तमाम कृषि संकटों के बीच क्यों बड़ा है खेती में आधुनिकता का संकट?

Date:

Share post:

कोरोना महामारी के दौर में अपनी रोजीरोटी को लेकर जद्दोजहद करने की कई सारी कहानियों के बीच पिछले दिनों एक कहानी मध्य-प्रदेश के खरगोन जिले के पथोरा गांव के युवा इंजीनियर सुधीर पटेल की चर्चा में आई, जिसमें जिन्होंने अपने अठारह एकड़ के खेत में जैविक खेती की और उससे उत्पादित गेंहू की उपज को बेचने के लिए दुबई भेजा। यह कहानी इस क्रम में महत्त्वपूर्ण है कि जैविक खेती यानी रसायन-मुक्त परंपरागत खेती और उससे उत्पादित खाद्य-पदार्थों की मांग दिनों दिन बढ़ती जा रही है। यह मांग इससे जुड़ी इस तरह की सभी कहानियों की इस अवधारणा को अच्छी तरह से समझने के लिए प्रेरित करती है कि खेती के संकट का समाधान और लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति कृषि आधारित पारंपरिक तौर-तरीकों में भी छिपी हो सकती है। यदि बाजार के दबाव में हम इसकी अनदेखी करके आधुनिक पद्धतियों को अपनाएं और उनका अंधाधुंध उपयोग करें तो इससे नए तरह के खतरे पैदा हो सकते है। लिहाजा, वर्ष 2015 में संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) ने खेती में रसायनों के बढ़ते उपयोग के कारण अगले 60 वर्षों तक ही खेत खेती करने योग्य रह जाएंगे। इसके पहले संयुक्त राष्ट्र संघ समर्थक इंटरनेशनल असेसमेंट ऑफ एग्रीकल्चर नॉलेज, साइंस एंड टेक्नोलॉजी ने 2008 में रसायन आधारित और इनपुट इंटेंसिव कृषि के टिकाऊपन और चिरस्थायी होने पर गंभीर सवाल खड़े उठाए थे।

इसलिए आज देश-दुनिया में जैविक खेती और उसके रसायन-मुक्त उत्पादों की तरफ बढ़ती प्रवृत्ति कुछ नया नहीं है बल्कि खेती के क्षेत्र में अपने आपको दशकों पीछे की ओर ले जाना ही है। प्रश्न यह है कि आज जब हमें दशकों पीछे लौटना पड़ रहा है तो ऐसी नौबत आई ही क्यों कि हमें एक समय इसे छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था? इसे समझने के लिए आज हमें एक बार फिर से 1960 के दशक में शुरू हुई हरित-क्रांति यानी ग्रीन-रेव्यूलेशन की कहानी जाननी चाहिए, लेकिन नए सिरे और संदर्भों के साथ।

साठ के दशक में भारत के सामने खाद्यान्न की कमी एक विकट समस्या के तौर पर उभरकर सामने आई थी। तब स्थिति कुछ ऐसी बन गई कि कहा जाने लगा यदि खाद्यान्न विदेशों से नहीं मंगाया गया तो देश में अकाल के कारण भुखमरी बढ़ेगी। लेकिन, इसी समय एक समस्या यह थी कि देश नया-नया स्वतंत्र हुआ था और खाद्यान्न को आयात करने के लिए सरकार के पास विदेशी मुद्रा की भारी कमी थी। दूसरी तरफ, अमेरिका गेंहू का इस हद तक उत्पादन कर रहा था कि उसके पास जरूरत से ज्यादा गेंहू का भंडार हो गया था और वह जहाज में भर-भरकर गेंहू को समुद्र में डुबोने के लिए मजबूर था। इस दौरान भारत ने अमेरिका के साथ एक करार किया जिसके तहत भारत अमेरिका से गेंहू का आयात विदेशी मुद्रा की बजाय रुपए में कर सकता था। हालांकि, वह गुणवत्ताहीन गेंहू था जिसे खरीदने के अलावा तब भारत के पास कोई चारा नहीं था। इस तरह, भारतीय लोगों तक राशन प्रणाली के अंतर्गत यह गुणवत्ताहीन गेंहू पहुंचाया जाने लगा।

