Opinion

26 मार्च भारत बंद के बाद किसान आंदोलन

किसान आंदोलन के इस सौ दिनों से अधिक समय में उसने खुद को दिल्ली की सीमाओं से विभिन्न राज्यों की तरफ कूच किया है और उसके नेता टीवी स्टूडियो से बाहर निकलकर अब बंगाल और असम में चल रहे विधानसभा चुनावों में लगातार नुक्कड़ सभाएं और रैलियों में व्यस्त हैं। हालांकि, संयुक्त किसान मोर्चा विधानसभा चुनावों वाले राज्यों के अलावा भी कार्यक्रम कर रहे हैं जैसे कि राजस्थान, मध्यप्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक जैसे राज्यों में मोर्चा ने बड़ी संख्या में महापंचायतें की हैं। इससे यह जाहिर होता है कि किसान आंदोलन मई के पहले सप्ताह के बाद सरकार की पहल की बहुत अधिक अपेक्षा नहीं कर रहा है, बल्कि वह अपनी मांगों को लेकर इस सरकार के विरुद्ध एक लंबी और निर्णायक लड़ाई की तैयारी कर रहा है

पिछली 26 मार्च को किसान आंदोलन को चार महीने पूरे होने के मौके पर संयुक्त किसान मोर्चा के आह्वान पर पांच राज्यों में चल रहे विधानसभा चुनाव वाले राज्यों को छोड़कर शेष भारत के लिए बंद रखा गया था। पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर-प्रदेश के कई क्षेत्रों मे इसका व्यापक असर रहा। वहीं, खबरों के मुताबिक राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और ओड़िशा सहित कई राज्यों में भी इसका आंशिक असर देखा गया।

दरअसल, संयुक्त किसान मोर्चा के इस भारत बंद को मोर्चा द्वारा लगातार किए जा रहे विभिन्न कार्यक्रम, अभियान और महापंचायतों की ही एक अहम कड़ी के रुप में देखा जाना चाहिए। मोर्चा इस भारत बंद से कहीं-न-कहीं देश के आम लोगों को यह संदेश देना चाहता था कि किसान आंदोलन को चार महीने पूरे हो चुके हैं, इसके बावजूद कृषि कानूनों को रद्द करने और किसानों को उनकी उपज पर कानूनी गारंटी देने से जुड़ी मांगों को लेकर यह सरकार किसान नेताओं से बात भी नहीं करना चाहती है। मोर्चा द्वारा भारत बंद का निर्णय आंदोलन के फैलाव और अपनी शक्ति को आंकने की दृष्टि से भी एक महत्त्वपूर्ण कदम था।

भारत बंद और मोर्चा द्वारा इस तरह के तमाम आयोजन के पीछे एक खास बात यह नजर आ रही है कि इनमें पिछली 26 जनवरी को दिल्ली में आयोजित ट्रैक्टर रैली की तरह यह कोशिश नहीं की जा रही है कि आंदोलन को मीडिया कवरेज मिले, बल्कि उसके बाद जो कार्यक्रम हो रहे हैं उनमें दिल्ली के बाहर अन्य राज्यों के लोगों से जुड़ने और खासकर ज्यादा से ज्यादा किसानों को आंदोलन से जोड़ने के लिए उन्हें लामबंद करने पर अधिक जोर दिया जा रहा है। इसी कड़ी में उन्हें कृषि कानूनों से खेती-किसानी को होने वाले नुकसान और मोदी सरकार की किसानों के प्रति दिखाई जा रही संवेदनहीनता को लेकर जन संवाद साधे जा रहे हैं।

दूसरी तरफ, केंद्र की मोदी सरकार को भी किसान आंदोलन के विस्तार और उसके प्रभाव का अनुमान है और यही वजह है कि सरकार एक रणनीति के तहत भी किसान नेताओं से बात करने से बच रही है। इस रणनीति के तहत केंद्र की सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी सरकार से इतर संगठन के स्तर पर भी न सिर्फ किसान आंदोलन को अनदेखा करने की कोशिश कर रही है, बल्कि वह सीधे-सीधे इसके विरोध से भी बच रही है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को देखते हुए भाजपा सरकार और संगठन दोनों किसानों से बातचीत के लिए कोई पहल करती हुई भी नहीं दिख रही है कि कहीं-न-कहीं यह सरकार अपने आपको मजबूत दिखाना चाहती है और यह बताना चाहती है कि वह किसान आंदोलन की शक्ति के आगे झुक नहीं रही है। साथ ही वह इसे कुचलने के लिए सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग भी नहीं कर रही है। वजह यह है कि वह इन दोनों ही कदमों को लेकर सचेत है और इन्हें उठाने से पहले अपने राजनैतिक नुकसान के बारे में भी सोच रही है।

वहीं, केंद्र की सरकार द्वारा किसान आंदोलन और उसकी प्रमुख मांगों को लेकर गतिरोध बने होने से संयुक्त किसान मोर्चा को मोदी के कॉर्पोरेट हित में काम करने वाली छवि को अधिक से अधिक प्रचारित करने और उसका विरोध करने का अवसर भी मिला है। समय के इस लंबे अंतराल के दौरान किसान आंदोलन ने कॉर्पोरेट-हितैषी मोदी सरकार के विरोध में एक जमीन तैयार कर रही है। इसलिए संयुक्त किसान मोर्चा भारत बंद और इस तरह के तमाम आयोजनों के जरिए लगातार और बार-बार जनता के बीच यह चर्चा जारी रखना चाहती है कि असल में मोदी सरकार ने किस तरह इन तीन कानूनों से किसानों के साथ-साथ आम उपभोक्ताओं के विरोध में निर्णय लेते हुए कॉर्पोरेट को लाभ पहुंचाया है। वहीं, इस आंदोलन के कारण एक अन्य बात भी साफ हुई है कि मोदी सरकार का यह जिद्दी रवैया महज तीन कानूनों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह देश के लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध भी है।

