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Silence of the Falling Trees: Can Anyone Hear the Hasdeo Tribals?

[dropcap]W[/dropcap]e have the right on water, forest and land, do not cut the trees here for coal to generate electricity, it is not good for you too.” This is the cry of the tribals of save Hasdeo movement, but it seems as if the government has turned a deaf ear.

Despite increasing urbanization, India still has vast forest areas left. One of these is the forest of Surguja district of Chhattisgarh – Hasdeo. Hasdeo is also called the lung of Central India which can be seen from its ecological importance.

This forest area is spread over an area of ​​one lakh 70 thousand hectares on the banks of Hasdeo river. About 10 thousand tribals of Gond and other various tribes live in this area. The livelihood of these people is based on medicinal plants and other forest resources, but in the last few years Hasdeo forest has come into limelight. The reason is the ongoing public movement demanding large-scale felling of trees for coal mines and stopping this destruction.

This movement now seems to be taking a violent form. But, this is not a recent conflict. This struggle of the tribals is almost a decade old. It started around the year 2010 when a large number of forests started being cut at the government level.

The then state government had sent a proposal to the Center to allow felling of trees in the Hasdeo forest. The Center had also approved it, but then some social workers and tribals together knocked on the door of the ‘Union Ministry of Forest Environment and Climate’. Hence, felling of trees was stopped and the entire Hasdeo forest area was declared a ‘no go zone’.

Governments come and go and during this time every incoming government is opposed in the name of approving deforestation. On the other hand, the tradition of opposing the opposition also continues. But the work of those cutting forests does not stop.

At present, coal mining work is going on in two areas of this forest, ‘Parsa East’ and ‘Kanta Basan’ and this work is being supervised by Adani Group. It is being said that the coal coming out of this mine will be used for electricity generation in Rajasthan. Today people need electricity and if electricity is needed then it is necessary to extract coal from the mine. Some leaders say that they have no option.

It is said that more than 15,000 trees have been cut for this purpose and it is estimated that this number will increase to two lakh in the future.

This excavation will disrupt the life of local tribals in the forest. Besides, the lives of wild animals will also be in danger and their numbers will decrease.

There are 82 species of birds and about 170 types of plants in this forest. Some species of butterflies are on the verge of extinction. Hasdeo forest is famous for elephants and tigers. Due to cutting of trees, animal and bird species in the forest are also in danger.

In the year 2021, a 300 km walk was undertaken to save the forest. Even then the movement was ended by giving empty assurances by the government and immediately after that the cutting of trees started again.

hasdeo jungle women
Women in Hasdeo try to save trees like Chipko movement. Courtesy: X/@savehasdeo

People associated with this movement say that for mining in forest areas, it is necessary to take permission from the Gram Panchayat before mining. But, without taking permission from them, trees are being cut on the basis of fake documents.

At the place in the forest where trees are to be cut, a large number of police forces are deployed, turning it into a cantonment and the local protesters who took the initiative in the movement are arrested and kept in the police post until the that trees should not be cut.

Women are also not behind in this movement to save Hasdeo. The women here had launched a movement on the lines of ‘Chipko’ to save their forests, which was crushed by the government with the help of police force.

A recent incident has come to light where when a woman protested against cutting of trees around her house, the police threw her out of the house.

Although the government has announced employment for the local project affected tribals, the forests are the identity of the local people. If electricity is needed then the government could also implement solar power generation projects. Therefore the question being asked is what is the need to destroy the forest and endanger the local culture?

Before deforestation, 60 to 70 percent of the livelihood of the tribals there depended on the forest. There are not many educational facilities in this forest area. This is the reason that the level of education among the local people is low, hence the government guarantees employment, there this uneducated class does not get a chance. This means that due to the government action they will have to stay at the same place where they were living till now as owners. As a result their existence is in danger.

The question is not just against any one industrialist, any one party or government, but the question is about the nature of power, whenever power comes, it does its own thing.

“Our forest is our pride, our culture. We know each other. This is our means of survival.” The question is who will listen to the tribals, who say this?

 

It is a translation of the article published in Hindi.

क्या इन चुनावों में उत्तराखंड से चौकाने वाले नतीजे आ सकते हैं

[dropcap]उ[/dropcap]त्तराखंड में 19 अप्रैल को हो रहे चुनावों से चौंकाने वाले परिणाम आ सकते हैं। हालांकि ‘विशेषज्ञ’ भाजपा को 5 सीट दे रहे हैं लेकिन हकीकत यह है कि भाजपा के पास बताने के लिए कुछ है नहीं। अयोध्या में राम मंदिर के नाम पर उत्तराखंड तो क्या उत्तर प्रदेश में भी लोग वोट देने को तैयार नहीं है लेकिन ऐसा लगता है भाजपा के प्रशंसक उसे ही अपनी नैया का खेवनहार समझ रहे हैं। असल में उत्तराखंड में भाजपा अजेय है ये सोचना ही गलत है लेकिन ऐसी स्थिति कांग्रेस के थके हारे नेतृत्व के चलते बनी है जो समय पर जनमानस के प्रश्नों को पूरी शिद्दत के साथ उठाने मे असमर्थ रहा है। भाजपा मे नरेंद्र मोदी का उत्तराखंड से लगातार ‘रिश्ता’ बना रहा चाहे वो किसी भी प्रकार का हो लेकिन कांग्रेस नेतृत्व यहा कभी भी गंभीरता से नहीं आया। दिल्ली से ऐसे लोगों को उत्तराखंड पर थोपा गया जिन्हे वहा कि संवेदनशीलता और स्थानीय प्रश्नों की जानकारी भी नहीं है। भाजपा के पास संसाधन और सत्ता दोनों है लेकिन उनका अति विश्वास उन पर भारी पड़ सकता है। उत्तराखंड की पाँच संसदीय सीटे हैं लेकिन कोई भी ऐसी नहीं है जहा लड़ाई नहीं है। असल मे कांग्रेस के पास अभी भी नेतृत्व की कमी साफ दिखाई दे रही है। सत्ता का सुख भोग चुके नेता उत्तराखंड में कोई प्रेरणादायी नेतृत्व नहीं दे सके। हरीश रावत जरूर एक पहचान थे लेकिन उनका दौर अब जा चुका है और बेटे बेटी को राजनीति में ‘स्थापित’ करने के चक्कर में वह उनकी सेवा तक ही सीमित रह गए हैं।

उत्तराखंड की दो सीटों पर सबसे रोचक मुकाबला है। पौड़ी गढ़वाल सीट पर कांग्रेस ने राज्य मे पार्टी के पूर्व प्रमुख गणेश गोड़ियाल को उम्मीदवार बनाया है। गणेश गोड़ियाल जनता मे लोकप्रिय हैं और भारतीय जनता पार्टी के दिल्ली से थोपे गए उम्मीदवार पर भारी पड़ रहे हैं जिनके पास सत्ता बल, धन बल और दिल्ली के दरबारी पत्रकारों का खुला समर्थन भी है। इस संसदीय क्षेत्र मे राजपूत मतदाताओं को लुभाने के लिए राजनाथ सिंह को भी बुलाया गया जिन्होंने कहा कि ‘उत्तराखंड वासी’ केवल एक सांसद ही नहीं चुन रहे अपितु आगे खुद ही समझ लीजिए। मतलब ये कि अनिल बलूनी, मोदी दरबार के एक प्रमुख दरबारी हैं और इसलिए उनसे ये न पूछा जाए कि वह उत्तराखंड के लिए क्या करेंगे या उन्होंने क्या किया है। वैसे तो सवाल दूसरे व्यक्ति से भी होना चाहिए जो यहां से सांसद हैं कि आखिर उन्होंने किया क्या। यदि लोग केवल पार्टी या मोदी को वोट करे तो पूर्व सांसद को हटाया क्यों गया और उनकी असफलताओं का हिसाब वर्तमान प्रत्याशी से क्यों नहीं? दरअसल, गणेश गोड़ियाल के साथ मे अभी भी कांग्रेस के तथाकथित बड़े नेता नहीं आ पाए हैं। हरीश रावत, अपने पुत्र मोह मे हरिद्वार मे ही फंस के रह गए हैं और प्रीतम सिंह कोई ऐसे नेता नहीं हैं जिनके नाम पर पहाड़ी क्षेत्र के लोगों पर कोई प्रभाव पड़े। खैर, गणेश गोड़ियाल अच्छी फाइट दे रहे हैं और यदि लोगों ने समझदारी से वोट दिया तो वह चुनाव जीत सकते हैं।

अल्मोड़ा पिथौरागढ़ सीट पर कांग्रेस के उम्मीदवार प्रदीप टमटा पहले भी यहा का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं और एक बार राज्य सभा के सदस्य भी रह चुके हैं। वैचारिक तोर पर प्रदीप एक मजबूत जातिविरोधी सांप्रदायिकता विरोधी सोच के हैं और हमेशा जन पक्षीय सरोकारों से जुड़े रहे हैं। भाजपा उम्मीदवार अजय टमटा के पास दिखाने के लिए मोदी जी की तस्वीर के और कुछ नहीं है। क्योंकि पिथौरागढ़ क्षेत्र सीमांत इलाका है और यहा अनुसूचित जाति जनजाति के वोटरों की संख्या अधिक है और उस संदर्भ मे भाजपा का ट्रैक रिकार्ड अच्छा नहीं रहा है। उत्तराखंड के अंदर अनुसूचित जाति जनजाति के लिए आने वाला बजट कभी भी पूरा खर्च नहीं होता। ये भी खबरे हैं कि उसका इस्तेमाल दूसरे कार्यों के लिए भी होता है। राज्य मे न ही भूमि सुधार हुए और न ही इन वर्ग के लोगों के साथ कोई विशेष रियायत हुए। उनके आरक्षण पर भी सवाल खड़े किये जाते हैं। अब उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों मे भाजपा के नेताओ द्वारा चार सौ पार की सच्चाई भी सामने आने लगी है। प्रधान मंत्री ने तो कह दिया कि यदि ‘बाबा साहब अंबेडकर भी आ जाए’ तो संविधान नहीं बदल सकते लेकिन हकीकत ये है कि भाजपा और हिन्दुत्व का एक बहुत बड़ा वर्ग इस संविधान को भारत की आत्मा का कभी मानता ही नहीं है और इसे बदलने की वकालत कर्ता है। इसलिए चार सौ पार को लेकर भाजपा अपने दरबारी और भक्त काडर को यह समझा रही है कि संविधान बदलने के लिए उसे चार सौ चाहिए। संविधान को बदलने की क्या जरूरत है जब सरकार अपनी मर्जी से परिवर्तन कर रही है।

उत्तराखंड लोकसभा चुनाव 2024 भाजपा कांग्रेस

खैर, इन चुनावों मे उत्तराखंड के पास अवसर है सवाल पूछने का। सबसे बड़ा सवाल यही है कि विकास के नाम पर उत्तराखंड के विनाश की कहानी किसने लिखी? किसने दिया उत्तराखंड की पवित्र नदियों के व्यापार का ठेका। रैनी गाँव के लोगों का क्या हुआ? जोशीमठ पर आए संकट के समदान के लिए क्या किया गया? सड़क और रेल्वे के नेटवर्क के नाम पर उत्तराखंड के जल जंगल जमीन को लूटने की छूट किसने दी। क्या यूनिफॉर्म सिवल कोड उत्तराखंड की मांग थी या ये इसलिए लाया गया ताकि भुकानूनों और मूल निवास के प्रश्नों से ध्यान भटकाया जा सके। तराई मे चकबंदी और सीलिंग के सवाल बहुत महत्वपूर्ण हैं लेकिन मजाल क्या कि उस पर चर्चा हो सके और हर एक सवाल को मुसलमानों से जोड़ कर ऐसा बना दिया गया मानो वे सभी उत्तराखंड मे आकर जमीनो को हड़प रहे हों। सरकार देख ले कि पिछले 20 वर्षों मे उत्तराखंड मे अवैध हॉटेलों और रिज़ॉर्ट आदि किन लोगों के हाथ मे हैं। इसका डाटा निकाल सबके सामने रखे और बताए कि इनमे से पहाड़ के लोगों के हाथ मे कितने हैं। सभी जानते हैं कि रामदेव के पास कितनी जमीन है और बिना सरकार की कृपया के वो ले नहीं सकता है। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी उत्तराखंड की सरकार और यहा के अधिकारियों के काम काज पर एक साफ टिप्पणी है।

