्मनाक है. लेकिन बात यहीं नहीं रुकती.  इस डर से कि वोट पोलिंग़ एजेंट को पता चल जाएगा कमज़ोर तबके के लोग जिनमें दलित, आदिवासी, मज़दूर, मुसलमान और महिलाएं होती है अपनी मर्जी से अपने पसंद के उम्मीदवार को वोट नहीं दे पाते हैं. इस तरह ईवीएम चुनावों को निष्पक्ष नहीं रहने देती. ये सिर्फ दबंग जाति और पार्टी के वोटों को प्रभावित करने का यंत्र बन गई है.

दूसरा कि जीता हुआ जनप्रतिनिधि जब यह जान चुका होता है कि अमूक समूह ने उसे वोट नहीं दिया है तो वह उस समूह के साथ सौतेला व्यवहार करने से नहीं चूकता। जबकि एक विधायक या सांसद अपने वोटरों का नहीं बल्कि अपनी पूरी कान्सटीट्युसी का प्रतिनिधि होता है.

विद्याभूषण रावत: मतदाता की गोपनीयता का सवाल बहुत महत्वपूर्ण है। इससे दलित आदिवासी और अल्पसंख्यक कैसे प्रभावित होते हैं. थोडा और विस्तार से बताएं?

रत्नेश: देखिये आप जानते ही हैं कि दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक शोषण और ज्यादती का शिकार होते रहे हैं. इन तबकों को डरा धमका कर और कभी कभी पैसे देकर भी ताकतवर पार्टियां अपने पक्ष में वोट करवाती रही हैं. अगर मतदान शेषन विधि के अनुसार गुप्त हो तो ये तबके बिना डर और लालच के अपना वोट कर पाएंगे. लेकिन इनके वोट को ईवीएम आसानी से डिकोड कर लेती है इसलिये ये अपने विवेक से वोट नहीं दे पा रहे हैं. अगर आप फैक्ट चाहे तो मैं गुजरात का उदाहरण दे  सकता हूँ जहाँ दंगों के बाद कैम्पों में रह रहे मुस्लिमों के एकमुश्त वोट बीजेपी को गये थे. ऐसा क्यों? क्या जिस पार्टी से वे पीड़ित थे उसे उन्होंने मर्जी से वोट दिया होगा! नहीं बिल्कुल नहीं बल्कि ईवीएम की वजह से उनका वोट आसानी से डिकोड होना तय था इसलिए उन्होंने मुसीबत से बचने के लिये ये वोट दिये. यही पैटर्न आप उत्तरप्रदेश और हरियाणा में देख सकते हैं, अल्पसंख्यक समुदाय हमले से बचने के लिये अपने विरोधी पार्टी को ही वोट देने पर मज़बूर होता रहा है.

आदिवासियों के लिये परेशानी यह है कि सत्ताधारी दल का विरोध करने पर उन्हें नक्सलवादी करार दिया जा सकता है. ऐसे में गुप्त मतदान का नहीं होना उन्हें अपने विरोधियों को वोट देने पर विवश करता है. दलितों का भी यही हाल है. लेकिन मामला यहीं नहीं रुकता. अगर ये तबके अपने वोट देने से भले भी मारपीट का शिकार न बने लेकिन जीता हुआ प्रत्याशी जब ईवीएम की कृपा से यह जान जाता है कि फलां समुदाय ने उसे वोट नहीं दिया तो वह अगले पांच साल तक इस समुदाय के साथ सौतेला व्यवहार करने से नहीं चुकेगा. मध्य प्रदेश के एक वार्ड में एक पार्षद ने खुले तौर पर एक बस्ती के दलितों को यह कहकर अपने घर से भगा दिया था कि जब उन्होने उसे वोट नहीं दिया तो अब अपने काम लेकर क्यों आये हैं? यह सब खुलेआम हो रहा है. लेकिन एसी रूम में बैठने वाले हमारे पत्रकार और बुद्धिजीवी इससे अब तक अनजान है. हर दलित, आदिवासी और मुस्लिम जो एक बस्ती विशेष में रहता है न सिर्फ इस सच को जानता है बल्कि वह इससे पीड़ित भी है. दु:ख की बात है कि वह अपनी इस पीड़ा को किसे बताए?

