झारखंड मुक्ति मोर्चा: महाजनी प्रथा और माफिया राज को खत्म करने वाली पार्टी, एक बड़ी राजनीतिक लड़ाई रही
ईन्यूज़रूम ने झामुमो के अब तक के सफर और इसके भविष्य को समझने के लिए ‘समर शेष है’ के लेखक और जेएमएम संस्थापक शिबू सोरेन के साथ दो दशकों तक काम किया। और पार्टी के स्थापना से लेकर अभी तक के सफर को नजदीक से देख रहे रांची के वरिष्ठ पत्रकार विनोद कुमार से बात की
झारखंड मुक्ति मोर्चा, जिसकी स्थापना 1973 में हुई थी अब आधे दशक का सफर तय कर चुकी है। वैसे तो 4 फरवरी, 1973 में इसकी स्थापना धनबाद में हुई थी, पर 4 मार्च, 1973 को ही गिरिडीह में भी इसकी बुनियाद रखी गयी थी। गिरिडीह में आज इसे समारोह के तौर पर मनाया जा रहा जिसमें, झारखंड राज्य के मुख्यमंत्री और झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन भी शरीक होंगे।
ईन्यूज़रूम ने झामुमो के अब तक के सफर और इसके भविष्य को समझने के लिए ‘समर शेष है’ के लेखक और जेएमएम संस्थापक शिबू सोरेन के साथ दो दशकों तक काम किया। और पार्टी कि स्थापना से लेकर अभी तक के सफर को नजदीक से देख रहे रांची के वरिष्ठ पत्रकार विनोद कुमार से बात की|
झामुमो ने अपने उद्देश्यों को हासिल किया
विनोद कुमार मानते हैं कि जिन उद्देश्यों के लिए एके रॉय, विनोद बिहारी महतो और शिबू सोरेन ने झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना कि थी, उसमें मोर्चा कामयाब रहा है।
“वैसे तो 50 साल के सफर में झामुमो कई बार टूटी और इसकी शुरुआत एके रॉय से हो गयी थी, जो चाहते थे कि मोर्चा चुनाव नहीं लड़े, पर ऐसा हुआ नहीं और रॉय साहब की राह जुदा कुछ सालों में ही हो गयी। फिर बाद में विनोद बिहारी से भी अलग हो कर ये अब सिर्फ शिबू सोरेन की पार्टी बन गयी थी। पर जहाँ शिबू सोरेन जिसने सनोत समाज संस्था बनाकर महाजनों के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़ी थी, वही माफ़ीयाओ के खिलाफ लड़ाई जिसका नेतृत्व एके रॉय कर रहे थे उसमें भी उनको पूरा बल देने का काम किया।”
“फिर अलग झारखंड की लड़ाई को जेएमएम ने धार दिया और झारखंड अलग राज्य के सपनों को साकार करा कर ही दम लिया,” वरिष्ठ पत्रकार ने आगे बताया।
पर राजनीतिक संघर्ष अभी बाकी है
झारखंड बनने की लड़ाई लड़ने के बावजूद राज्य बनने के बाद, झामुमो को ज्यादा राजनीतिक लाभ नहीं मिला। कभी सत्ता में कुछ वक़्त के लिए आई तो कभी बहुत दूर रह गई।
कभी बीजेपी के साथ गठजोड़ किया और सत्ता में आई तो कभी काँग्रेस के साथ।
विनोद कुमार ने कहा, “पहली बार 2019 में जेएमएम को सबसे बड़ी कामयाबी मिली और पार्टी, 81 में से 30 सीटें जीत पाई और भाजपा को पछाड़ते हुए राज्य की सबसे बड़ी पार्टी बन गई। और काँग्रेस, आरजेडी के साथ मिलकर महागठबंधन की सरकार झारखंड में चला रही है।”
उन्होने आगे बताया, “झामुमो को अभी भाजपा से बहुत कड़ी राजनीतिक लड़ाई लड़नी पड़ रही है। ये अलग बात है कि महागठबंधन की सरकार कैसा काम कर रही है और सरकार के मंत्री कितने भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, इसके लिए ही पाँच साल में चुनाव होता है और इसका फैसला जनता करती है। पर भाजपा बिना मतलब के मुद्दों को उठा कर झामुमो अगुआ सरकार को कार्यकाल पूरा होने से पहले ही गिराना चाहती है।”
देश की सबसे छोटी पार्टी, सबसे बड़ी से टक्कर ले रही
“भाजपा अपने को भारत और दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बताती है। पर झामुमो जिसके 30 विधायक हैं उसकी सरकार को गिराने के लिए हर कोशिश कर रही है। अब देखना ये होगा कि हेमंत सोरेन जो अभी तो तलवार की धार पे चल कर सरकार चला रहे हैं, सरकार और फिर अपने पार्टी को और कितना आगे ले जाते हैं, कब तक जेएमएम अकेले बहुमत ला पाती है। वैसे वें इतना तो समझ गये हैं कि भाजपा के साथ जो चल रहा है वो अस्तित्व की लड़ाई है।” विनोद कुमार ने बताया।
वरिष्ठ पत्रकार ने एक और अहम मुद्दे की ओर ध्यान खींचा। आदिवासियों की आबादी इंडिया में 10 प्रतिशत है पर कोई राष्ट्रीय स्तर का आदिवासी नेता नहीं है देश में।
विनोद कुमार ने इस पर कहा, “देखना ये भी है कि, क्या हेमंत सोरेन के काल में, झामुमो, कोई राष्ट्रीय स्तर का आदिवासी नेता देगी देश को?”