 

उत्तराखंड में रोजगार के प्रश्न पर सरकार चुप बैठी है। पेपर लीक की घटनाओं पर रोक नहीं लग पाई। अग्निवीर योजना ने तो उत्तराखंड के हजारों युवाओं के सपनों पर पानी फेर दिया है जो सेना में भर्ती होकर देश सेवा का जज्बा रखते थे और अपने भविष्य का निर्माण भी करना चाहते थे लेकिन मजाल क्या कि भाजपा के नेता इन सवालों पर कुछ बोलते। राजनाथ सिंह ने बेशर्मी से कह दिया कि ये योजना तो जारी रहेगी। अपने बेटे के लिए और अपनी कुर्सी बचाने के लिए अपने ही प्रदेश के नौजवानों के साथ कितना धोखा ये नेता करते हैं और लोग इनके दर्शन के लिए उतावले रहते हैं। बार बार राम मंदिर के निर्माण का प्रश्न उत्तराखंड मे कोई मायने नहीं रखता। वो प्रदेश जो पौराणिक रूप से शिव का धाम रहा हो और हमारे सारे महत्वपूर्ण धर्मस्थल जहा पर हों वहाँ राम मंदिर लोगों को बहुत लुभा पाएगा ऐसा नहीं लगता। उत्तराखंड के लोग खान पान और रहन सहन के विषय में उन क्षेत्रों के बाबाओं से कुछ ज्ञान नहीं लेना चाहते जो उन्हे ये बताएंगे के अब तक तो वो सही भोजन नहीं कर रहे थे। उत्तराखंड के लोग शिव परंपरा के हैं जो उदार होते हैं और अपने स्वाभिमान के साथ कोई समझौता नहीं करते।

आज उत्तराखंड के लोग ये प्रश्न भी सरकार से पूछ रहे हैं कि बाबा केदार पर सोने के पत्तर चढ़ाने के नाम पर पीतल दान करने वाले कौन है? यदि ये मुद्दा किसी दूसरे समय होता तो भाजपा उस पर पूरे देश भर मे आंदोलन कर डालती और हिन्दुओ के देवी देवताओ के अपमान का प्रश्न बनाकर उनके वोटों का सौदा करती लेकिन आज उत्तराखंड मे केदारनाथ के मंदिर से सोना गायब होने की घटना या सोने के स्थान पर पीतल चढ़ा देने की पूरी घटना को मीडिया ने भुला दिया। भाजपा ने बेशर्मी से पूरी खबर दबा दी। जिस समय केदारधाम मे मंदिर मे सोने की कोटिंग या उसके पत्र चढ़ाने की बात हो रहे थी उस समय वहा के पुरोहितों ने उसका विरोध किया था। उनका कहना था कि ये इस ऐतिहासिक मंदिर की ऐतिहासिकता के साथ खिलवाड़ होगा लेकिन प्रदेश सरकार ने उस विरोध के बावजूद ऐसा होने दिया। अब इस बारे मे चुप्पी साध ली जब बाद मे यह पता चला कि जिसे सोना बोलकर प्रचारित किया गया वह असल मे पीतल है। जो हिन्दुओ की इतनी बड़ी आस्था के साथ खिलवाड़ करे उन पर कोई कार्यवाही नही होती। अगर इस विषय मे आ रही खबरें गलत हैं तो सरकार बताए कि असलियत क्या है? क्या ये सोना भी इलेक्टोरल बॉन्ड की तरह तो नहीं था?

उत्तराखंड की बेटी अंकिता भंडारी के साथ हुए अत्याचार के अपराधियों को भाजपा की सत्ता का प्रश्रय रहा है। पूरे पहाड़ के अंदर लोगों मे इस बात को लेकर इतना गुस्सा है कि मोदी की गारंटी बोलकर उसे गायब नहीं किया जा सकता। आखिर अंकिता भंडारी के हत्यारे कौन है और क्यों सरकार उन्हे बचा रही है। असल मे अंकिता भंडारी का प्रश्न अब पहाड़ बनाम मैदान के मतभेदों मे बदल चुका है। उत्तराखंड राज्य का गठन हिमालय की अस्मिता के सवाल से पैदा हुआ है लेकिन धीरे धीरे करके वो गायब होता जा रहा है। पहाड़ों मे रिज़ॉर्ट संस्कृति के मालिक बड़े पैसे वाले लोग हैं जो मुख्यतः मैदानी भागों से हैं। नदियों, पहाड़ों को काट काट कर बड़े बड़े होटल और रिज़ॉर्ट बनाए जा रहे हैं। पहाड़ का युवा पलायन कर रहा है और उसके लिए पलायन आयोग बना भी था लेकिन कुछ हुआ नहीं। आज भी पहाड़ मे 2000 से अधिक गाँव भूत गाँव कहे जाते हैं। उत्तराखंड मे पहाड़ी क्षेत्रों की आबादी लगातार कम हो रही है जबकि उसके मुकाबले मैदानी क्षेत्रों की आबादी हर वर्ष बड़ी रफ्तार से आगे बढ़ रही है जिसके चलते आने वाले समय मे जब भी परिसीमन होगा तो पहाड़ी क्षेत्रों का राज्य विधान सभा मे प्रतिनिधित्व कम होगा और मैदानी क्षेत्रों का बढ़ेगा। ये आने वाले समय मे व्यापक असंतोष का कारण बन सकता है। भाजपा सरकार की और से पहाड़ी लोगों को ऐसा कोई वादा नहीं है कि ऐसा नहीं होगा। अंकिता मामले मे भी उत्तराखंड के पहाड़ और मैदान की खाई दिखाई देती है। पहाड़ मे लोग ये मानते हैं कि मैदानी भागों के लोग वहा आकार अपने पैसे के दम पर बदतमीजी करते हैं और उत्तराखंड के पहाड़ों मे खुलेपन को इस नजर से देखते हैं मानो कोई इनहे अपना शोषण करने को आमंत्रित कर रहा हो। हिमालयी क्षेत्रों मे महिलाये और पुरुष साथ साथ काम करते हैं और यौनिक हिंसा और कानून व्यवस्था की स्थिति आम तौर पर मैदानी इलाकों की तुलना मे बहुत अच्छे होती है। इसलिए अंकिता भण्डारी पर हुए अत्याचार से हिमालय सहमा है क्योंकि इस प्रकार की घटनाए वहा पर नहीं होती हैं। भाजपा इस संदर्भ मे पहाड़ के लोगों को कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाई क्योंकि उनकी पार्टी के बड़े नेता के पुत्र इसमे आरोपित है और पार्टी उसे पूरी तरह से बचा रही है। इसलिए पहाड़ की इस चिंता पर पार्टी चुप है और उसने पहाड़ बनाम मैदान के इस प्रश्न से ध्यान भटकाने के लिए हिन्दू-मुस्लिम का कार्ड खेला जिसमे वह कुछ हद तक कामयाब हो गई फिर भी मूलनिवास का सवाल, अंकिता को न्याय, केदारनाथ का सोना चोरी, पहाड़ों का दोहन और अग्निवीर आदि प्रश्न पहाड़ मे अभी भी मुख्य बने हुए है और भाजपा के लिए परेशानी पैदा कर रहे हैं। जब उत्तराखंड राज्य बना था तो पूरे हिमालय मे एक बात पर सहमति थी कि गैरसैन यहा की राजधानी बनेगा। लेकिन अब विधायक, नेता, अधिकारी नहीं चाहते कि वे देहरादून छोड़कर वहाँ जाएँ। पहले विधान सभा का एक सत्र वहाँ होता था लेकिन वो भी सरकार ने नहीं होने दिया क्योंकि ‘वहाँ ठंड’ अधिक थी। हकीकत यह है कि बड़े नेता और अधिकारी नहीं चाहते कि वैसे ऐसी जगह पर रहे जहा जनता उनसे आसानी से संवाद करे। आज के मंत्री और विधायक केवल दूर से हैलिकोप्टर दिखाकर और जनता को हाथ दिखा कर दूर से नमस्कार कर भागना चाहते हैं।

उत्तराखंड लोकसभा चुनाव 2024 भाजपा कांग्रेस अंकिता भंडारी
साभार: एनडीटीवी

गैरसेन राजधानी बनने से राजधानी के विषय मे बहुत से मिथ टूट सकते थे। ये एक ऐसे राजधानी होता, यदि बन गई कि विधायक, मंत्री, राज्यपाल आपस मै बैठकर बातचीत कर सकते थे और उन्हे चौबीस घंटे बड़ी बड़ी सुरक्षा और तामझाम के बिना भी जनता से बात हो सकती थी लेकिन आज की सत्ता केवल पूंजीवादी ही नहीं है समांतवादी भी है जहा लाल बत्ती और बड़ी बड़ी सुरक्षा आपनी हैसियत दिखाती और इन बातों का  सामान्यीकरण हो गया है जो रॉड शो आदि मे दिखाई देता है जहा बड़े नेता ‘मसीहा’ के रूप मे प्रकट होते हैं और ‘असहाय’ जनता घंटों उनका इंतेजार करती है। शायद इसी मसीहाई राजनीति को हम ‘गैर सैन’ के कान्सेप्ट से खत्म कर सकते थे लेकिन सत्ता की चकाचौंध मे नेता नहीं चाहते कि जनता उनसे आसानी से मिल सके। असल मे मैदान और पहाड़ की खाई को आप इस प्रकार से भी देख सकते हैं कि अधिकांश ‘राष्ट्रीय’ नेता उत्तराखंड के मैदानी इलाकों मे ही अपनी सभाएं करके चले गए और ऊपर पहाड़ों मे जाने का समय नहीं निकाल पाए। और ये शायद इसलिए, कि बड़ी बड़ी रैलिया तो पहाड़ों मे मुश्किल है। आम सभाए हो सकती हैं और ‘बड़े नेता’ तो लाखों की भीड़ को संबोधित करने के आदि बन गए हैं इसलिए वे 5 सीटों के लिए इतनी मेहनत नहीं करना चाहते।

उत्तराखंड मे लोगों मे व्यापक असंतोष हैं लेकिन कांग्रेस पार्टी के पास कोई भी प्रेरणादाई नेतृत्व नहीं है। हरीश रावत अपनी बाजी हार चुके हैं और अब केवल अपने बेटे को स्थापित करने की लड़ाई लड़ रहे हैं। उन्हे प्रदेश मे चुनाव प्रचार करना चाहिए था लेकिन वो नहीं कर पा रहे। ये जरूर हैं कि कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशी गणेश गोड़ियाल और प्रदीप टमटा अपने क्षेत्रों मे अच्छी टक्कर दे रहे हैं और सीट निकालने की संभावना है। लेकिन उत्तराखंड की जिस सीट के नतीजे पूरे प्रदेश के लिए निर्णायक हो सकते हैं वह है टिहरी गढ़वाल की सीट जहा से भाजपा प्रत्याशी और यहाँ की महारानी माला राज लक्ष्मी शाह चुनाव मे है। हालांकि कांग्रेस ने यहा पर अपना एक प्रत्याशी दिया है लेकिन वो मुखबले मे नहीं दिखाई देते। टिहरी सीट इस समय देश भर मे चर्चा का विषय बन चुकी है क्योंकि युवा प्रत्याशी बॉबी पँवार ने भाजपा के लिए सरदर्द पैदा कर दिया है। 26 वर्षीय बॉबी पँवार एक निम्न मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि से आते हैं जिन्होंने अपने बचपन मे ही पिता को खो दिया था। उनकी माँ आंगनवाड़ी कार्यकर्ता है और पिछले कुछ वर्षों मे वह उत्तराखंड के युवाओ की आवाज बनके उभरे हैं। उन्होंने पेपर लीक के खिलाफ पूरे प्रदेश के युवाओ के साथ आंदोलन किया जिसके चलते उनपर कई फर्जी मुकदमे दर्ज किये गए। बॉबी पँवार उत्तराखंड मे चल रही बदलाव की आहट का प्रतीक हैं। उत्तराखंड को भाजपा अपना अजेय ग़ढ़ समझती थी लेकिन उत्तराखंड भाजपा को बड़ा झटका दे सकता है। बदलाव की इस हवा को कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व को समझना चाहिए था और बॉबी जैसे युवाओं को तुरंत समर्थन दे देना चाहिए था जिसके चलते उन्हे पूरे प्रदेश में युवाओं की गुड विल मिलती। टिहरी मे कांग्रेस कुछ कर नहीं पाएगी और इसलिए समय चलते वह अपना उम्मीदवार यदि बॉबी पँवार के पक्ष मे वापस ले ले तो न केवल भाजपा के लिये सीट निकालना मुश्किल होगा अपितु उत्तराखंड के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय भी लिख लिया जाएगा। अभी तक के प्रचार अभियान को देखकर तो ऐसा लगता है कि बॉबी पँवार का प्रकार टियारी की जनता कर रही है। पहले से उन्हे लड़ाई मे नहीं माना जा रहा था लेकिन पिछले कुछ दिनों मे उनके रोड शो और युवाओ का जोश ये दिखा रहा है कि यदि उनके समर्थक वोट करने के बूथों तक पहुँच गए तो टिहरी की राजशाही लोकशाही के आगे टिक नहीं पाएगी।