ईवीएम से वैयक्तिकता टेम्परिंग छेड्छाड डॉ रत्नेश कातुलकर

विद्याभूषण रावत: लेकिन यहाँ सवाल है कि क्या पुराने बैलेट पेपर (मतपत्र) से क्या एक मतदाता वोटर की पहचान छिपी रहती थी? उस समय भी तो पोलिंग बूथ वैसे ही होते थे जैसे कि आज फिर आप ईवीएम पर इसका दोष क्यों मढ रहे हैं? और यह शेषन विधि क्या है जिसका अपने ऊपर उल्लेख किया.

रत्नेश: इसमें कोई शक नहीं कि बैलेट पेपर की गिनती भी अगर सीधे बूथ आधार पर हो तो वोटरों की पहचान जाहिर होगी ही. दु:ख की बात है कि एक लम्बे समय तक मतपत्रों की गिनती भी बूथ आधार पर ही होती रही थी. लेकिन इससे मतदाता की पहचान के खतरे को भांपते हुए इस प्रणाली में क्रांतिकारी बदलाव तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने किया था. उन्होंने प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र के संपूर्ण बूथ से प्राप्त मतपत्रों को अलग अलग गिनने की प्रथा पर अंकुश लगाते हुए हर कांस्टीट्यूएंसी के सारे बूथों से प्राप्त बैलेट पेपर को एक ड्रम में मिलाना शुरू  करवाया.

उनकी इज़ाद की गई यह तकनीक में एसा ड्र्म डिज़ाईन किया गया था जिसमें एक और बीचो बीच एक संलग्न हैंडल लगा हुआ करता था. इस ड्र्म के भीतर समस्त पोलिंग बूथों के मतपत्रों को डाल दिया जाता था. फिर इसे बंद कर इसके हैंडल को कई बार घुमाया जाता था. नतीजतन दलित बस्ती, मुस्लिम बस्ती, पोश कालोनी के बेलट पेपर अपने-अपने बूथ की पहचान मिटा कर केवल एक कांस्टिट्युएंसी विशेष के मतपत्र बन जाते थे. अब चुनाव परिणाम आने पर लाख कोशिशों के बावज़ूद भी पार्टी के पोलिंग एजेन्ट और अन्य कार्यकर्ता इन्हें समुदाय के आधार पर डीकोड नहीं कर पाते थे। नतीजतन वोटरो पर कोई दबाव नहीं होता था और वे निश्चिंत होकर अपना वोट दिया करते थे। साथ ही चुने हुए प्रतिनिधि भी वोटिंग से अनजान रहने के कारण किसी समुदाय से भेदभाव नहीं किया करते थे.

किंतु ईवीएम की शुरुआत के साथ, हमारे चुनाव आयोग ने फिर बेशर्मी से वही बूथ-वार गिनती के पुराने मॉडल का पालन करना शुरू कर दिया जिससे मतदाताओं की पहचान आसानी से उजागर होने लग गई. इस प्रकार ईवीएम देश के संविधान के खिलाफ एक उपकरण साबित हुआ जो लोकतंत्र का सीधा विरोधी है। इसलिये बिना देरी किये हर कीमत पर ईवीएम पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाना बेहद ज़रूरी है.

विद्याभूषण रावत: क्या हमारे संविधान में गुप्त मतदान का प्रावधान है? खुद डॉ. आम्बेडकर के इस पर क्या विचार थे?

