महाराष्ट्र में लॉकडाउन बढ़ने से ट्रेनों में मामूली सामान बेचकर गुजारा करने वाले दृष्टिहीन विक्रेताओं की मुश्किलें और बढ़ी
कोरोना संकट और लॉकडाउन के कारण सबसे वंचित समूह के ये विक्रेता पिछले तीन सप्ताह से अधिक समय से खाली हाथ हैं। इसलिए, लंबे समय से आजीविका छिन से वे अब आर्थिक मोर्चे पर जिंदगी और मौत से जूझ रहे हैं
पुणे: लॉकडाउन के कारण रेल के डिब्बों, रेलमार्गों और प्लेटफार्मों पर पापड़, चिक्की व वेफर्स जैसे खाने-पीने के सामान के अलावा कई जरुरी चीजें बेचकर परिवार चलाने वाले छोटे विक्रेताओं को इन दिनों रोजीरोटी पर संकट का सामना करना पड़ रहा है।
ऐसे में महाराष्ट्र राज्य सरकार द्वारा लॉकडाउन की समय-सीमा 30 अप्रैल तक बढ़ा देने के कारण विशेषकर विकलांग और दृष्टिहीन विक्रेताओं के सामने रोजीरोटी का संकट अति गंभीर हो गया है।
वजह, इस श्रेणी के ज्यादातर विक्रेता अपनी आजीविका के लिए मुंबई से पुणे के बीच चलने वाली रेलों और मुंबई में लोकल सेवा पर निर्भर हैं। पिछले कई दिनों से लॉकडाउन के कारण लोकल ट्रेनें बंद रही हैं। इसलिए, इनकी रोजीरोटी छिन चुकी है।
ऐसे में गत शनिवार को राज्य के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे द्वारा 30 अप्रैल तक पूरे महाराष्ट्र में लॉकडाउन जारी रखने की घोषणा की गई है। इससे 30 अप्रैल तक रेलमार्ग भी बाधित रहेगा। इसका बहुत बुरा असर पुणे और मुंबई रेलमार्ग और मुंबई महानगर लोकल रेल सेवा से जुड़े समस्त विक्रेताओं पर पड़ेगा। इसमें भी विशेषकर विकलांग और दृष्टिहीन विक्रेताओं की मुश्किलें पहले से बहुत अधिक बढ़ गई हैं।
दरअसल, कोरोना संकट और लॉकडाउन के कारण सबसे वंचित समूह के ये विक्रेता पिछले तीन सप्ताह से अधिक समय से खाली हाथ हैं। इसलिए, लंबे समय से आजीविका छिन से वे अब आर्थिक मोर्चे पर जिंदगी और मौत से जूझ रहे हैं।
कोरोना संक्रमण के मामले में पूरे देश में महाराष्ट्र की स्थिति विकराल हो चुकी है। इसमें भी मुंबई और पुणे महानगर अति-संवेदनशील क्षेत्र घोषित हो चुके हैं। जिस समय मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र में लॉकडाउन की समय-सीमा बढ़ाने की घोषणा की उस समय तक राज्य में कोरोना के 1,600 से अधिक मरीज सामने आ चुके थे और 110 मरीजों की मौत हो चुकी थी। वहीं, मुंबई में मरीजों की संख्या एक हजार के पार हो चुकी है। दूसरे नंबर पर पुणे है, जहां यह ढाई सौ का आकड़ा पार कर चुका है। इसी तरह, कोरोना से होने वाली मौतों के मामले में भी राज्य के ये दो महानगर देश के अन्य शहरों की तुलना में आगे हैं।
ऐसे प्रभावित हो रहे विकलांग और दृष्टिहीन विक्रेता