उत्तराखंड लोक सभा चुनाव 2024 भाजपा कांग्रेस
साभार: india.com

टिहरी का चुनाव इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह राजशाही के विरुद्ध लोगों की निर्णायक लड़ाई होगी। हमे समझना पड़ेगा कि ये वही राजशाही है जिसके विरुद्ध प्रजा परिषद का आंदोलन चला था और श्रीदेव सुमन जैसे लोगों की शहादत हुई। याद रहे कि टिहरी की राजशाही शुरुआत मे भारत राज्य मे मिलने को तैयार नहीं थी और जनता के विद्रोह के बाद ही उसे मजबूर होकर मिलना पड़ा और अंततः एक अगस्त 1949 को टिहरी राज्य भारत के गणतंत्र का हिस्सा बना और उत्तर प्रदेश राज्या का एक जिला।

टिहरी के राजा के सिपहसालारों की तानाशाही के विरुद्ध 30 मई 1930 को बड़कोट के पास यमुना तट पर तिलाड़ी नामक स्थान पर हजारों लोग् आजाद पंचायत करने हेतु एकत्र हुए थे लेकिन राजा के अधिकारियों ने लोगों की मांगों को सुनने के बजाए उन्हे चारों और से अपने सैनिकों से घिरवाकर उनपर गोला बारी की। तिलाड़ी को उत्तराखंड का जलियाँवाला भी कहा जाता है जिसमे आंकड़ों के मुताबिक 18 लोगों मारे गए लेकिन सैंकड़ों का कोई अता पता नहीं चला। दुर्भाग्यवश, आज भी तिलाड़ी को याद करने वाले लोग उस स्थल पर जाकर अपनी श्रीधजनली देते हैं लेकिन सरकार ने इतने महत्वपूर्ण स्थान को जनता से दूर रखने और उसे भुला देने के पूरे प्रयास किये। मैंने पिछले वर्ष अकतूबर मे तिलाड़ी का दौरा किया। ये मुझे वहीं जाकर पता चला कि तिलाड़ी केवल साल मे एक दिन के लिए ही जाना जाता है और बाकी समय वहा जाने का रास्ता भी नहीं है और लगभग डेढ़ किलोमीटर की यात्रा आपको पैदल करनी पड़ती है। यमुना नदी के तट पर बने इस स्मारक पर खचचर और घोड़े घूम रहे थे और बड़ी बड़ी घास उग आई थी। सवाल ये है कि आखिर इतने बड़े और महत्वपूर्ण स्थल की इतनी बड़ी उपेक्षा क्यों? विजय पाल रावत, एक स्थानीय सामाजिक और रजिटिक कार्यकर्ता है जो बताते हैं कि राज परिवार का कोई भी सदस्य आज तक इस स्थान पर नहीं आया है। दुर्भाग्यवश, वही राज परिवार स्वतंत्रता के बाद से यहां का प्रतिनिधित्व करता है। इससे बड़ी त्राशदी क्या होगी कि राजपरिवार या उनके राजनैतिक प्रतिनिधियों ने इन प्रश्नों पर अपना मुंह खोलना तो दूर, इस प्रकार की जघन्य घटना पर कोई दस्तावेज आदि भी मुहैया करवाने की कोशिश नहीं की है। जब हम अंग्रेजों से जलियावाला कांड या अन्य कांडों पर माफी मँगवा सकते हैं तो राज परिवार इन बातों पर अपना मुंह क्यों नहीं खोलता। क्यों उत्तराखंड की राजनैतिक और सामाजिक ऐलीट ने तिलाड़ी के सच को छुपा के रखा है। तिलाड़ी के असली गुनहगार कौन थे। क्या ये चुप्पी इसलिए क्योंकि इनमे जो असली खलनायक है उनके स्वजातीय लोग इन प्रश्नों पर अब चर्चा नहीं करना चाहते या चालाकी से बाते घुमा  देते हैं। इसलिए टिहरी मे बदलाव का समय आ गया है। आम जनता के एक व्यक्ति यदि इन चुनावों मे जीतता है तो यह असल में प्रजा परिषद की उस जीत के जैसी होगी जिसके दबाव के चलते राजा ने भारत में विलय का निर्णय लिया।

टिहरी से बॉबी पँवार की जीत इस हिमालयी प्रदेश मे एक नई राजनीति का सूत्रपात कर सकती हैं हालांकि अभी भी तीसरे दल के लिए प्रदेश मे जगह नहीं है और ये कई बार साबित हो चुका है। उत्तराखंड मे लोगों ने बहुत समझदारी से वोटिंग की है। 1980 मे तमाम तामझाम के बावजूद गढ़वाल सीट पर हेमवती नंदन बहुगुणा चुनाव जीते थे हालांकि उस चुनाव के बाद यहा पर ब्राह्मण ठाकुर के अंतरदवंद बहुत उभर गए थे लेकिन शायद पुनः धीरे धीरे कम हो रहे हैं। उत्तराखंड मे शिल्पकार समुदाय की आबादी भी अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत है इसलिए केवल ब्राह्मण ठाकुरों के सवाल ही यहा के सवाल नहीं है अपितु दलित पिछड़ो का प्रश्न भी अति महत्वपूर्ण है। एक बात अवश्य ध्यान रखनी चाहिए और वो ये कि ‘दिल्ली के कनेक्शन’ या दिल्ली मे मंत्री पद या दिल्ली का मीडिया, आदि से प्रभावित हुए बगैर लोग उसे चुने जो उनके प्रश्नों पर उनके साथ खड़ा है उत्तराखंड की पांचों सीटों पर भाजपा के लिए राह इतनी आसान नहीं होगी जितना दिल्ली के पोल सर्वे हमे बताने की कोशिश कर रहे हैं। उत्तराखंड के लोगों को चाहिए कि ध्यान भटकाने वाली खबरों और सर्वे पर न जाकर अपने भले भूरे की सोचकर और दसवर्षों का हिसाब मांगकर वोट करेंगे तो वे लाभ मे रहेंगे। ये चुनाव उत्तराखंड और देश के भविष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं इसलिए सभी लोग समझदारी से वोट कर ऐसे लोगों को चुने जो वी आई पी न हो और जनता के दुख दर्द को समझते हो और इसके लिए जरूरी है भ्रष्ट जातिवादी मीडिया के भ्रामक प्रचार से दूर रहकर बेखौफ वोट करें ताकि आप एक सही निर्णय ले सके जो आपके प्रदेश और लोकतंत्र को मजबूत कर सके।

জঙ্গিপুর হেফাজতে মৃত্যু: ঈদের তৃতীয় দিনে দাউদের মৃতদেহ উদ্ধার, পুলিশ নির্যাতনের অভিযোগ স্ত্রীর

 কলকাতা: ২৭ বছর বয়সী দাউদ সেখকে রমজানের ২৩ তারিখ থেকে বাড়ি ফেরেননি। হাউসনগরের বাসিন্দা দাউদ একজন দৈনিক মজুরি শ্রমিক হিসাবে কাজ করতেন, যিনি মাঝে মাঝে ট্রাক চালকদের সাহায্যকারী হিসাবে দ্বিগুণ হয়ে যান, তার পরিবার তার দীর্ঘ অনুপস্থিতিতে অভ্যস্ত ছিল। তারা খুব কমই জানত যে দাউদ বাংলায় আরেকটি হেফাজতে মৃত্যু এর শিকার হবেন।

হেফাজতে মৃত্যু

“তিনি মার্চ মাসে আমাদের সাথে ছিলেন। ঈদের এক সপ্তাহ আগে তিনি বলেন, তার কিছু কাজ আছে, যাওয়া দরকার। তিনি যখন কয়েক সপ্তাহ ধরে ফিরে আসেননি তখন আমরা চিন্তিত হইনি কারণ আমরা দাউদকে কাজের সন্ধানে আমাদের গ্রাম ছেড়ে চলে যেতে অভ্যস্ত, ”তার স্ত্রী সাবিনা ইয়াসমিন বর্ণনা করেছেন।

কান্নার মধ্যে, দুই সন্তানের মা ইয়াসমিন বলেন, “আমরা জানতাম না যে সে জঙ্গিপুর সাব-কারেকশনাল হোমে ছিল। 13 এপ্রিল যখন আমরা পুলিশের কাছ থেকে একটি তথ্য পেয়েছি যে আমার স্বামীকে শনাক্ত করার জন্য আমাদের জঙ্গিপুরে পৌঁছাতে হবে এবং ময়নাতদন্তের সময় উপস্থিত থাকতে হবে, কিছুক্ষণ আগে তাকে গ্রেপ্তার করা হয়েছিল।”

তার স্বামীকে কী অভিযোগে গ্রেপ্তার করা হয়েছে জানতে দাউদের বিধবা দাবি করেন যে তিনি তার স্বামীর বিরুদ্ধে আরোপিত অভিযোগ সম্পর্কে অবগত নন।

যাইহোক, দাউদকে কেন গ্রেপ্তার করা হয়েছে তা বোঝার জন্য ই-নিউজরুম ইন্ডিয়া সাব-ইন্সপেক্টর দীপক কে আর দাসের সাথে যোগাযোগ করলে তিনি বলেন, “সমসেরগঞ্জ থানার উপ-পরিদর্শক অভিজিৎ সরকার এই প্রশ্নের উত্তর দিতে আরও ভাল অবস্থানে থাকবেন। আমি যা বলতে পারি তা হল আমি ইউটিপি (UTP) এর ময়নাতদন্তের সময় উপস্থিত ছিলাম। ম্যাজিস্ট্রেট এই মামলায় বিচার বিভাগীয় তদন্ত শুরু করেছেন বলে আমি এর বেশি কিছু প্রকাশ করতে পারছি না।”

সাব-ইন্সপেক্টর অভিজিৎ সরকার ই-নিউজরুমকে বলেন, “দাউদকে একটি জাল ভারতীয় মুদ্রার নোটের মামলায় গ্রেপ্তার করা হয়েছিল। এর পরে তাকে জঙ্গিপুর আদালতে পাঠানো হয়েছিল এবং তাকে জঙ্গিপুর উপ-সংশোধনী বাড়িতে পাঠানো হয়েছিল। কেন তাকে গ্রেপ্তারের বিষয়ে পরিবারকে জানানো হয়নি এমন প্রশ্নে তিনি দাবি করেন যে দাউদ ফেব্রুয়ারি থেকে হেফাজতে ছিলেন এবং পরিবার বিষয়টি ভালভাবে অবগত ছিল।

যাইহোক, আবার যখন জিজ্ঞাসা করা হয়েছিল যে পরিবার তাকে ৪ এপ্রিল পর্যন্ত তাদের সাথে থাকার বিষয়ে দাবি করেছিল, তখন তিনি দ্রুত বলেছিলেন, “আমি অফিসে নেই, তাই তার গ্রেপ্তারের আসল দিন সম্পর্কে আমি আপনাকে বলতে পারি না।”

অ্যাসোসিয়েশন ফর প্রোটেকশন অফ সিভিল রাইটস (এপিসিআর)-এর রাজ্য সম্পাদক ইয়াসমিন এবং খুরশিদ আলম উভয়েরই বিশ্বাস করার কারণ রয়েছে যে পুলিশের তত্ত্বে ছিদ্র রয়েছে৷

দাউদকে নির্যাতন করে হত্যা করার সম্ভাবনার ইঙ্গিত দিয়ে আলম প্রশ্ন করেন, “১৩ এপ্রিল থেকে শুরু হওয়া ঘটনাটি হেফাজতে মৃত্যুর সাথে সম্পর্কিত। কেন জেল থেকে পুলিশের কাছে নোটিশে বলা হয়েছে যে দাউদকে উন্নত চিকিৎসার জন্য হাসপাতালে পাঠানো হয়েছে যখন সে জেলে আত্মহত্যা করেছে?