रत्नेश: भारत के संविधान निर्माता खुले मतदान की जमीनी हकीकत से भली-भांति परिचित थे; इसलिए, उन्होंने हमारे देश में गुप्त मतदान की अवधारणा पेश की थी. वे जानते थे कि यदि मतदान के दौरान मतदाताओं की पसंद को छिपाया नहीं जाएगा तो जबरन मतदान की संभावना हमेशा बनी रहेगी. दबंग समुदाय आसानी से कमजोर समुदायों को अपने दबाव में वोट डालने के लिए मजबूर कर सकता है. इसलिये इसके पक्ष में डॉ अम्बेडकर ने संविधान सभा में बहस के दौरान गुप्त मतदान की प्राचीन बौद्ध परंपरा का उल्लेख किया था और सभा में एक बहस के दौरान आर के सिधवा ने स्पष्ट शब्दों में कहा:

चुनाव में गुप्त मतपेटी की भी व्यवस्था की जानी चाहिए… यदि हम संविधान में यह प्रावधान नहीं करते हैं और इसे संसद पर छोड़ देते हैं, तो यह एक बड़ा जोखिम होगा.

अंतत: हमारी संसद ने सैद्धांतिक रूप से गुप्त मतदान प्रणाली को अपनाया। किंतु ईवीएम के उपयोग ने हमें इस महत्वपूर्ण अधिकार से वंचित कर दिया.

विद्याभूषण रावत: इस बातचीत से दो बातें तो एकदम साफ होती है पहली कि ईवीएम वाकई हमारे मतदान को गुप्त नहीं रहने देता. दूसरा कि गुप्त मतदान किसी भी लोकतंत्र के लिये क्यों ज़रूरी है. इन दोनो ही बातों में हल्का सा भी संदेह नहीं बचा है. अपनी इस बात को आपने कब से और किन किन मंचों पर उठाया है. और क्यों इतनी शानदार तकरीर मेनस्ट्रीम के मीडिया डिबेट में नहीं आई?

रत्नेश: देखिये मैं उन गिने-चुने लोगों में हूँ जिन्होने भारत में सबसे पहले ईवीएम को देखा और उसमें वोट डाले. क्योंकि भारत में इसका सबसे पहला उपयोग मध्य प्रदेश के चुनाव में हुआ था तब मैं भोपाल में था. इसके इंट्रोडक्शन के समय ही इसकी इतनी तारीफ कर दी गई थी कि कोई इसका विरोध नहीं कर पाया था . कि इससे कागज़ की बचत और समय की बचत होती है… लेकिन चुंकि इसके उपयोग के साथ ही शेषन माडल का अंत हो गया था. इसलिये मैं व्यक्तिगत रूप से खुश नहीं था. उन दिनों में कालेज में पढता था और कुछ खास लिखना शुरू नहीं किया था. तब वेबसाईट्स और फेसबुक आदि भी नहीं थे कि कोई आम इंसान अपनी बात लोगों तक पहुंचा सके. इसलिये मेरा यह विरोध अपने परिवार और कुछ खास दोस्तों को ही जता पाया. और बात मन ही में रह गई.

लेकिन 2013 में मैंने अपना यह तर्क ईपीड्व्लु और तहलका में छपने के लिए भेजा. यहां आप को बता दू कि इतने सालों बाद यह तर्क दोबारा मन में जीवित होने का कारण यह था कि उन दिनों सरकार ने एक नया ऑप्शन नोटा भी इंट्रोड्यूस किया. जिसका मतलब यह है कि वोटर को यदि कोई भी उम्मेदवार अपने वोट के लायक नहीं लग रहा. हालांकि यह बटन वोटरो का मज़ाक बनाने के अलावा कुछ नहीं है क्योंकि भले ही नोटा को सबसे अधिक वोट मिल जाए उसकी कोई अहमियत नहीं … इसके बाद मिले वोट वाला उम्मीदवार को ही जीता माना जाएगा.

खैर इससे मुझे यह फायदा हुआ कि अंग्रेज़ी के कुछ अखबारों ने छापा कि नोटा को नक्सल प्रभावित इलाके में मिले भारी वोटो से जाहिर होता है कि वहाँ के आदिवासी माओवाद के समर्थक हैं!

इस न्यूज़ ने मुझे झकझोर दिया कि ईवीएम कितनी आसानी से आदिवासियों के वोट को डिकोड करने में कामयाब हुई जो कि शेषन माडल की काउंटींग में असम्भव था. और फिर मुझे अपना वह पुराना तर्क याद आ गया और मैंने बिना समय गंवाए तुरंत ही एक छोटा सा आलेख लिख डाला कि ईवीएम लोकतंत्र के लिये कितनी घातक है.