इसके बाद भारत में गेंहू आयात के साथ ही गेंहू की एक नई किस्म ईजाद की गई जो मैक्सिकन गेंहू की प्रजाति को भारतीय गेंहू की प्रजाति के साथ क्रॉस ब्रीडिंग करके तैयार की गई थी। यानी भारत में गेंहू के साथ कृषि की नई प्रौद्योगिकी का भी आयात हुआ। क्रॉस ब्रीडिंग से तैयार नए किस्म के गेंहू की विशेषता यह थी इसकी फसल ज्यादा ऊंची नहीं होती थी, जिससे सिंचाई के दौरान पानी के दबाव से उसकी पौध मिट्टी में नहीं गिरती थी। लेकिन, इस प्रजाति के गेंहू को उगाने के लिए न्यूनतम सात बार सिंचाई की जरूरत पड़ती थी। इसकी दूसरी समस्या यह थी कि यह विदेशी प्रजाति से तैयार किया गया था इसलिए देसी कीड़ों से यह अपना बचाव नहीं कर पाता था। इसका मतलब यह था कि इसे बचाने के लिए कीटनाशकों की भी जरूरत समझी जाने लगी, जबकि देसी गेंहू की प्रजातियों को कीड़े नुकसान नहीं पहुंचा पाते थे। इसलिए तब तक कीटनाशक दवाइयां भारत में बनती नहीं थीं, लिहाजा अब गेंहू की प्रौद्योगिकी के बाद देश में कीटनाशकों के आयात का रास्ता भी खुल गया और भारत गेंहू आयात के बाद कृषि प्रौद्योगिकी और कीटनाशकों के मामले में अमेरिका पर निर्भर हो गया।

लेकिन, बात यहीं खत्म नहीं हुई बल्कि गेंहू की नई प्रजाति की फसल तैयार करने के लिए न्यूनतम सात बार सिंचाई करनी भी जरूरी थी, इसलिए गेंहू की पैदावार को ध्यान में रखते हुए भारी पूंजी निवेश और विदेशी कर्ज लेकर बिजली आधारित सिंचाई की विशालकाय प्रणालियां विकसित करने पर जोर दिया जाने लगा। यह पूरी प्रणाली बांध, नहर और भूमिगत सिंचाई के साधनों पर टिकी थी जिससे विस्थापन सहित पर्यावरण से जुड़े जो नुकसान हुए वह अपने आप में इतिहास का एक अलग अध्याय है। वहीं, गेंहू की नई प्रजाति के साथ एक जरूरत यह भी जुड़ी थी कि यदि किसानों को इसकी ज्यादा से ज्यादा पैदावार चाहिए तो वे अपनी फसल में रासायनिक खाद का उपयोग अवश्य करें। लेकिन, भारतीय गेंहू में तो देसी खाद डाला जाता था तो तब तक रासायनिक खादों का उत्पादन भी भारत में नहीं होता था। जाहिर है कि गेंहू, गेंहू की नई प्रजाति, कीटनाशक और सिंचाई व बिजली की उच्च-तकनीक के साथ बड़े पैमाने पर रासायनिक खाद का आयात भी अमेरिका से किया जाने लगा।

इन सबका परिणाम यह हुआ कि इनसे भारत पर आयात संबंधी नीतियों पर भारी वित्तीय बोझ पड़ने लगा और भारत सरकार पर विदेशी कर्ज का भार लगातार बढ़ने लगा। इसकी शुरुआत गेंहू खरीदी से हुई जो एक मामूली कर्ज था, लेकिन इसके बाद गेंहू के उत्पादन में आत्मनिर्भर बनने के लिए गेंहू की जो नई प्रजाति बनाई गई उसने खेती की पद्धति और बाजार को पूरी तरह बदल दिया था और नई-नई चीजों का आयात बढ़ने के कारण विदेशी कर्ज की पूंजी बढ़ती चली गई। इसलिए साठ से अस्सी के दशक के बीच भारत सरकार द्वारा इतना कर्ज लिया गया कि अगले कई दशकों तक उसे चुकाना मुश्किल रहा। मानो विदेशी कर्ज को चुकाना ही देश की सरकारों के लिए बड़ी जवाबदेही बन गई हो। इस तरह, देश के बजट का एक बड़ा हिस्सा कर्ज अदा करने में खर्च किया जाने लगा।