নিহতের প্রতিবেশী মোঃ ইউসুফ হোসেন, পেশায় একজন শিক্ষাবিদ, নিহতের পরিচয় জানার জন্য পরিবারের সাথে জঙ্গিপুরে গিয়েছিলেন। তিনি উল্লেখ করেন, “আমরা যখন মর্গে যাই, তখন দাউদের শরীরের নিচের অংশ গামছা দিয়ে ঢাকা ছিল এবং তার ধড়ে একটি টি-শার্ট ছিল। আমাদের বলা হয়েছিল যে তিনি জঙ্গিপুরের সংশোধনাগারে একটি গামছা দিয়ে আত্মহত্যা করেছেন।”

প্রতিবেশী থেমে থেমে ইশারা করল, “তবে তার ঘাড়ে দাগটি কোনো কাপড়ের কারণে হয়েছে বলে মনে হয় না। আমি মনে করি এটি একটি তার বা দড়ি দ্বারা সৃষ্ট হয়েছে. কিন্তু এমনকি যদি আমরা পুলিশ সংস্করণে যাই, যেটি প্রামাণিক বলে মনে হয় না, তবুও একজনকে অবাক হতে হবে যে, কীভাবে আন্ডারট্রায়াল তার জীবন নেওয়ার জন্য একটি সংশোধনাগারে গামছাকে ধরে ফেলল।”

মজার বিষয় হল, এফআইসিএন মামলার এফআইআর কপি (এফআইআর 110/24 তারিখ 24.02.2024) মূল কপিতে দাউদের নাম নেই এবং মামলার সাথে জড়িত একজন মোরসালিম সেখকে গ্রেপ্তার করা হয়েছিল। কিন্তু অন্য একটি মামলায় (এফআইআর 59/24 তারিখ 3.02.2024) দাউদের বিরুদ্ধে ডাকাতির অভিযোগ আনা হয়েছিল। 22.02.24 তারিখে তাকে জামিন দেওয়া হয়েছিল শুধুমাত্র এফআইসিএন (FICN) মামলায় নাম উল্লেখ করার জন্য।

“আমি বিশ্বাস করি যে তাকে এফআইসিএন মামলায় ফাঁসানো হয়েছিল এবং তাকে হেফাজতে নির্যাতন করা হয়েছিল যা তার শরীর সহ্য করতে পারেনি,” যোগ করেছেন ইউসুফ।

স্ত্রীর অভিযোগের ভিত্তিতে জাতীয় মানবাধিকার কমিশন {NHRC (5833/IN/2024)}-এ একটি ডায়েরি নথিভুক্ত করা হয়েছে।

বাংলায় প্রতি বছর বিপুল সংখ্যক হেফাজতে মৃত্যু এর (বিচারিক এবং সেইসাথে পুলিশ) খবর পাওয়া যায়। পশ্চিমবঙ্গ মানবাধিকার কমিশন, 2017 থেকে 2021 সালের মধ্যে 458টি ডেইরি নিবন্ধিত করেছে।

 

(ইনিউজরুমে এফআইআর এবং আদালতের আদেশ উভয়ের একটি অনুলিপি রয়েছে)

এটি ইংরেজিতে প্রকাশিত প্রতিবেদনের একটি অনুবাদ

Jangipur Custodial Death: Daud found dead on third day of Eid, wife alleges police torture

Kolkata: Twenty-seven-year-old Daud Sk had not returned home since day 23 of Ramadan. Given the fact that Daud, a resident of Housenagar, worked as a daily wage labourer, who at times doubled up as a helper for truck drivers, his family was used to his long absence. Little did they know that Daud would be a victim of another custodial death in Bengal.

“He was with us in March. A week before Eid, he said he had some work and needed to go. We didn’t get worried when he didn’t return for weeks as we are used to Daud leaving our village in search of work,” recounted his wife Sabina Yeasmin.

In between sobs, Yeasmin, a mother of two kids said, “We were unaware of him being at Jangipur Sub-Correctional Home. It was only when we received an intimation from the police on April 13 that we needed to reach Jangipur to identify my husband and to be present when the post-mortem was conducted, that he had been arrested sometime back.”

When asked on what charges her husband was arrested, Daud’s widow maintained that she was unaware of the charges levied on her husband.

However, when eNewsroom India contacted sub-inspector Deepak Kr Das to understand why Daud had been arrested, he said, “Sub-inspector Abhijit Sarkar of Samserganj police station will be in a better position to answer this question. All that I can say is that I was present during the UTP’s autopsy. I can’t reveal more as the magistrate has initiated a judicial inquiry in this case.”

Sub inspector Abhijit Sarkar told eNewsroom, “Daud had been arrested in a Fake Indian Currency note case. Following which he was sent to Jangipur court which sent him to the Jangipur sub-correctional home.” On the question of why the family hadn’t been informed about his arrest, he claimed that Daud had been in custody since February and that the family was well aware of it.

However, again when it was asked that the family had claimed about him being with them till April 4, he quickly said, “I am not in office so, I can’t tell you about his actual day of arrest.”

Both Yeasmin and Khurshid Alam, state secretary of the Association for Protection of Civil Rights (APCR) have reasons to believe that there are holes in the police theory.

Hinting at the possibility that Daud was tortured and killed, Alam questioned, “The event taking place from April 13 onwards deals with custodial death. Why does the notice from Jail to the Police state that Doud was sent to the hospital for better treatment when he had already committed suicide in jail?”

The victim’s neighbour Md Yusuf Hussain, an educator by profession, had accompanied the family to Jangipur for the identification of the deceased. He mentioned, “When we walked into the morgue, Daud’s lower portion of the body was covered with a gamcha and his torso had a t-shirt on. We were told that he hung himself by a gamcha at Jangipur’s correctional home.” 

The neighbour paused and pointed out, “However, the mark on his neck didn’t seem to have been caused by any clothes. I think it was caused by a wire or rope. But even if we go by the police version, which doesn’t seem to be authentic, one is left to wonder, how the undertrial got hold of gamcha in a correctional home to take his life.”

 Interestingly, the FIR copy of the FICN case (FIR 110/24 dated 24.02.2024) doesn’t have Daud’s name in the original copy and one Morsalim Sk had been arrested in connection with the case. But in another case (FIR 59/24 dated 3.02.2024) Daud had been accused of dacoity. He was granted bail on 22.02.24 only to be named in the FICN case. 

“I believe that he had been framed in the FICN case and was subjected to custodial torture which his body couldn’t bear,” added Yusuf.

A diary has been registered with the National Human Rights Commission {NHRC (5833/IN/2024)} on the wife’s complaint. 

 (eNewsroom has a copy of both the FIRs and court order)

माला रॉय न तो निर्वाचन क्षेत्र में ज्यादा नजर आती हैं और न ही संसद में मुखर हैं- सायरा

कोलकाता: दक्षिण कोलकाता के लिए सीपीआई-एम की पसंद सायरा शाह हलीम ने अपनी उम्मीदवारी पर ईन्यूज़रूम से विशेष रूप से बात की, यह चुनाव उनके लिए कैसे अलग है और मतदाताओं को दूसरों के मुकाबले सीपीएम उम्मीदवार को क्यों चुनना चाहिए। जब वह कालीघाट मंदिर से सटे इलाकों में चुनाव प्रचार के लिए जा रही थीं, तब हमारी उनसे बातचीत के कुछ अंश।

ईन्यूज़रूम: 2022 के उपचुनाव ने आपको वर्तमान लोकसभा चुनाव के लिए कैसे तैयार किया है?

सायरा शाह हलीम: 2022 का उपचुनाव एक दिलचस्प चुनाव था, यह देखते हुए कि मौजूदा विधायक सुब्रत मुखर्जी का निधन हो गया था। तो, चुनाव एक विशिष्ट क्षेत्र- बालीगंज के लिए हो रहा था जिसे शहर का दिल माना जाता है। और मैंने वास्तव में अच्छा प्रदर्शन किया क्योंकि यह मेरा पहला चुनावी था। मैंने भाजपा और कांग्रेस को ‘पराजित’ किया और जीत के बहुत करीब पहुंच गया थी। आरोप है कि कुछ बूथों पर धांधली हुई है, अगर ऐसा नहीं होता तो मुझे यकीन है कि मैं जीत गया होती।

ईन्यूज़रूम: तो पिछले चुनाव से आपने क्या सबक सीखा?

सायरा शाह हलीम: देखिए, अब यह बिल्कुल अलग तरह का चुनाव है। वह एक निर्वाचन क्षेत्र के लिए था और इस बार सात विधान सभा है। साथ ही यह इलाका ममता बनर्जी की प्रमुख सीट है, जहां से वह भी जीतती रही हैं। अब, हमारे पास माला रॉय हैं, जो इस क्षेत्र से वर्तमान सांसद हैं। यह एक प्रतिष्ठित सीट और साथ ही चुनौतीपूर्ण क्षेत्र है। लेकिन, मैं चुनौतियों का सामना करने के लिए पूरी तरह से तैयार हूं, यह देखते हुए कि कई मुद्दों पर ध्यान देने की जरूरत है जैसे कि तेजी से बढ़ते अवैध निर्माण, निर्वाचन क्षेत्र को परेशान करने वाली विभिन्न वेक्टर जनित बीमारियां, वायु प्रदूषण के कारण स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं और बेरोजगारी आदि कुछ प्रमुख मुद्दे हैं।

ईन्यूज़रूम: पाँच कारण बताएं कि लोग आपको वोट क्यों दे?

सायरा शाह हलीम: उन्हें एक शिक्षित, ईमानदार नेता को वोट देना चाहिए जो वंचितों, युवाओं, अल्पसंख्यकों के साथ खड़ा हो। मैं सभी प्लेटफार्मों पर वर्तमान फासीवादी शासन का बहुत मुखर आलोचक रही हूँ- चाहे वह टेलीविजन बहस हो, चाहे वह जमीन पर हो, चाहे वह सीएए-एनआरसी विरोध स्थल हो, मैं हर किसी के अधिकारों के बारे में बहुत मुखर रही हूँ।

“बाकी जो उम्मीदवार हैं, उन पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करना चाहती। लेकिन, देखा गया है कि जब भी कोई महत्वपूर्ण बिल पास कराना होता है तो वे वॉकआउट कर देते हैं। जब सीएए पारित किया जा रहा था तो टीएमसी सांसदों ने वॉकआउट किया। उनकी उपस्थिति बेहद कम रहीं है संसद में। वे सांसद बनने की बुनियादी शर्त भी पूरी नहीं कर रही हैं।”

इसलिए, यदि मेरे निर्वाचन क्षेत्र के लोग मुझे चुनने का निर्णय लेते हैं, तो मैं एक मुखर सांसद बनने जा रही हूँ और अपने निर्वाचन क्षेत्र के साथ खड़ा रहूँगी।

मुझे लगता है कि मैं आदर्श उम्मीदवार हूं क्योंकि मैं शिक्षित और ईमानदार हूँ और सबसे ऊपर, भ्रष्ट और फासीवादियों से मुकाबला करने की क्षमता रखती हूँ।

सीपीएम उम्मीदवार सायरा शाह हलीम कोलकाता दक्षिण लोकसभा चुनाव
सायरा शाह हलीम कालीघाट में अपने रोड शो के दौरान | ईन्यूज़रूम

ईन्यूज़रूम: आप ‘बहिरगाता’ शब्द को किस प्रकार अपनाने की योजना बना रहे हैं जिसका उपयोग आपके लिए किया जा सकता है?