मैंने तुरंत यह आलेख ईपीड्व्लु और तरूण तेजपाल की तहलका में भेज दिया. ये दोनों ही पत्रिकाएं नामी गिरामी थी. इसलिये मुझे बहुत उम्मीद नहीं थी.. फिर भी मुझे अपने तर्क पर भरोसा था. दूसरे ही दिन मुझे तहलका के आफिस से मेल आया कि हम इसे छाप रहे हैं आप अपना फोटो भी भेज दीजिए. मैं खुश हुआ और तत्काल अपना फोटो मेल कर दिया. लेकिन थोड़ी ही देर बाद उनका अगला मेल आया कि आपका यह आलेख तो ईपीड्व्लु में पहले ही छप चुका है इसलिये हम इसे नहीं छाप सकते. इस मेल के बाद मैंने तुरंत ईपीड्व्लु देखी तब वाकई खुशी हुई कि उन्होंने इसे वाकई छापा था. मुझे लगा था कि ईपीड्व्लु में छपने से यह मुद्दा गंभीर विमर्श में तब्दील हो जाएगा. इसे पढकर मुझसे कई लोगो ने सम्पर्क किया. बधाई दी. इसे अद्भुत बताया. लेकिन दुख की बात है कि इतने बड़े प्लेटफार्म पर छपने के बाद भी बुद्धिजीवी तबके में विमर्श नहीं बन पाया.

मैं थोड़ा दुखी हुआ. लेकिन हार नहीं मानी मैंने इसे और संशोधित करके राउंड टेबल इंडिया में छपवाया, फिर काउंटरकरेंट में और अन्य जगह भी… लोगों ने इसे सराहा… मैने उन दिनों इंडीयन सोशल इन्सटीट्यूट मे रिसर्चर था इसलिये मैंने लीगल न्यूज़ एंड व्यूज़ में भी छपवाया. चूंकि यह वकीलों के द्वारा सम्पादित होता है इसलिये सुप्रीम कोर्ट के वकीलों ने इसे पढकर मुझ्से गंभीर सवाल किए जिसका मैंने उन्हें सफलता से उत्तर भी दिया. मैंने उनसे अनुरोध भी किया कि इस बिल पर वे ईवीईम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में पीआईएल डाले. उन्होने हामी भी भरी लेकिन कोई कदम नहीं उठाया. कुल मिला कर इतना जायज़ मुद्दा अपना कोई असर नहीं छोड पाया और सबके द्वारा भुला दिया गया. मैं खुद भी समय के साथ इसे भूल गया या सच कहू तो मुझे भूलना पडा.

विद्याभूषण रावत: अब सवाल है कि यदि ऐसा है तो हमारे देश की पार्टियां इस मुद्दे पर क्यों खामोश है? क्यों मानवाधिकार कार्यकर्ता चुप हैं?

रत्नेश: जाहिर है कि वे सब लोकतंत्र की रक्षा का ढोंग कर रहे हैं वर्ना क्या कारण है कि मतदान के गुप्त नहीं रह पाने की इतनी घिनौनी साज़िश पर वे चुप क्यों है? उनकी नीयत पर सवाल उठाना जायज़ है. खासकर दलित, आदिवासी और सेक्युलर कही जाने वाली पार्टियों की चुप्पी वाकई खतरनाक है.

विद्याभूषण रावत: यह निश्चित ही बेहद गंभीर बात है? वाकई इससे समझ आता है कि न सिर्फ मुख्यधारा के बुद्धिजीवी बल्कि दलित, बहुजन, मूलनिवासी नेता और बुद्धिजीवी तक चुप्पी साधे हुए हैं? चलते-चलते… क्या आप भी मानते हैं कि ईवीएम से छेड़छाड़ होती है? इस पर आपके क्या विचार हैं?