इसके अलावा एक अन्य समस्या अनुवांशिकी के साथ जुड़ी हुई थी। हरित-क्रांति के पहले भी पंजाब गेंहू के उत्पादन में आगे था और यहीं से देश भर के लिए गेंहू की आपूर्ति की जाती थी। पंजाब और देश के अन्य क्षेत्रों में गेंहू की कई प्रजातियां बोई जाती थीं। इसका लाभ यह था कि किसी साल यदि किसी कीड़े ने गेंहू की एक प्रजाति को नुकसान पहुंचाया भी तो दूसरे खेत में लगा दूसरी प्रजाति का गेंहू बच जाता था। लेकिन, जब आमतौर पर एक ही प्रजाति का गेंहू उगाया जाने लगा तो इसका मतलब यह है कि किसी साल किसी कीड़े ने गेंहू की फसल को नुकसान पहुंचाया तो सभी खेतों की फसल इसकी चपेट में आ सकती थी। इससे किसानों के सामने नई तरह की आर्थिक चुनौतियां भी बढ़ने लगीं।

दरअसल, गेंहू की नई प्रजाति से शुरुआत में किसानों का उत्पादन तेजी से बढ़ा, लेकिन बाद में खेती की लागत बढ़ने लगी क्योंकि नई तरह की खेती में बीज, कीटनाशक, रासायनिक खाद, बिजली और पानी की कीमतों में बढ़ोतरी होती चली गई। हालांकि, हरित-क्रांति के दस-पंद्रह सालों तक भी उत्पादन इतना अधिक था कि किसान अधिक लागत लगाकर भी मुनाफे का एक अंतर बनाए रखते थे, मगर इसके बाद एक अलग तरह का नुकसान दिखाई पड़ने लगा। नुकसान यह कि कई किसान अब शिकायत करने लगे कि उनके खेतों की मिट्टी खराब हो गई है जिसमें पहले की तरह फसल नहीं उगाई जा सकती है। अच्छी पैदावार के लालच में किसानों द्वारा अपने खेतों में यूरिया और फास्फेट जरूरत से ज्यादा उपयोग करना इतना घातक होता गया कि मिट्टी की उत्पादकता कम होती चली गई। इसके बाद खेती का मुनाफा कम होता गया, लेकिन इसकी गति धीमी थी तो किसानों को एकदम से इसका नुकसान समझ नहीं आया। हालांकि, यही वह दौर था जब सरकारी स्तर पर भी किसानों को रासायनिक खाद और कीटनाशकों के उपयोग के लिए सब्सिडी दी जाने लगी। इससे खेती की मिट्टी पहले की तुलना में और तेजी से खराब होने लगी। इससे पर्यावरण का संतुलन बिगड़ा और खेतीबाड़ी में यह एक स्थायी समस्या के तौर पर शामिल होती गई।

इसके बाद जब बड़े किसानों को लगा कि उनके रसायन-युक्त खेत की मिट्टी में फसल का अच्छा उत्पादन संभव नहीं है तो एक नया ट्रेंड शुरू हुआ जिसमें वे छोटे किसानों की जमीन खरीदकर या किराए से लेकर रासायनिक खाद और कीटनाशकों पर आधारित खेती करने लगे। ऐसा इसलिए कि एक समय तक छोटे किसानों का एक बड़ा वर्ग पारंपरिक खेती इसलिए कर पा रहा था कि आधुनिक खेती के लिए उसके पास पैसे और अन्य संसाधन नहीं थे। ऐसे में खेती की जो जमीन जहर से बची हुई थी वह भी प्रदूषित होनी शुरू हो गई। फिर साल-दर-साल जब खेती में पूंजी की मांग बढ़ने लगी तो किसान साहूकार और बैंकों में जाकर पहले से अधिक कर्ज मांगने लगे तथा कर्जदार बनते चले गए।