सायरा शाह हलीम: मैं चार अलग-अलग भाषाओं – अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू और बंगाली में बोल और लिख सकती हूँ। मैं इस निर्वाचन क्षेत्र के युवाओं से जुड़ी हुई हूँ। जहाँ तक ​​जनआंदोलनों का सवाल है, मैं कई आंदोलनों से जुड़ी रही हूँ। इसलिए, मुझे लगता है कि मेरी उम्मीदवारी उन विभाजनकारी ताकतों को जवाब है जो ‘अंदरूनी’ और बाहरी की द्विआधारी बनाने की कोशिश कर रहे हैं। मैं कोलकाता की लड़की हूं. मेरा जन्म कोलकाता में हुआ था जब मेरे पिता एक युवा कप्तान के रूप में यहां तैनात थे। एक आर्मी मैन की बेटी होने के नाते मुझे भी देश के अलग-अलग हिस्सों में पलने-बढ़ने का सौभाग्य मिला है।

ईन्यूजरूम: बंगाल में इंडिया गठबंधन सबसे कमजोर है. आपकी टिप्पणियां..

सायरा शाह हलीम: कांग्रेस मेरा समर्थन कर रही है और विभिन्न वामपंथी दल भी। लेकिन मैं वास्तव में गठबंधन के प्रति सुश्री ममता बनर्जी की प्रतिबद्धता के बारे में नहीं जानती । उन्होंने शुरुआत में ही कहा कि वह हर सीट पर अपने उम्मीदवार उतारेंगी। लेकिन हां, कांग्रेस और वाम दलों के बीच सहमति बन गई है। कांग्रेस ने कोलकाता दक्षिण के लिए कोई उम्मीदवार नहीं उतारा है और वामपंथियों ने कोलकाता उत्तर में कोई उम्मीदवार नहीं उतारने का फैसला किया है।

ईन्यूज़रूम: क्या आपको लगता है कि इसका राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन पर असर पड़ेगा?

सायरा शाह हलीम: भारतीय स्तर पर, हमारे पास ज्यादा विकल्प नहीं हैं, हमें फासीवादी सांप्रदायिक ताकतों से लड़ना होगा जो देश को विभाजित करने पर तुले हुए हैं। अगर हमें उन्हें वापस अपनी जगह पर लाना है तो हमें गठबंधन बनाना चाहिए।

ईन्यूज़रूम: क्या आपको लगता है कि आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि कुछ मायनों में आपकी मदद करेगी?

सायरा शाह हलीम: मैं जो कुछ भी हूँ, उसी कारण से यहाँ हूँ, अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण नहीं।

ईन्यूज़रूम: आप इस निर्वाचन क्षेत्र के मतदाता हैं, आप अपने सांसद का मूल्यांकन कैसे करेंगे?

सायरा शाह हलीम: मुझे इसकी जानकारी नहीं है, आपको आम जनता से पूछना चाहिए। लेकिन आम संदेश यह है कि वह न तो निर्वाचन क्षेत्र में ज्यादा नजर आती हैं और न ही संसद में मुखर हैं।

ईन्यूजरूम: 2022 के विपरीत, जब आप एक दलबदलू नेता के खिलाफ खड़े थे, इस बार दोनों विरोधियों माला रॉय और देबाश्री चौधरी की छवि काफी अच्छी है। आप उनसे कैसे आगे रह पाएँगी?

सायरा शाह हलीम: पिछली बार मैंने भाजपा को कड़ी टक्कर दी थी। मैंने उन्हें तीसरे स्थान पर धकेल दिया। अगर हम विभाजनकारी और भ्रष्ट ताकतों को खत्म करना चाहते हैं तो बीजेपी और टीएमसी दोनों को हराना होगा। इससे लोगों के लिए वाम मोर्चे के उम्मीदवार का समर्थन करना और भी महत्वपूर्ण हो गया है।

ईन्यूज़रूम: आम मतदाताओं, विशेषकर युवाओं से जुड़ने की क्या योजना है?

सायरा शाह हलीम: अन्य पार्टियों के विपरीत, हमने अपना डोर-टू-डोर अभियान काफी पहले शुरू करने का विकल्प चुना है ताकि हम मतदाताओं के साथ व्यक्तिगत संबंध बना सकें। हम पैदल ही प्रचार कर रहे हैं।

हम युवा मतदाताओं तक पहुंचने के लिए एआई और लेटैस्ट टेक्नालजी का भी उपयोग कर रहे हैं।

 

ये लेख इंग्लिश में प्रकाशित खबर का अनुवाद है।

विलुप्त होने की कगार पर बहुत सारे पक्षी, मगर क्यों?

गोडावण पक्षी को लेकर सरकार और पर्यावरणविद् एक बार फिर आमने-सामने आ गए हैं। इस लुप्तप्राय पक्षी को आवास और विकास परियोजनाओं से भारी नुकसान हुआ है। गोडावण तो एक उदाहरण है, लेकिन भारत में ही नहीं बल्कि भारत के बाहर पूरी दुनिया में भी ऐसे कई पक्षी हैं, जो ऐसे ही खतरों का सामना कर रहे हैं। इनमें से कई पक्षी वन्यजीव संरक्षण के अंतर्गत सूचीबद्ध हैं और विलुप्त होने के कगार पर हैं।

पक्षियों की प्रजातियों में कितनी गिरावट?

हर साल बड़ी संख्या में पक्षियों की प्रजातियां घट रही हैं। न केवल भारत में बल्कि अन्य कई देशों में भी जलवायु परिवर्तन और आवास विनाश जैसे कई कारणों से यह संख्या घट रही है। एक हालिया रिपोर्ट में पक्षियों की चार प्रजातियों में 50 से 80 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। इसमें गोडावण और खनमोर  जैसे घास के मैदानी पक्षियों का एक बड़ा हिस्सा है। सारस पक्षी की स्थिति भी कुछ अलग नहीं है।

निवास स्थानों के नष्ट और उनके क्षरण होने के चलते कई पक्षियों का अस्तित्व खतरे में है तो अगस्त 2023 में जारी रिपोर्ट ‘स्टेट ऑफ इंडियन बर्ड्स 2023’ से भी यह स्पष्ट होता है। इस रिपोर्ट में लिटिल प्रेटिनकोले, लिटिल रिंग्ड प्लोवर और लिटिल टर्न जैसे पक्षी भी शामिल हैं।

सिंचाई परियोजना, रेत खनन, परिवहन, बढ़ते मानव अतिक्रमण, घरेलू खपत, कृषि और औद्योगिक स्रोतों से प्रदूषण के साथ ही नदी तटों के व्यापक क्षरण वजहों से पक्षियों का निवास स्थान नष्ट हो रहा है। यह बात हाल ही प्रकाशित इस रिपोर्ट में कही गई है। रिपोर्ट में आवास पर ऊर्जा और बुनियादी ढांचे के नकारात्मक प्रभाव पर भी प्रकाश डाला गया है, जबकि अर्ध-शुष्क और घास के मैदान गोडावण का निवास स्थान हैं। गौर करने वाली बात यह है कि विकास परियोजनाओं के लिए सरकारी रिपोर्टों में इसे गलती से बंजर भूमि के रूप में दर्ज किया गया है। कृषि और बुनियादी ढांचे के लिए घास के इन मैदानों को बड़े पैमाने पर साफ किया गया।

इसी कड़ी में पेंटेड स्टॉर्क, मैलार्ड, क्रेन, गिद्ध, चील जैसे बड़े शरीर वाले पक्षियों के साथ-साथ अन्य छोटी प्रजातियों के सामने अस्तित्व का खतरा अधिक है।

देखा जाए तो गोडावण पक्षी राजस्थान में बड़ी संख्या तक पाया जाता था। लेकिन, यहां पवन ऊर्जा और उच्च वोल्टेज बिजली लाइनों ने गोडावण पक्षियों के जीवन को संकट में ला दिया है। बताते चलें कि भारत दुनिया में पवन ऊर्जा का चौथा सबसे बड़ा उत्पादक है। लेकिन, ऊर्जा के बुनियादी ढांचे ने पक्षियों के आवासों को खतरे में डाल दिया है। इसी तरह तटीय आवास क्षरण, भूमि उपयोग परिवर्तन, आवासों के पास विकास गतिविधियां, नदी मार्गों को रोकना, वाणिज्यिक जलीय कृषि, अपरंपरागत नमक उत्पादन के अलावा अवैध शिकार भी पक्षियों की कई प्रजातियों की समाप्ति का कारण बनती जा रही हैं।

बाघ केंद्रित नीति का कितना असर?

जैसे ही भारत में वन पर्यटन बाघ-केंद्रित हो गया, केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने बाघ संरक्षण पर अधिक पैसा खर्च किया। बाघ की सुरक्षा और संरक्षण के लिए अन्य जानवरों की तरह उतनी तत्परता से कदम नहीं उठाए जाते। पक्षी तो इससे कोसों दूर हैं। बाघ वन्यजीव संरक्षण के तहत अनुसूची में शामिल एक जानवर है। हालांकि, अनुसूची में कई पक्षी भी शामिल हैं, लेकिन बाघों के महत्व के कारण इन पक्षियों की उपेक्षा की जा रही है जिससे ये लुप्तप्राय सूची में आते जा रहे हैं।

इस सूची में फिलीपीनी ईगल भी शामिल है। यह शिकार के सबसे बड़े और सबसे शक्तिशाली पक्षियों में से एक माना जाता है। वनों की कटाई और अवैध शिकार के कारण इसे गंभीर खतरों का सामना करना पड़ रहा है।

इसी तरह, कैलिफ़ोर्निया कोंडोर को अभी भी विषाक्तता और निवास स्थान के नुकसान के खतरों का सामना करना पड़ रहा है। वहीं, मध्य भारत के जंगलों में वन उल्लुओं को निवास स्थान के नुकसान का खतरा है। इसी तरह, जावन हॉक ईगल इंडोनेशिया में लुप्तप्राय है। वनों की कटाई के कारण इसका निवास स्थान खतरे में है। ये तो महज कुछ नाम ही हैं, मगर अफसोस कि इन्हीं की तरह विलुप्त होने की कगार पर पहुंचने वाले पक्षियों की सूची लंबी होती जा रही है।

 

छिंदवाड़ा में बीजेपी को राजनीतिक वर्चस्व की तलाश

भोपाल: वरिष्ठ कांग्रेस नेता कमल नाथ के गढ़ छिंदवाड़ा को जीतने के लिए भारतीय जनता पार्टी की क्या योजना है?