रत्नेश: इस विषय पर मैं सिर्फ इतना ही कहूंगा कि विश्व के सबसे विकसित राष्ट्र ईवीएम पर विश्वास नहीं रखते. अमेरिका और जापान जैसे देश इसे गलत मानते हैं. दिग्विजय सिंह जैसे वरिष्ठ नेता और सैम पिट्रोदा और गौहर रज़ा जैसे वैज्ञानिक भी ईवीएम को टेम्पर प्रूफ नहीं मानते. वे कहते हैं कि इससे छेडछाड कर वोटो की अदला बदली की जा सकती है.

लेकिन वे ब्यूरोक्रेट और लोग जो ढंग से कंप्यूटर और मोबाईल तक भी चलाना नहीं जानते ईवीएम को सही मानते हैं. इससे बडा मज़ाक और कुछ नहीं हो सकता.

विद्याभूषण रावत: आज पूर्व चुनाव आयुक्त श्री एस वाई कुरैशी को एक कार्यक्रम मे सुना और उन्होंने कहा कि ईवीएम फूल प्रूफ. उनका कहना था कि आखिर कर्नाटक का इलेक्शन बीजेपी इतनी बुरी तरह से कैसे हार गई क्योंकि वहाँ तो प्रधानमंत्री ने बहुत कैंपेन किया है. अभी भी लोग ये बात कह रहे हैं कि तेलंगाना में कांग्रेस कैसे जीती.

रत्नेश: देखिये. मेरा फोकस इस बात पर नहीं है कि ईवीएम टेम्पर प्रूफ नहीं है, बल्कि मैं इस बात पर ही जोर देना चाह रहा हूँ कि ईवीएम अपने आप में लोकतंत्र के लिये घातक है क्योंकि इससे मतदाता की पहचान उजागर होती है. रही बात टेम्परिंग के आरोप की और उस पर पूर्व चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी की टिप्पणी की तो इसका तार्किक जवाब यह है कि अगर तेलंगाना में भी बीजेपी बहुमत क्यों नहीं पा सकी तो इसका जवाब साफ है कि कोई मूर्ख ठग ही ऐसी ऐसी ठगी करेगा कि वह उसकी किसी टुच्ची हरकत से पकड़ा जाए. अगर कर्नाटक और तेलंगाना आदि सहित सभी प्रदेशों में ईवीएम से गड़बड़ी की जाएगी तो साफ है कि फिर बेवकूफ से बेवकूफ व्यक्ति भी ईवीएम की असलियत को जान जाएंगे. वैसे हम यह क्यों भूलते हैं कि ईवीएम पर सबसे पहला इल्ज़ाम खुद बीजेपी ने ही लगाया था. उनके एक कार्यकर्ता ने एक किताब लिखी थी जिसका विमोचन लालकृष्ण आडवाणी जी ने किया था. ईवीएम की टेम्परिंग को लेकर यह कहना सही नहीं कि इसे सिर्फ बीजेपी ही करती है बल्कि इस पर यह संदेह है कि इसे कोई भी दल जो उपर तक पकड रखता हो इसके साथ ग़डबड कर सकता है. चुंकि मैं तकनीकी विशेषज्ञ नहीं हूँ इसलिए मैं इस मामले पर अपना निजी मत नहीं देते हुए वैज्ञानिक गौहर रज़ा को कोट करना चाहता हूं कि ईवीएम की टेम्परिंग कोई एक पार्टी नहीं बल्कि किसी और बाहरी ताकत के द्वारा की जा रही होगी. उनका कहना है पंजाब विधानसभा जहाँ आम आदमी पार्टी का कोई संगठन तक नहीं था. वहाँ उसे बहुमत मिल जाने पर वे सवाल उठाते हैं. उनके इस तर्क में दम है. इस विषय मैं उस ताकत के बारे में सोचता हूँ तो लगता है कि हाँ निश्चित ही कोई कॉर्पोरेट समूह या अंतरराष्ट्रीय ग्रुप इस टेक्निकल तरीके से भारत के लोकतंत्र को खोखला कर सकता है.