प्रश्न है कि साठ के दशक में जब देश गंभीर रुप से खाद्यान्न की कमी से जूझ रहा था और अकाल की स्थितियां बनी हुईं थीं तब सरकार के पास क्या कोई दूसरा विकल्प था? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि तब भी भारतीय वैज्ञानिकों का एक वर्ग था जो भारतीय गेंहू के साथ मैक्सिकन गेंहू की क्रॉस ब्रीडिंग के पक्ष में नहीं था। इस वर्ग का कहना था कि भारतीय गेंहू की प्रजातियों में ही अनुसंधान किया जाएं और ऐसी प्रजातियों को ढूंढ़ा जाए जो अधिक उत्पादन दे सकें। इसके पीछे भारतीय कृषि वैज्ञानिकों का मत था कि भारतीय गेंहू की प्रजाति देसी होने की वजह से यहां के कीड़ों का मुकाबला कर सकती थीं, फिर उन्हें सात बार सिंचाई की जरूरत भी नहीं थी और न ही रासायनिक खादों की ही जरूरत थी। ये भारतीय कृषि वैज्ञानिक क्रॉस ब्रीडिंग की बजाय देसी गेंहू की प्रजातियों की पहचान करने और चयन की प्रक्रिया पर जोर दे रहे थे। इन्होंने तब गेंहू की कुछेक प्रजातियों को खोजा भी और अनुसंधान के दौरान इस बात की पुष्टि भी कराई कि भारत में ही गेंहू की कुछ प्रजातियां हैं जो अत्याधिक तो नहीं लेकिन अपेक्षाकृत अधिक फसल देने की क्षमता रखती थीं और यदि ऐसी प्रजातियों को प्रोत्साहित किया जाता तो देश खेतीबाड़ी के अन्य संकट से बचा होता।

हरित-क्रांति के दौर में ही भारत सरकार ने अपने देश में ही गेंहू की तर्ज पर ही कई अन्य फसलों की पैदावार बढ़ाने के लिए कृषि अनुसंधान को प्रोत्साहित किया और इसके लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद भी गठित की। लेकिन, यह संस्था गेंहू की प्रजाति की तरह धान आदि में भी ऐसी प्रजाति ढूंढ़ने लगी जो कृषि में इंटरनेशल बिजनेस मॉडल पर आधारित हो। कारण यह कि जो देसी किस्में खेती की लागत नहीं बढ़ा सकती हैं उनसे बाजार को लाभ नहीं होता। इसलिए ऐसी फसल की प्रजातियों को बढ़ावा दिया गया जो अधिक से अधिक और मंहगे कीटनाशक, रासायनिक खाद, पानी, बिजली और प्रौद्योगिकी मांगे जिससे खेती का धंधा फले-फूले।

spot_img

Related articles

Sundarbans Faces Climate Emergency as Study Finds Mangrove Loss and Long-Ignored Community Radio Need

A multidisciplinary study tour by Aliah University highlighted microplastic damage to mangroves, the urgent need for community radio, cultural insights including Arabic linguistic influence, and climate-driven challenges like species shift and soil loss. Researchers stressed mangrove restoration, resilient embankments and rainwater harvesting as essential adaptation measures.

Worst Loss in 93 Years: 408-Run Hammering Amplifies Demands for Gambhir and Agarkar’s Resignations

India’s 408-run loss to South Africa marks the heaviest Test defeat in its history, exposing deep flaws in selection and coaching. Constant chopping, favoritism, and neglect of proven performers have pushed the team into crisis. The humiliating whitewash has intensified calls for major leadership and structural changes.

The Taj Story: Why Myth-Led Cinema Is Harming Public Understanding of History

When a film chooses to revisit a contested piece of history, it steps into a fragile intellectual space...

Dharmendra Remembered: How Bollywood’s Most Human Superstar Became India’s Favourite Hero

Film star Dharmendra lived a full and complete life. He was unapologetically himself—a man with a golden heart...