2019 में छिंदवाड़ा कांग्रेस का एकमात्र गढ़ था जबकि भाजपा ने मध्य प्रदेश की अन्य 28 लोकसभा सीटों पर कब्जा कर लिया। नागपुर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक (आरएसएस) मुख्यालय से बमुश्किल 102 किमी दूर स्थित, भाजपा 1997 में एक बार उपचुनाव को छोड़कर लोकसभा जीतने में असमर्थ रही है, जब पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा ने कमल नाथ को 37,680 वोटों से हराया था। नाथ 1998 में वापस आए। उन्होंने पटवा को 1.53 लाख से अधिक वोटों के अंतर से हराया। इसके अलावा, एक दशक या उससे अधिक समय से छिंदवाड़ा के पड़ोसी सभी छह लोकसभा क्षेत्र (मध्य प्रदेश में 4 बालाघाट, मंडला, होशंगाबाद, बैतूल और महाराष्ट्र में 2 नागपुर और रामटेक) भाजपा के साथ हैं या उस पार्टी के साथ हैं जिसका उसने गठबंधन किया है (यहां शिव सेना) अतीत में।

इसलिए, भाजपा के सामने किसी भी कीमत पर लोकसभा सीट हासिल करने के कई कारक हैं, जबकि कांग्रेस अपना आखिरी किला बरकरार रखना चाहती है। चार महीने पहले नवंबर में हुए विधानसभा चुनावों की घोषणा दिसंबर 2023 में होने के बाद भाजपा ने अपनी ताकत और भी अधिक झोंक दिया। भाजपा छिंदवाड़ा लोकसभा सीट के नतीजों पर विश्वास नहीं कर पा रही थी। पार्टी ने मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में 230 में से 163 सीटों पर भारी जीत हासिल की, लेकिन फिर भी छिंदवाड़ा लोकसभा सीट से एक भी विधानसभा सीट नहीं जीत सकी। छिंदवाड़ा लोकसभा सीट की सभी सात विधानसभा सीटों पर कांग्रेस के विधायक हैं। दरअसल, पंचायतों से लेकर नगर निगमों तक के मेयर, विधायक और सांसद सभी कांग्रेस से हैं।

विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के खराब प्रदर्शन और फरवरी 2024 में पिता विधायक कमल नाथ और बेटे सांसद नकुल नाथ के भगवा पार्टी में शामिल होने की अटकलों के अचानक समाप्त होने से परेशान होकर, भाजपा नाथों को कमजोर करने के अभियान पर लग रही है। पिछले दो महीनों में छिंदवाड़ा में सत्ताधारी पार्टी एक-एक कर अपने वफादार सिपहसालारों से नाता तोड़ती जा रही है. राज्य में कांग्रेस के आखिरी गढ़ छिंदवाड़ा को ध्वस्त करने के लिए भाजपा हर दिन नाथ के समर्थकों-पंचायतों से लेकर मेयर, पूर्व विधायकों, मौजूदा विधायकों और प्रवक्ताओं तक को हटा रही है। और कमल नाथ से नाता तोड़ने वाले नवीनतम व्यक्ति छिंदवाड़ा के पूर्व विधायक दीपक सक्सेना थे। 2018 में जब कमल नाथ सीएम बने तो सक्सेना ने अपनी विधानसभा सीट छोड़ दी थी ताकि वह विधायक बन सकें। यहां तक ​​कि कमल नाथ ने भी आखिरी समय में सक्सेना को भाजपा में जाने से रोकने की पूरी कोशिश की। वह सक्सेना के घर गए, वहां बैठे और अपने पुराने दोस्त से कई बातें कीं।

कहा जाता है कि कमल नाथ ने सक्सेना से पूछा था, क्या आप अपने बेटे (दीपक का बेटा कुछ दिन पहले ही बीजेपी में शामिल हुआ) के प्यार में धृतराष्ट्र बनेंगे? या आप वही सुदामा बने रहेंगे जो आप थे? करीब आधे घंटे की मुलाकात के बाद दोनों अलग हो गए और दोबारा कभी एक-दूसरे से न मिलने का वादा किया। सूत्रों का कहना है कि दीपक अपनी भावनाओं से इतना अभिभूत हो गए कि उन्होंने खुद को कई घंटों तक अपने कमरे तक ही सीमित रखा। शुक्रवार को, मध्य प्रदेश के मंत्री और छिंदवाड़ा से चार बार के कांग्रेस विधायक, सक्सेना ने कमल नाथ के साथ अपने लंबे रिश्ते को तोड़ दिया और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव ने भोपाल में सत्तारूढ़ दल में उनका स्वागत किया।

22 मार्च को कांग्रेस छोड़ने वाले सक्सेना ने कहा कि वह भाजपा में शामिल हो रहे हैं क्योंकि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के कार्यों से प्रभावित हैं।

कमल नाथ के छिंदवाड़ा में सबकुछ ठीक नहीं है

एक सप्ताह पहले अमरवाड़ा से तीन बार के कांग्रेस विधायक कमलेश शाह भाजपा में शामिल हुए थे। आरक्षित आदिवासी क्षेत्र छिंदवाड़ा लोकसभा क्षेत्र के सात विधानसभा क्षेत्रों में से एक है जहां कांग्रेस पार्टी ने 2019 के लोकसभा चुनावों में 22,256 वोटों की बढ़त ली है। इस बढ़त ने कांग्रेस पार्टी को बढ़त दिला दी. पिछले आम चुनाव में, नकुल नाथ ने छिंदवाड़ा में 37,536 वोटों से जीत हासिल की थी – इस बढ़त का लगभग 60% अमरवाड़ा से आया था, इसके बाद छिंदवाड़ा, सौसर और जुन्नारदेव विधानसभा क्षेत्र थे। भाजपा ने तीन विधानसभा क्षेत्रों – पांढुर्णा, परासिया और चौरई में बढ़त बना ली थी।

जब सक्सेना और शाह ने कमल नाथ से नाता तोड़ लिया, तो छिंदवाड़ा के मेयर विक्रम अहाके, जिन्हें नकुल नाथ की खोज कहा जाता है, भगवा खेमे में चले गए। यह नकुल के आग्रह पर ही था कि कांग्रेस ने 2022 में शहरी स्थानीय निकाय चुनावों में अहाके को टिकट दिया। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि जब भी नकुल अपने निर्वाचन क्षेत्र का दौरा करते थे, अहाके छाया की तरह उनके साथ होते थे।

युवा आदिवासी नेता को भोपाल में मुख्यमंत्री आवास पर मुख्यमंत्री मोहन यादव और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वीडी शर्मा ने भाजपा की प्राथमिक सदस्यता दिलाई।

मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री मोहन यादव के विकास कार्यों और ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे से प्रभावित होकर भाजपा में शामिल हुआ, अहाके ने अंत में कहा कि मुझे खुशी है कि भाजपा ने मुझे अपने परिवार में जगह दी है .

पराजय से चकित लेकिन अप्रभावित, नाथ परिवार जमीन पर है, मतदाताओं से मिल रहा है, और छिंदवाड़ा निर्वाचन क्षेत्र में सार्वजनिक बैठकों को संबोधित कर रहा है, जहां नकुल नाथ लोकसभा सीट से फिर से चुनाव लड़ रहे हैं।

अपनी सार्वजनिक सभाओं में, कमल नाथ सत्तारूढ़ भाजपा पर पिछले दो दशकों से राज्य में सत्ता में रहने के बावजूद छिंदवाड़ा के लिए कुछ नहीं करने का आरोप लगा रहे हैं। वरिष्ठ नेता ने अपने गृह क्षेत्र के विकास का श्रेय लेने की कोशिश की। छिंदवाड़ा लोकसभा सीट के अंतर्गत आने वाले परासिया विधानसभा में एक रैली को संबोधित करते हुए पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा कि भाजपा विकास पर बड़ी-बड़ी बातें करती है लेकिन वह ही हैं जो एक जन प्रतिनिधि के रूप में निवासियों के काम करवा रहे हैं।

विकास के नाम पर भाजपा बड़ी-बड़ी बातें करती है। नाथ ने कहा, यह पिछले 20 वर्षों से सत्ता में है, लेकिन इसने विकास के लिए कुछ नहीं किया है, चाहे कोई भी सरकार बनाए, हम लोगों का काम करना जारी रखेंगे। छिंदवाड़ा का काम नहीं रुकेगा क्योंकि मैं ही आपका काम कर रहा हूं, नाथ अपने भाषण में लोगों को याद दिलाते दिखे.

मुझे उम्मीद है कि मुझे अंत तक आपका प्यार और विश्वास मिलेगा और मैं आपसे केवल एक ही बात कहूंगा- आपको सच्चाई के साथ खड़ा होना चाहिए, नाथ ने लोगों को उनके साथ अपने लंबे जुड़ाव और छिंदवाड़ा, जिस लोकसभा सीट का उन्होंने प्रतिनिधित्व किया है, के बारे में याद दिलाते हुए कहा। नौ बार के लिए.

कमल नाथ की बहू, नकुल की पत्नी प्रिया भी छिंदवाड़ा लोकसभा के लिए अपने पति के दोबारा चुनाव के समर्थन में लोगों से मिल रही हैं और सार्वजनिक बैठकों को संबोधित कर रही हैं।

हमें उनके (कमल नाथ) लिए बेहद दुख है. उन्होंने चौरई विधानसभा क्षेत्र में एक सार्वजनिक बैठक को संबोधित करते हुए कहा कि जिन्हें हम अपना समझते थे, जिन्हें हम परिवार की तरह प्यार करते थे और जिन्हें कमल नाथ जी ने आशीर्वाद दिया, उन्होंने मुश्किल समय में हमें धोखा दिया।

नकुल नाथ का मुकाबला बीजेपी के विवेक साहू से होगा. लोकसभा सीट के लिए 19 अप्रैल को मतदान होना है।

यहाँ आगामी चुनाव स्थानीय शासन और ग्रामीण विकास पर केंद्रित है। मध्य प्रदेश की सबसे हॉट सीटों में से एक, छिंदवाड़ा एक और चुनावी लड़ाई के लिए तैयार है, नज़र इस बात पर रहेगी कि क्या नाथ परिवार इंदिरा गांधी की बात रख पाएगा, जिन्होंने छिंदवाड़ा में कमल नाथ को अपने ‘तीसरे बेटे’ के रूप में पेश किया था।

यह देखना भी दिलचस्प होगा कि क्या कांग्रेस, जो पिछले साल विधानसभा की दौड़ में भाजपा से हार गई थी, भारत के हृदय क्षेत्र में लोकसभा में अपनी स्थिति बेहतर कर पाती है या नहीं।

ড্রিমস টেক ফ্লাইট: কেইসিটি (KECT) ভবিষ্যতের জন্য দরিদ্রদের পাসপোর্টকে লালন করে

কলকাতা: খালের দৈর্ঘ্য বরাবর ছড়িয়ে থাকা ময়লা-আবর্জনার পাশ দিয়ে চলা ধুলোময়, ঢালু রাস্তা যা আপনাকে গুলশান কলোনি, উত্তর পঞ্চান্না গ্রাম পর্যন্ত নিয়ে যায়।

নির্মাণাধীন ভবনটি আপনাকে অভিনন্দন জানাচ্ছে যখন আপনি অনেক সাপের মতো গলির মধ্যে একটিতে হেঁটে যাচ্ছেন, কেইসিটি (KECT) একাডেমি খুঁজছেন – কলকাতা এডুকেশনাল অ্যান্ড চ্যারিটেবল ট্রাস্ট কেইসিটি (KECT) এর একাডেমিক শাখা যার লক্ষ্য হল ‘ফিল্টার করা’দের সেরা শিক্ষা প্রদান করা। শহরের দরিদ্র।

যে বিল্ডিংটিতে স্কুল রয়েছে, যেটিতে এখন পর্যন্ত VII পর্যন্ত ক্লাস চালু আছে, এটি একটি আবাসিক ভবন, কিন্তু আপনি যখন কেইসিটি (KECT) ট্রাস্টের মালিকানাধীন কয়েক হাজার বর্গফুটের মধ্যে হেঁটে যান, তখন আপনাকে এমন শ্রেণীকক্ষে নিয়ে যাওয়া হয় যা নতুন- বয়স শিক্ষণ সরঞ্জাম, প্রযুক্তি, অবকাঠামো এবং একটি সুস্থ শিক্ষক-ছাত্র অনুপাত।

কিন্তু যা আপনাকে সবচেয়ে বেশি আঘাত করে তা হল বাচ্চাদের স্বপ্ন ভরা চোখ, যারা সস্তা বাসস্থান এবং জীবনের সন্ধানে কলকাতা থেকে বাইরে ঠেলে দেওয়া পরিবার থেকে আসে।

কেইসিটি (KECT) একাডেমির পঞ্চম শ্রেণির ছাত্রী আসিয়া বলে, “আমি একজন লেখক হতে চাই৷ তার বাবা একটি জুতার কারখানায় দিনমজুর হিসেবে কাজ করেন, আর তার মা একজন গৃহকর্মী। এই তরুণী অনবদ্য ইংরেজি বলে। তাকে কী লিখতে অনুপ্রাণিত করে তা জিজ্ঞাসা করা হলে তিনি বলেন, “আমি আমার মায়ের মোবাইল ফোনে কিছু ভিডিও ব্রাউজ করছিলাম যখন আমি একটি ভিডিও দেখতে পেলাম যেখানে একটি মেয়ে বলছে যে সে বেশ কয়েকটি ছোট গল্প লিখেছেন। আমি ভাবলাম, সে যদি পারে, তাহলে আমি কেন পারব না?”