विद्याभूषण रावत: ईवीएम मे आपके प्रश्न क्या केवल मतदाता की गोपनीयता को लेकर ही है या आप भी ये कह रहे हैं कि ये हैक की जा सकती है. क्या आप इस बात से सहमति रखते हैं के यदि वी वी पेट पर्चियों की गिनती होनी चाहिए ताकि किसी प्रकार की शंका की कोई गुंजाइश ना रहे। इस संबंध में पूर्व चुनाव आयुक्त कुरैशी कह रहे हैं कि सवाल टेक्नॉलजी का नहीं लोगों की नियत का है और प्रशासन की निष्पक्षता का है और उसके लिए वी वी पेट पर्चियों की गणना होनी चाहिए.

रत्नेश: मैं कोई टेक्निकल एक्स्पर्ट नहीं कि दावे के साथ टेम्परिंग पर कुछ कह सकूं लेकिन मेरी ही तरह पूर्व चुनाव आयुक्त और वर्तमान भी टेक्निकल एक्स्पर्ट नहीं हैं अंतर इतना है कि वे दावा करते हैं कि ईवीएम टेम्पर प्रूफ हैं! यह वाकई हास्यास्पद है. इस विषय पर अधिकार पूर्वक कोई साफ़्ट वेयर इंजीनियर या हैकर ही बोल सकता है और वे बोल भी रहे हैं लेकिन उनकी बातों को कोई गम्भीरता से नहीं लेता जबकि तकनीक के मामले में अनपढ अधिकारियों के मत लोगों को ईश वचन लगते हैं!

असल सवाल न टेक्नालाजी का है न प्रशासन की निष्पक्षता का. मुद्दा यह है कि ईवीएम अपने आप में ही घातक है क्योंकि इससे मतदाता की पहचान उजागर होती है. वीवीपैट की गिनती से इस समस्या का कोई हल नहीं हो सकता. इसलिये ईवीएम पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना ही समस्या का एकमात्र हल है.

विद्याभूषण रावत: इसमे कोई संदेह नहीं कि ईवीएम पर लोगों में अब बहुत संदेह है लेकिन क्या ये बात सही नहीं है कि विपक्ष के चुनावों मे बुरे प्रदर्शन के पीछे उनकी अपनी अकर्मण्यता भी है और समाज में धर्म के नाम पर हुए ध्रुवीकरण ने इसमें और योगदान दिया है. हमारी पार्टी धार्मिक ध्रुवीकरण के उत्तर नहीं ढूंढ पाई है.

रत्नेश: आप बिल्कुल सच कह रहे हैं. ऐसा कुछ पार्टियों के मामले में साफ दिखता है. उनके नेताओं ने अपने आप को महलों में कैद कर लिया है और संगठन पर कोई ध्यान नहीं है. वे बिना मेहनत के फल खाना चाहती हैं. सच तो यह है कि बीजेपी के अलावा आज कोई भी ऐसा दल नहीं हैं जो बिना चुनाव के भी अपना प्रचार कार्य करता हो. लेकिन यहाँ हम उनकी इस अकर्मण्यता से ज्यादा पीड़ित इस बात से हैं कि चुनाव हारने के बाद वे कुछ दिनों तो ईवीएम को खूब गाली देती है लेकिन इसके खिलाफ चुनाव आयोग और संसद में अपना मुंह तक नहीं खोलते. इनकी इस हरकत से हो ऐसा लगता है कि शायद ये सभी पार्टियां ईवीएम की समर्थक हैं उनका विरोध सिर्फ दिखावटी है. आखिर हम कैसे भूल सकते हैं कि ईवीएम के बाद क्या कांग्रेस, आप, बीएसपी, सपा, आरजेडी, जेडीयू, डीएम के सभी को तो अपने अपने राज्यों में बहुमत मिला है. ऐसे में यह कहना कि ईवीएम सिर्फ बीजेपी की ही मददगार है सही नहीं होगा, इसने हर पार्टी को मौका दिया है. इसलिये हमें गौहर रज़ा का शक ज्यादा मज़बूत लगता है कि ईवीएम को बाहरी ताकत नियंत्रित कर रही है, जो शायद कार्पोरेट लाबी हो या कोई और. लेकिन हमारा आरोप तो इससे बढकर है कि ईवीएम से वोटों की पहचान उजागर होती है. इस विषय पर सब चुप हैं. यह एक रहस्य है.