ऐसी स्थिति में एक कयास यह भी लगाए जा रहे हैं कि केंद्र सरकार पांच राज्यों में चल रहे चुनावों के नतीजों का भी इंतजार कर रही है और संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं से बातचीत के पहले वह भी विभिन्न मुद्दों पर जनता के बीच अपनी सियासी हैसियत समझ लेना चाहती है। दूसरा, इस दौरान उसके पास एक बीच का रास्ता तो बना ही हुआ है कि वह किसान आंदोलन के प्रति नरम रुख रखने वाले पार्टी के बड़े नेताओं के जरिए यदि जरूरत पड़े तो किसानों के नेतृव्य से बातचीत कर सके। लेकिन, ऐसी स्थिति में भी यह तो स्पष्ट है कि सरकार की ओर से ऐसी कोई पहल यदि हुई भी तो मई के पहले सप्ताह के बाद ही हो सकती है।

तब तक किसान आंदोलन के पास भी एक ही रास्ता बचा हुआ है कि इस बीच के समय को भुनाते हुए अपना विस्तार और शक्ति में बढ़ोतरी करे और वह ऐसा करते हुए अपनी मांगों और अपने मुद्दों पर जनसमर्थन जुटाने की कोशिश कर भी रही है। यह भी एक वजह है कि किसान आंदोलन के इस सौ दिनों से अधिक समय में उसने खुद को दिल्ली की सीमाओं से विभिन्न राज्यों की तरफ कूच किया है और उसके नेता टीवी स्टूडियो से बाहर निकलकर अब बंगाल और असम में चल रहे विधानसभा चुनावों में लगातार नुक्कड़ सभाएं और रैलियों में व्यस्त हैं। हालांकि, संयुक्त किसान मोर्चा विधानसभा चुनावों वाले राज्यों के अलावा भी कार्यक्रम कर रहे हैं जैसे कि राजस्थान, मध्यप्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक जैसे राज्यों में मोर्चा ने बड़ी संख्या में महापंचायतें की हैं। इससे यह जाहिर होता है कि किसान आंदोलन मई के पहले सप्ताह के बाद सरकार की पहल की बहुत अधिक अपेक्षा नहीं कर रहा है, बल्कि वह अपनी मांगों को लेकर इस सरकार के विरुद्ध एक लंबी और निर्णायक लड़ाई की तैयारी कर रहा है, क्योंकि उसे इस सरकार का रवैया मालूम है और मोर्चा जानता है कि इस सरकार से अपनी मांगों को मनवाना आसान नहीं होगा।

जहां तक किसान आंदोलन की संभावनाओं पर बात की जाए तो इसके विस्तार की व्यापकता इस आधार पर भी तय हो सकती है कि मोर्चा के नेता आंदोलन की रचनात्मकता को किस सीमा तक बढ़ा सकते हैं। यह इतना व्यापक आंदोलन है कि इसे महज किसानों को उनकी उपज के उचित दाम तक सीमित नहीं रखा जा सकता है, बल्कि इसके बहाने खेती के मौजूदा संकट के बुनियादी पहलुओं को लेकर किसानों के बीच एक समझ बनाने और किसानों की आपसी सहभागिता से संकट से बाहर निकलने के उपायों की दिशा में भी बढ़ने की जरूरत है। कहने का मतलब यदि भारतीय खेती की एक समस्या छोटी जोतों का संकट है तो पंजाब व हरियाणा जैसे जिन राज्यों में आंदोलन का असर व्यापक है वहां आंदोलन के समानांतर सामूहिक खेती या फिर महिलाओं की बढ़ती भागीदारिता को देखते हुए बालिका शिक्षा से जुड़ी बातों पर पहल की जा सकती है।

ऐसा इसलिए कि हर बड़ा और लंबा आंदोलन संघर्ष के साथ रचनात्मकता की ओर भी बढ़ता है। कारण यह भी है कि कोई आंदोलन कितना भी बड़ा क्यों न हो जाए, लेकिन उसका भविष्य इस बात से तय होता है कि वह समाज में कितनी रचनात्मक संभावनाएं पैदा कर सका। प्रश्न यह भी है कि यदि मई के पहले सप्ताह के बाद भी यदि किसानों की मांगों को लेकर सरकार की तरफ से संवादहीनता की स्थिति बनी रहे और कोई हल निकलता हुआ न दिखे तो उसे अपनी रचनात्मकता को लेकर भी एक लंबी योजना बनानी चाहिए और वह सम्भवत: बना भी रही है। यही वजह है कि संयुक्त किसान मोर्चा जल्द ही खेतों की मिट्ठी को लेकर एक अभियान शुरू करने वाला है जिसके तहत दिल्ली सीमाओं पर स्थित धरना-स्थलों पर देश भर के खेतों से मिट्टी जमा की जाएगी।

अंत में इस बात को भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि बड़े और लंबे आंदोलन में कई बार कई ब्रेक होते हैं और रणनीति के स्तर पर फिर एक पड़ाव के बाद वह नए तेवरों के साथ लौटता है। ऐसा किसान आंदोलन में भी यदि हो तो हर पांच-दस दिनों में यह आंकलन करते रहना बेमानी होगी कि क्या किसान आंदोलन ठंडा होता या सिमटता हुआ दिख दे रहा है।

 

शिरीष खरे

शिरीष पिछले दो दशकों से भारतीय गांवों और हाशिये पर छूटे भारत की तस्वीर बयां कर रहे हैं, इन दिनों इनकी पुस्तक 'एक देश बारह दुनिया' चर्चा में है

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