“আমি আজ পর্যন্ত 41টি গল্প লিখেছি,” আসিয়াকে জানান, যিনি শুধুমাত্র তার প্রথম নামে ডাকা পছন্দ করেন। তার বন্ধুরা, তার পিছনে বসা, একটি নোটবুক এগিয়ে দিয়েছিল যাতে কিছু আকর্ষণীয় গল্প ছিল যা তার স্বপ্ন, আকাঙ্খা এবং তাকে ঘিরে থাকা দারিদ্র্য দ্বারা অনুপ্রাণিত হয়েছিল।

আসিয়ার গল্পটি একাডেমিতে ভর্তি হওয়া প্রায় সমস্ত ছাত্রদের মতো, যার লক্ষ্য এই বাচ্চাদের ডানার নীচে বাতাস হওয়া, যারা লেখক, ডাক্তার, শিক্ষক, পুলিশ এবং এমনকি আইএএস অফিসার হতে চায়।

কেইসিটি অ্যাকাডেমি কলকাতা শিক্ষা দরিদ্র সুবিধাবঞ্চিত ছাত্র
একটি কেইসিটি মেয়ে তার কাজ দেখায় | সৌজন্যে: kectwb.org

কেইসিটি (KECT) একাডেমি গল্প

গল্পটি নব্বই দশকের গোড়ার দিকে ফিরে যায় যখন যুবকদের একটি দল ফ্রেন্ডস এডুকেশন সোসাইটি শুরু করেছিল, যার লক্ষ্য ছিল তখনকার যুবকদের সিভিল পরীক্ষায় অংশ নেওয়ার জন্য আহ্বান জানানো। এমনকি যারা তাদের একাডেমিক পরিষেবা পেতে আগ্রহী তাদের জন্য তারা টিউটোরিয়াল ক্লাস পরিচালনা করে।

“অনেকে সিভিল সার্ভিস পরীক্ষায় ক্র্যাক করেছে, ঠিক আমার মতো। তারপরে আমরা আমাদের কর্মজীবনে ব্যস্ত হয়ে পড়ি, পরে বুঝতে পারি যে, আমাদের এখনও একটি অপ্রত্যাশিত স্বপ্ন রয়েছে – দরিদ্রদের মধ্যে দরিদ্রতমদের ভাল শিক্ষা দেওয়ার,” কেইসিটি (KECT) এর অন্যতম প্রতিষ্ঠাতা এবং ট্রাস্টি শাকিল আহমেদ স্মরণ করেন।

উত্তর পঞ্চান্নার গুলশান কলোনিতে কেন তারা একাডেমি চালু করতে বেছে নিলেন, এমন প্রশ্নের জবাবে কলকাতার প্রাক্তন ডিসিপি এস এম কলিমুদ্দিন বলেন, “এই জায়গাটি একটি মাশরুমিং কংক্রিটের জঙ্গল, যা সমাজের ফিল্টার করা দরিদ্রদের আবাসস্থল। এই এলাকায় বসবাসরত দৈনিক মজুরি উপার্জনকারী শিশুদের জন্য কোন ভাল স্কুল নেই। সুতরাং, আর্থিক সীমাবদ্ধতা সহ পরিবারের সন্তানদের শিক্ষা, দক্ষতা, মূল্যবোধ এবং সহায়তা প্রদানের একমাত্র উদ্দেশ্য নিয়ে আমরা এই একাডেমিটি স্থাপন করেছি যাতে তারা তাদের প্রকৃত সম্ভাবনা অর্জন করতে পারে।”

এর সাথে যোগ করে, ট্রাস্টি মানজার জামীল উল্লেখ করেন, “10 সদস্যের ট্রাস্টি প্যানেলটি দরিদ্রতম দরিদ্রদের সর্বোত্তম শিক্ষা প্রদানের একটি দৃষ্টিভঙ্গি রয়েছে। এটি আমাদের ভবিষ্যৎ প্রজন্মকে ক্ষমতায়নের উপায় যাতে তারা পরবর্তী প্রজন্মকে নেতৃত্ব দিতে পারে।”

“আমাদের যাত্রা অসম্পূর্ণ থাকত, আমাদের প্যানেলে নমরোজ আহমেদ খান প্রাক্তন ডিসি ডিডি 11, শিল্পপতি শাকিল আহমেদ, জহির আহমেদ হাশমি এবং জামশেদ আলমের মতো ট্রাস্টি ছিল না,” জামিল যোগ করেছেন

কি কেইসিটি (KECT) একাডেমীকে অনন্য করে তোলে?

ট্রাস্ট শুধুমাত্র বিনামূল্যে শ্রেণীকক্ষে পাঠদান নিশ্চিত করে না বরং একাডেমিতে নথিভুক্তদের ইউনিফর্ম, স্কুলের জুতা, পাঠ্য ও ব্যায়ামের বই, স্টেশনারি এবং এমনকি স্বাস্থ্যকর খাবারও প্রদান করে।

“আমরা যারা ভর্তির জন্য আবেদন করছেন তাদের সম্পূর্ণ ব্যাকগ্রাউন্ড চেক করি কারণ আমরা চাই না আমাদের দাতাদের অর্থ নষ্ট হোক। সুতরাং, আমরা আমাদের শিক্ষকদের কাছে গিয়ে আবেদনকারীর আর্থ-সামাজিক অবস্থার জরিপ করি। এই প্রতিবেদনের উপর ভিত্তি করে, আমরা ভর্তি প্রক্রিয়ার সাথে এগিয়ে যাই। প্রথম অগ্রাধিকার দেওয়া হয় একক পিতামাতার বাচ্চাদের বা আবেদনকারীদের যারা নির্জন এবং তারপরে আবেদনকারীদের মধ্যে সবচেয়ে দরিদ্রদের,” আহমেদ জানান।

একবার স্ক্রীনিং সম্পন্ন হলে পিতামাতাদের পরামর্শ দেওয়া হয় কিভাবে তাদের সন্তানের একাডেমিক চাহিদার যত্ন নিতে হবে।

“যারা শ্রেণীকক্ষের চাপ সামলাতে অক্ষম তাদের জন্য আমরা প্রতিকারমূলক ক্লাস অফার করি। আমাদের প্রতিটি বাচ্চাকে তৈরি করার জন্য আমাদের ওয়ার্কশপ এবং সেশন রয়েছে,” কেইসিটি একাডেমি র শিক্ষক-ইন-চার্জ শেহনিলা খালিদ জানান।

ভারতের একজন শিক্ষক অন্তরিকা মন্ডল, যিনি এখন প্রায় এক বছর ধরে একাডেমির ছাত্রদের সাথে কাজ করছেন, মনে করেন, “এই শ্রেণীকক্ষের প্রতিটি শিশুর তাদের জীবনে উচ্চতর হওয়ার সম্ভাবনা রয়েছে। আমরা একটি ভালোভাবে সাজানো ইংরেজি পাঠ্যক্রম অফার করি, যা ছাত্রদের শব্দভাষা ও লেখার দক্ষতার উন্নতিতে ফোকাস করে।”

আরও মজার বিষয় হল যে একাডেমি এমনকি স্কুলে ভর্তি হওয়া বাচ্চাদের মহিলাদের ক্ষমতায়ন করতেও বেছে নেয়। এরকম একটি উদাহরণ হলেন ধনপতি দেবী, যিনি একাডেমীতে গ্রুপ ডি স্টাফ হিসাবে কাজ করেন৷ “আমার দুটি সন্তান আছে এবং দুজনেই এখানে পড়াশোনা করে। আমার স্বামী একজন ড্রাইভার এবং আমরা শেষ মেটাতে অনেক কষ্ট করছিলাম। আমি ট্রাস্টিদের সাথে দেখা করেছি এবং তারা আমাকে আর্থিকভাবে স্বাধীন হতে সর্বোত্তম উপায়ে সাহায্য করেছে।”

সামনের রাস্তা

আহমেদ কেইসিটি (KECT) এর দৃষ্টিভঙ্গিও ব্যাখ্যা করেন, “আমরা অন্ততপক্ষে দ্বাদশ শ্রেণি পর্যন্ত বিনামূল্যে শিক্ষা প্রদানের জন্য একটি পূর্ণাঙ্গ বিদ্যালয়ের আকাঙ্ক্ষা করি এবং তারপরে সুবিধাবঞ্চিতদের জন্য একটি ইঞ্জিনিয়ারিং কলেজ চালু করি। আমরা শীঘ্রই আমাদের নিজস্ব একটি স্কুল ভবন করার পরিকল্পনা করছি। আমরা এখন সিবিএসই পাঠ্যক্রম অনুসরণ করছি। ”

আর কেইসিটি একাডেমি চালাতে ফান্ড পাবেন কিভাবে? এ বিষয়ে আরেক ট্রাস্টি ইফতেখার আদিল বলেন, “আমরা সরকারি তহবিলে প্রতিষ্ঠানটি চালাই। যাকাত দান অন্যদের মধ্যে বই, জামাকাপড়ের খরচ তহবিল করার জন্য ব্যবহৃত হয়, যখন জাকাত বহির্ভূত দান অবকাঠামো উন্নয়নে ব্যবহৃত হয়।”

 

এটি ইংরেজিতে প্রকাশিত প্রতিবেদনের একটি অনুবাদ

सपनों को उड़ान मिलती है यहाँ: भविष्य के लिए गरीबों का पासपोर्ट है केईसीटी अकादमी

कोलकाता: धूल भरी, ऊबड़-खाबड़ सड़कें, जो नहर की लंबाई के साथ बिखरे हुए कचरे के साथ-साथ चलती हैं, आपको गुलशन कॉलोनी, उत्तर पंचचन्न ग्राम तक ले जाती हैं।

जब आप केईसीटी अकादमी की तलाश में कई पतले गलियों में से एक में प्रवेश करते हैं, तो निर्माणाधीन इमारत आपका स्वागत करती है – कोलकाता एजुकेशनल एंड चैरिटेबल ट्रस्ट (केईसीटी) की शैक्षणिक शाखा, जिसका उद्देश्य ‘ चुने हुये गरीब बच्चों’ को सर्वोत्तम शिक्षा प्रदान करना है।

जिस इमारत में स्कूल है, जिसमें अब तक सातवीं कक्षा तक की कक्षाएं संचालित होती हैं, एक आवासीय है, लेकिन जब आप केईसीटी ट्रस्ट के स्वामित्व वाले कुछ हजार वर्ग फुट में प्रवेश करते हैं, तो आपको उन कक्षाओं में ले जाया जाता है जो नई सुविधाओं से सुसज्जित है- आयु शिक्षण उपकरण, प्रौद्योगिकी, बुनियादी ढाँचा और एक स्वस्थ शिक्षक-छात्र अनुपात।

लेकिन जो चीज आपको सबसे ज्यादा प्रभावित करती है वह है बच्चों की सपनों से भरी आंखें, जो ऐसे परिवारों से आते हैं जिन्हें सस्ते आवास और जीवन की तलाश में कोलकाता से बाहर धकेल दिया गया है।

केईसीटी अकादमी की कक्षा पांच की छात्रा आसिया कहती हैं, ”मैं एक लेखिका बनना चाहती हूं।” उनके पिता एक जूता फैक्ट्री में दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करते हैं, जबकि उनकी मां एक गृहिणी हैं। यह युवा लड़की बेहतरीन अंग्रेजी बोलती है। यह पूछे जाने पर कि उन्हें लिखने के लिए क्या प्रेरणा मिलती है, वह कहती हैं, “मैं अपनी मां के मोबाइल फोन में कुछ वीडियो ब्राउज़ कर रही थी, तभी मेरी नजर एक वीडियो पर पड़ी, जिसमें एक लड़की बता रही थी कि उसने कई लघु कहानियां लिखी हैं। मैंने सोचा, अगर वह कर सकती है, तो मैं क्यों नहीं?”