यह वाकई एक बडी सच्चाई है कि अब तक ईवीएम का विरोध संसद और चुनाव आयोग के सामने ढंग से किसी भी पार्टी ने नहीं किया है नहीं किसी ने यह शर्त रखी कि वह ईवीएम वाले चुनाव का बहिष्कार करेंगी. उनका विरोध बहुत हल्का और दिखावटी रहा है.

विद्याभूषण रावत: आप राजनीतिक दलों से क्या उम्मीद करते हैं?

रत्नेश: इनसे हल्की सी भी उम्मीद रखना बेमानी है. जैसा मैंने कहा ये सभी कभी न कभी इससे फायदा ले चुके हैं इसलिये वे सच्चाई को जानते हुए भी चुप रहने के लिये मजबूर हैं. लेकिन इससे बड़ी जिम्मेदारी आम नागरिक की है उसे लोकतंत्र की रक्षा के लिये आगे आना होगा.

विद्याभूषण रावत: अम्बेडकरवादी बहुजन सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी इस विषय में क्या करें। ईवीएम एक हकीकत है.

रत्नेश: आप देख ही रहे हैं आज के अम्बेडकरी बहुजन सामाजिक कार्यकर्ता गडे मुर्दे उखाडने में ताकत लगा रहे हैं उनके लिये मुख्य मुद्दा आर्य और अनार्य संघर्ष का है. कोई बीएसपी की भक्ति में तल्लीन है और उसे लग रहा है कि बस अब बहनजी प्रधानमंत्री बनने वाली है. कोई पूना पैक्ट के पीछे पडा है. मैंने खुद कितने ही आम्बेडकरवादी वकीलों से सम्पर्क किया कि वे ईवीएम के इस दोष पर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करें लेकिन किसी ने भी इस बात को तवज्जो नहीं दी. मैंने तो फेसबुक पर मुखर रहने वाले बहुजनों को भी मैसेज किया लेकिन उनका कोई रिस्पांस नहीं आया. ऐसे में इनसे क्या उम्मीद की जाए. हाँ मेरी ओर से कमी यह रही कि मैंने ईवीएम की इस समस्या के विरोध पर मेरा आलेख अंग्रेज़ी में था, शायद इस वजह से व्यापक अम्बेडकरी बहुजन सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी इसे नहीं पढ पाए हो. लेकिन आपका यह इन्टर्व्यू इस कमी को पूरा करने में कामयाब होगा. मुझे ऐसी उम्मीद है.

विद्याभूषण रावत: सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग इस पर कोई विशेष कुछ करने वाले नहीं हैं. सरकार के पास भी अपने तर्क हैं. ऐसी स्थिति मे क्या किया जाना चाहिए ताकि लोगों के वोट की गोपनीयता का अधिकार और उसकी स्वायत्तता बनी रहे ताकि लोकतंत्र बचा रहे.

रत्नेश: उनके सारे तर्क इसी बात पर केंद्रित हैं कि ईवीएम टेम्पर प्रूफ है. उन्होने इस चैलेंज को स्वीकारा भी था कि आओ और इसे बिना छुए छेडछाड कर दिखाओ! लेकिन जैसा मैंने कहा कि ये सब काम हैकरों का है हमारे जैसे एक्टिविस्ट का नहीं. हमारा विरोध तो सिर्फ इसी बात को लेकर है कि इससे मतदाता की पहचान उजागर होती है. इस विषय पर अगर चाहे तो हम किसी से भी बहस के लिए तैयार हैं. कम से कम इस इंटरव्यू के बाद सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेते हुए ईवीएम पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की दिशा में काम करना चाहिये. लोकतंत्र की रक्षा का सबसे अहम दायित्व तो सुप्रीम कोर्ट का है या फिर नागरिकों का. शायद आम नागरिकों को ही सामने आना होगा. हमें उम्मीद रखनी चाहिये.