दूसरी तरफ, राज्य में कोरोना संक्रमण से बचने के लिए लॉकडाउन की समय-सीमा बढ़ाए जाने का सबसे ज्यादा प्रभाव इन महानगरों में रहने वाले वंचित तबकों पर पड़ेगा। इनमें एक बड़ी आबादी ऐसी है जो अपनी रोजीरोटी के लिए लोकल ट्रेनों पर निर्भर है। इनमें 500 से ज्यादा विकलांग और दृष्टिहीन विक्रेता भी शामिल हैं।
हालांकि, कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए लॉकडाउन के कारण पिछले कई दिनों से देश भर ही ट्रेनें ही बंद हैं। लेकिन, खास तौर से मुंबई की लाइफ-लाइन कहीं जाने वाली लोकल बंद होने ने देश की आर्थिक राजधानी की सभी व्यवसायिक गतिविधियां बाधित हो गई हैं। यही हाल पुणे से मुंबई के बीच चलने वाली ट्रेनों को बंद करने के कारण भी दिखाई दे रहा है। यही वजह है कि मामूली सामान बेचकर अपने परिवार का भरण-पोषण करने वाले विक्रेता मदद के लिए राज्य सरकार और स्वयं-सहायता संगठनों की तरफ देख रहे हैं।
मुंबई से करीब 60 किलोमीटर दूर वांगनी गांव में बहुत सारे विकलांग और दृष्टिहीन विक्रेता रहते हैं। ये लोकल ट्रेनों में मोबाइल चार्जर, मोबाइल कवर, हैडफोन और पानी की बोतल आदि बेचकर अपनी आजीविका चलाते हैं।
क्या कहते हैं ये दृष्टिहीन विक्रेता
इनमें से एक हैं धीरज गिरी। दृष्टिहीन धीरज मूलत: गायक कलाकार हैं और लोक या फिल्मी धुनों पर आधारित गाने गाकर वे यात्रियों का मनोरंजन करते हैं। बदले में पैसे कमाकर अपना घर चलाते हैं।
धीरज बताते हैं, “मैं ग्यारह वर्ष से इसी तरह ट्रेनों में गा-गाकर गुजारा चला रहा हूं। आजकल सब ट्रेन बंद होने से मुश्किल खड़ी हो गई है। दाल रोटी के लाले पड़ गए हैं। और क्या कर सकते कि खाने लायक पैसे कमाए जा सकें? इस समय कोई कुछ काम बताए तो बड़ी मेहरबानी होगी।”
धीरज की तरह ही कई अन्य दृष्टिहीन या विकलांग कलाकार हैं जो गाने के अलावा रोजमर्रा का जरूरी सामान बेचकर प्रतिदिन 100 से 200 रूपए तक कमा लेते थे। लेकिन, कोरोना संकट के कारण लॉकडाउन ने उन्हें बेकार कर दिया है।
प्रश्न सिर्फ भोजन का नहीं
ट्रेन में सामान बेचने वाले पुणे निवासी एक अन्य विकलांग विक्रेता बाबाजी गायकवाड का कहना है कि ऐसे समय यदि कोई स्वयं सेवा संगठन या सरकार मदद करें तो उनके लिए जीना आसान हो जाएगा।
बाबाजी गायकवाड कहते हैं, “हमें अपनी मेहनत पर पूरा भरोसा रहा है। बुरी से बुरी हालत में भी हमने किसी के सामने हाथ नहीं फैलाए। न ही सरकार से कभी मदद ही मांगी। हम महीने में पांच से छह हजार रूपये तो कमा ही लेते थे। पर, अभी समझ नहीं आ रहा है कि ये दिन कब खत्म होंगे। इसलिए, हमें काम चाहिए।”
हालांकि, लोकल में सामान बेचने वाले इन विक्रेताओं के सामने यह संकट नया है और उन्होंने मेहनत मजदूरी वाले काम नहीं किए हैं। बावजूद इसके, वे कौशल आधारित काम मांग रहे हैं। पर, प्रश्न है कि लॉकडाउन में जब हर तरह के काम प्रभावित हैं तो इन्हें कौशल आधारित काम दे भी तो कौन और किस तरह का काम उपलब्ध कराए?