“मैंने अब तक 41 कहानियाँ लिखी हैं,” आसिया बताती हैं, जो केवल अपने पहले नाम से पुकारा जाना पसंद करती हैं। उसके पीछे बैठे उसके दोस्तों ने एक नोटबुक आगे बढ़ाई जिसमें कुछ दिलचस्प कहानियाँ थीं जो उसके सपनों, आकांक्षाओं और उसके चारों ओर फैली गरीबी से प्रेरित थीं।

आसिया की कहानी अकादमी में भर्ती हुए लगभग सभी छात्रों के समान है, जिसका लक्ष्य इन बच्चों के पंखों के नीचे हवा बनना है, जो लेखक, डॉक्टर, शिक्षक, पुलिस और यहां तक ​​कि आईएएस अधिकारी बनना चाहते हैं।

 

केक्ट अकादमी कोलकाता शिक्षा गरीब वंचित छात्रों
एक केईसीटी लड़की ने अपना काम दिखाया | सौजन्य: kectwb.org

केईसीटी (KECT) अकादमी की कहानी

कहानी नब्बे के दशक की शुरुआत की है जब युवाओं के एक समूह ने फ्रेंड्स एजुकेशन सोसाइटी की शुरुआत की, जिसका उद्देश्य युवाओं को सिविल परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने के लिए प्रोत्साहित करना था। उन्होंने उनकी शैक्षणिक सेवाओं का लाभ उठाने में रुचि रखने वालों के लिए ट्यूटोरियल कक्षाएं भी आयोजित कीं।

“कई लोगों ने सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण की, जैसे मैंने किया। फिर हम अपने करियर में व्यस्त हो गए, बाद में एहसास हुआ कि हमारा अभी भी एक अधूरा सपना है – सबसे गरीब लोगों को अच्छी शिक्षा प्रदान करना,” केईसीटी के संस्थापकों और ट्रस्टी में से एक शकील अहमद ने याद किया।

यह पूछे जाने पर कि उन्होंने उत्तर पंचानन की गुलशन कॉलोनी में अकादमी शुरू करने का फैसला क्यों किया, कोलकाता के पूर्व डीसीपी एसएम कलीमुद्दीन ने जवाब दिया, “यह जगह एक तेजी से बढ़ता हुआ कंक्रीट का जंगल है, जो समाज के गरीबों का घर है। इस इलाके में रहने वाले दिहाड़ी मजदूरों के बच्चों के लिए कोई अच्छे स्कूल नहीं हैं। इसलिए, हमने आर्थिक तंगी वाले परिवारों के बच्चों को शिक्षा, कौशल, मूल्य और सहायता प्रदान करने के एकमात्र इरादे से इस अकादमी की स्थापना की है ताकि वे अपनी वास्तविक क्षमता हासिल कर सकें।

इसके अलावा, ट्रस्टी मंजर जमील ने कहा, “10 सदस्यों वाले ट्रस्टी पैनल का दृष्टिकोण सबसे गरीब लोगों को सर्वोत्तम शिक्षा प्रदान करना है। यह भावी पीढ़ी को सशक्त बनाने का हमारा तरीका है ताकि वे अगली पीढ़ी का नेतृत्व कर सकें।”

जमील ने कहा, “हमारी यात्रा अधूरी होती, अगर हमारे पैनल में नमरोज़ अहमद खान पूर्व डीसी डीडी 11, उद्योगपति शकील अहमद, ज़हीर अहमद हाशमी और जमशेद आलम जैसे ट्रस्टी नहीं होते।”

केईसीटी अकादमी को क्या विशिष्ट बनाता है?

ट्रस्ट न केवल मुफ्त कक्षा शिक्षण सुनिश्चित करता है, बल्कि अकादमी में नामांकित लोगों को ऊनीफ़ोर्म, स्कूल के जूते, पाठ्य और अभ्यास पुस्तकें, स्टेशनरी और यहां तक ​​​​कि नाश्ता भी प्रदान करता है।

“हम प्रवेश के लिए आवेदन करने वालों की पूरी पृष्ठभूमि की जांच करते हैं क्योंकि हम नहीं चाहते कि हमारे दानदाताओं का पैसा बर्बाद हो। इसलिए, हमारे पास हमारे शिक्षक हैं और वे आवेदक की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का सर्वेक्षण करते हैं। इस रिपोर्ट के आधार पर, हम प्रवेश प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हैं। पहली प्राथमिकता एकल-अभिभावक बच्चों या उन आवेदकों को दी जाती है जिन्हें छोड़ दिया गया है और फिर आवेदकों में से सबसे गरीब लोगों को दी जाती है, ”अहमद ने बताया।

एक बार स्क्रीनिंग हो जाने के बाद माता-पिता को सलाह दी जाती है कि वे अपने बच्चे की शैक्षणिक आवश्यकताओं का ख्याल कैसे रखें।

“हम उन छात्रों के लिए उपचारात्मक कक्षाएं प्रदान करते हैं जो कक्षा के दबाव का सामना करने में असमर्थ हैं। हमारे पास अपने प्रत्येक बच्चे को तैयार करने के लिए कार्यशालाएँ और सत्र हैं, ”केईसीटी अकादमी में प्रभारी शिक्षक शेहनिला खालिद ने बताया।

टीच फॉर इंडिया फेलो अंतरिक्ष मंडल, जो लगभग एक साल से अकादमी के छात्रों के साथ काम कर रहे हैं, का मानना ​​है, “इस कक्षा के प्रत्येक बच्चे में अपने जीवन में ऊंची उड़ान भरने की क्षमता है। हम एक सुव्यवस्थित अंग्रेजी पाठ्यक्रम प्रदान करते हैं, जो छात्रों की बोली और लेखन कौशल को बेहतर बनाने पर केंद्रित है।

अधिक दिलचस्प तथ्य यह है कि अकादमी उन महिलाओं को भी सशक्त बनाने का विकल्प चुनती है जिनके बच्चे स्कूल में नामांकित हैं। ऐसा ही एक उदाहरण धनपति देवी हैं, जो अकादमी में ग्रुप डी स्टाफ के रूप में काम करती हैं। “मेरे दो बच्चे हैं और दोनों यहीं पढ़ते हैं। मेरे पति एक ड्राइवर हैं और हमें गुजारा करने में बहुत कठिनाई हो रही थी। मैं ट्रस्टियों से मिला और उन्होंने मुझे आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने में सर्वोत्तम संभव तरीके से मदद की है।”

आगे का सफर

अहमद ने केईसीटी के दृष्टिकोण को भी समझाया, “हम कम से कम बारहवीं कक्षा तक मुफ्त शिक्षा प्रदान करने वाला एक पूर्ण स्कूल बनाने की इच्छा रखते हैं और फिर अंततः वंचितों के लिए एक इंजीनियरिंग कॉलेज शुरू करना चाहते हैं। हमारी योजना जल्द ही अपना खुद का एक स्कूल भवन बनाने की है। अकादेमी अभी सीबीएसई पाठ्यक्रम से चल रहा है।”

और आपको अकादमी चलाने के लिए धन कैसे मिलता है? इस पर एक अन्य ट्रस्टी इफ्तिखार आदिल ने कहा, “हम सार्वजनिक धन पर संस्था चलाते हैं। ज़कात दान का उपयोग किताबों, कपड़ों आदि के खर्चों को वित्तपोषित करने के लिए किया जाता है, जबकि गैर-ज़कात दान का उपयोग बुनियादी ढांचे के विकास के लिए किया जाता है।

 

ये इंग्लिश में प्रकाशित स्टोरी का अनुवाद है।

Dreams Take Flight: KECT Nurtures the Poor’s Passport to the Future

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Kolkata: The dusty, bumpy roads that run alongside the garbage strewn along the length of the canal that lead you to Gulshan Colony, Uttar Panchchanna gram.

The under-construction building greets you as you walk into one of the many serpentine-like lanes, looking for the KECT Academy – the academic wing of the Kolkata Educational and Charitable Trust (KECT) that aims to provide the best education to the ‘filtered poor’ of the city.

The building that houses the school, which as of now has classes functional up to standard VII, is a residential one, but when you walk into the few thousand square feet owned by the KECT trust, you are transported into classrooms that boast of new-age teaching tools, technology, infrastructure and a healthy teacher-student ratio. 

But what strikes you the most is the dream-filled eyes of kids, who hail from families that have been pushed out of Kolkata in search of cheaper accommodation and life.

“I want to be a writer,” says Asiya, a class V student of KECT Academy. Her father works as a daily labour in a shoe factory, while her mother is a homemaker. This young girl speaks impeccable English. On being asked what inspires her to write she says, “I was browsing through some videos in my mother’s mobile phone when I came across a video in which a girl was telling that she has written several short stories. I thought, if she can, then why can’t I?”

“I have written 41 stories to date,” informs Asiya, who prefers to be called by her first name only. Her friends, sitting behind her, pushed forward a notebook which had some interesting stories that were inspired by her dreams, aspirations and the poverty that surrounded her.  

The story of Asiya is similar to that of almost all students admitted into the Academy, which aims to be the wind under the wings of these kids, who want to be writers, doctors, teachers, police and even IAS officers. 

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A KECT girl show her work | Courtesy: kectwb.org

The story of KECT Academy

The story goes back to the early Nineties when a group of youngsters began the Friends of Education Society, which aimed to urge the youngsters back then to crack civil examinations. They even conducted tutorial classes for those interested in availing their academic services.

“Many cracked the civil service exam, just like I did. Then we got busy with our career, only to realise later, that we still have an unrequited dream – to provide good education to the poorest among the poor,” recalled Shakil Ahmed, one of the founders and trustee of KECT.

On being asked, why they chose to start the academy in Uttar Panchanna’s Gulshan Colony, SM Kalimuddin, former DCP, Kolkata replied, “This place is a mushrooming concrete jungle, which is home to the filtered poor of the society. There are no good schools for the kids of the daily wage earners residing in this locality. So, we set up this academy with the sole intention of providing education, skills, values and support to kids hailing from families with financial constraints so that they can achieve their true potential.”

Adding to that, trustee Manzar Jameel mentioned, “The trustee panel comprising 10 members has a vision of providing the best education to the poorest of the poor. This is our way of empowering the future generation so that they can lead the next generation.”

“Our journey would have been incomplete, we didn’t have trustees like Namroz Ahmed Khan ex DC DD 11, industrialist Shakil Ahmed, Zahir Ahmed Hashmi, Imtiyaz Adil and Jamshed Alam in our panel,” added Jameel

What makes KECT Academy unique?

The trust not only ensures free classroom teaching but also provides the uniform, school shoes, text and exercise books, stationery and even healthy snacks to those enrolled with the academy.

“We do a complete background check of those applying for admission as we don’t want the money of our donors to get wasted. So, we have our teachers go and survey the applicant’s socio-economic condition. Based on this report, we proceed with the admission procedure. First preference is given to single-parent kids or applicants who have been deserted and then to the poorest among the applicants,” informed Ahmed.

Once the screening is done the parents are counseled on how to take care of their child’s academic needs.

“We offer remedial classes for students who are unable to cope with the classroom pressure. We have workshops and sessions to groom each of our children,” informed Shehnila Khalid, teacher-in-charge at the KECT Academy.

Aratrika Mondal, a Teach for India fellow, who has been working with Academy’s students for almost a year now, feels, “Each child in this classroom has the potential to soar high in their lives. We offer a well-tailored English curriculum, which focuses on improving the diction and writing skills of the students.”

What’s more interesting is the fact that the academy even chooses to empower women who have kids enrolled with the school. One such example is Dhanpati Devi, who works as a group D staff in the academy. “I have two children and both study here. My husband is a driver and we were having great difficulty in making ends meet. I met the trustees and they have helped me in the best possible way to be financially independent.”

The road ahead

Ahmed also explained KECT’s vision, “We aspire to at least have a full-fledged school offering free education till standard XII and then eventually initiate an engineering college for the underprivileged. We plan to have a school building of our own soon. We are following the CBSE curriculum as of now. ”

And how do you get funds to run the academy? To that Iftekhar Adil, another trustee,said, “We run the institution on public funds. Zakat donation is used to fund the expenses of books, clothes among others, while the non-zakat donations are used for infrastructure development.”