सामाजिक कार्यकर्ता और अधिकारी कर रहे मदद
वहीं, त्रिनेत फाउंडेशन की अध्यक्ष ताई पाटिल बताती हैं, “वांगनी गांव में ही कोई तीन सौ विकलांग और दृष्टिहीन व्यक्ति रहते हैं। ये खाने की कई चीजों को तैयार करके लोकल ट्रेन में बेचते हैं। लॉकडाउन के कारण उनके काम धंधे छिन गए हैं। इसलिए, उनके पास पैसे नहीं बचे हैं. इसलिए, फिलहाल हम उनके लिए भोजन की व्यवस्था कर रहे हैं।”
ठाणे कलेक्टर राजेश नार्वेकर का कहना है कि जिला परिषद के अधिकारी विकलांग व्यक्तियों के पास जाकर उन्हें खाने के पैकेट दे रहे हैं। उनके मुताबिक, “रेलवे परिसर के अलावा पूरे क्षेत्र में विशेषकर विकलांग, बुजुर्ग और असहाय व्यक्तियों के लिए भोजन का ध्यान रखा जा रहा है।”
इनके अलावा स्थानीय नागरिकों के समूह भी इन लोगों को भोजन देने के लिए आगे आए हैं। लेकिन, सभी को प्रतिदिन भोजन मिल रहा है, इसका कोई मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है।
वहीं, प्रश्न महज भोजन का नहीं है। दिन भर ट्रेनों में सामान बेचने के बाद ये विकलांग और दृष्टिहीन विक्रेता अपने परिवार के लिए दैनिक आवश्यकतों की चीजें भी खरीदते थे। ऐसे में जब लॉकडाउन की समय-सीमा बढ़ाई जा चुकी है तो इन लोगों के पास नकद राशि भी खत्म हो चुकी है। ऐसे में इस तबके की हालत बद से बदतर हो सकती है।
विकलांग और दृष्टिहीनों के लिए भी लोकल लाइफ-लाइन क्यों?
मुंबई लोकल विश्व की सर्वाधिक यात्री घनत्व वाली उपनगरीय रेल सेवा है। यह एशिया की प्राचीन रेल प्रणाली भी है। यह प्रणाली वर्ष 1853 से प्रारम्भ हुई थी। इसे मुंबई उपनगरीय रेल के नाम से भी जाना जाता है। इनका संचालन पश्चिम और मध्य रेल्वे द्वारा किया जाता है। इसके मार्ग की लंबाई 300 किलोमीटर से भी अधिक है। इसमें हर दिन हजारों की संख्या में यात्री यात्रा करते हैं। इसमें पुणे से लेकर दादर और छत्रपति शिवाजी टर्मिनल तक कई स्टेशन हैं।
इन्हीं स्टेशनों से बड़ी संख्या में मामूली सामान बेचने वाले विक्रेता भी चढ़ते और उतरते हैं और यात्री ग्राहकों को अपना सामान बेचते हैं। इनमें एक बड़ी संख्या विकलांग और दृष्टिहीनों की है। इस श्रेणी के विक्रेता पूरी तरह लोकल ट्रेन और उनमें आने-जाने वाली सवारियों पर निर्भर हैं। ये लंबे समय से इसी तरह रोजमर्रा का सामान बेचकर अपना गुजारा कर रहे हैं।
वर्तमान परिस्थितियों में न तो इन्हें अन्य कार्य करनी की आदत है और न ही अन्य कार्य करने का प्रशिक्षण ही हासिल है। दूसरा, सामाजिक रूप से भी इस श्रेणी के विक्रेता असंगठित हैं और सरकार से आर्थिक संकट से उबरने के लिए सही तरीके से अपनी मांग भी नहीं रख सकते हैं।