जाति जनगणना होगी बाबासाहेब को सच्ची श्रद्धांजलि

भाजपा इस मुद्दे से बचने का प्रयास कर रही है. जिस पार्टी की सरकार ने असम में एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिकता पंजी) के निर्माण के लिए कठिन, जटिल और जनता के लिए त्रासद कवायद की, उसी पार्टी की सरकार ने 2021 में सुप्रीम कोर्ट को बताया कि जाति-वार जनगणना करवाना "प्रशासनिक दृष्टि से कठिन और जटिल" होगा और इसलिए यह 'सोचा-समझा नीतिगत निर्णय' लिया गया है कि इस तरह की जानकारी को जनगणना में शामिल न किया जाए

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Ram Puniyani
Ram Puniyani
The former Professor, IIT Mumbai is a social activist and commentator

इस साल (2023) बाबासाहेब आंबेडकर की 132वीं जयंती पिछले वर्षों की तुलना में बहुत जोर-शोर से मनाई गई. बड़ी संख्या में विभिन्न संगठनों ने इसमें भागीदारी की. अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्गों, जिनके वे मसीहा हैं, के लिए यह एक बहुत बड़ा उत्सव था. आंबेडकर के योगदान को न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी स्वीकारा गया और 150 से अधिक देशों में कार्यक्रम आयोजित हुए.

जो व्यक्ति और समूह सामाजिक न्याय और समानता के प्रति प्रतिबद्ध हैं और जन्म-आधारित ऊंच-नीच और अन्याय के खिलाफ हैं उन्होंने अत्यंत श्रद्धा से आंबेडकर को याद किया और आशा व्यक्त की कि आने वाले समय में देश और दुनिया आंबेडकर के बताए रास्ते पर चलेगी. इस सन्दर्भ में यह भी ध्यान देने की बात है कि आंबेडकर जयंती मनाने के तरीके में धार्मिकता का रंग घुलता जा रहा है और उनके मूल्यों को याद करने की बजाय जोर औपचारिक समारोहों पर है. निश्चित रूप से बाबासाहेब के सपनों को पूरा करने के लिए अनवरत संघर्ष की ज़रुरत है.

दूसरी ओर अनेक ऐसे समूह व संगठन हैं जो उन सिद्धांतों व मूल्यों के एकदम खिलाफ हैं जिनके लिए आंबेडकर ने जीवन भर संघर्ष किया. जैसे ‘हिन्दू राष्ट्रवादी’ आरएसएस और उससे प्रेरित अन्य संगठन बाबासाहेब के एक मुख्य लक्ष्य ‘जाति के उन्मूलन’ के पूर्णतः विरूद्ध हैं. वे ‘जातियों के समन्वय’ की बात करते हैं. आंबेडकर समाज के वंचित वर्गों के हित में सकारात्मक कदम उठाए जाने के पक्ष में थे. शुरू में केवल 10 वर्षों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया था. संभवतः आंबेडकर को उम्मीद थी कि हिन्दू समाज में फैली द्वेष भावना को जड़ से समाप्त करने के लिए 10 वर्ष पर्याप्त होंगे. उन्होंने शायद इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं दिया कि नीतियों पर अमल उच्च जातियों के अभिजात वर्ग के माध्यम से होगा. उच्च जातियों के अभिजात वर्ग ने एससी/एसटी वर्ग के लिए आरक्षण की नीति के अमल में बाधाएं खड़ी कर दीं जिसके चलते आरक्षण आज भी जारी रखना पड़ रहा है. और सामाजिक न्याय की मंजिल की ओर आगे बढ़ने के लिए यह आवश्यक भी है.

संविधान, जिसका मसविदा उनकी अध्यक्षता में तैयार किया गया, में एससी व एसटी वर्ग के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया था किंतु अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) को छोड़ दिया गया. ओबीसी समाज का एक बड़ा हिस्सा हैं, जिसकी ओर लंबे समय तक समुचित ध्यान नहीं दिया गया. सन 1931 के बाद से किसी जनगणना में उनकी गिनती नहीं की गई. सन 1931 की जनगणना के अनुसार उस समय आबादी में ओबीसी का प्रतिशत 52 था. इसी आधार पर 1990 में इनके लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया. सकारात्मक कदमों के कुछ प्रावधान किए गए थे लेकिन उन पर ठीक से अमल मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद ही हो पाया.

आरक्षण समाज के कुछ वर्गों की आंख की किरकिरी है और उन्होंने ‘यूथ फॉर इक्वालिटी’ जैसे समूहों का गठन किया है जो आरक्षण के प्रावधान को समाप्त करने के पक्ष में हैं. यह कहा जाता रहा है कि आरक्षण का लाभ उठाकर ‘अयोग्य लोग’ नौकरी एवं शिक्षा के अवसर हासिल कर लेते हैं और जिनका इन पर हक होना चाहिए वे वंचित रह जाते हैं. इस सोच से दलितों और ओबीसी के बारे में पूर्वाग्रह जन्म लेते हैं और इन्हीं के चलते रोहित वेम्युला और दर्शन सोलंकी जैसे छात्रों को आत्महत्या करने पर विवश होना पड़ता है. यही पूर्वाग्रह 1980 के दशक में अहमदाबाद में भड़की दलित-विरोधी हिंसा और 1985 में गुजरात में ओबीसी-विरोधी हिंसक प्रदर्शनों की जड़ में थे.

भाजपा के हिन्दुत्ववादी नेतृत्व ने इन वर्गों में अपनी पैठ बनाने के लिए सोशल इंजीनियरिंग शुरू की और सामाजिक समरसता मंच जैसे संगठन स्थापित किए. इनसे भाजपा को चुनावों में भारी लाभ हुआ. यह इससे जाहिर है कि इन वर्गों के लिए आरक्षित चुनाव क्षेत्रों से बड़ी संख्या में भाजपा सांसद व विधायक निर्वाचित हुए हैं. आरएसएस के प्रचारकों और स्वयंसेवकों की एक बड़ी फौज लंबे समय से दलित और आदिवासी इलाकों में काम कर रही हैं. वे परोपकार के कामों के साथ-साथ, सोशल इंजीनियरिंग भी करते हैं और आदिवासियों का हिन्दुकरण भी.

हिन्दू दक्षिणपंथी, जाति प्रथा की बुराईयों के लिए आक्रान्ता मुस्लिम शासकों को दोषी बताते हैं. वे कहते हैं कि मुस्लिम शासन के पहले सभी जातियां बराबर थीं. भाजपा और उसके संगी-साथी आंबेडकर जयंती तो बहुत जोर-शोर से मनाते हैं परन्तु जाति जनगणना का विरोध करते हैं जबकि जाति जनगणना ही नीतियों में इस प्रकार के सुधारों की राह प्रशस्त कर सकती है जिनसे हाशियाकृत समुदायों को सच्चे अर्थों में लाभ हो.

इस पृष्ठभूमि में राहुल गाँधी का कर्नाटक के कोलार में दिया गया भाषण महत्वपूर्ण है. राहुल गाँधी ने जाति जनगणना की मांग का समर्थन किया और कहा कि हाशियाकृत समुदायों के हितार्थ उठाए गए सकारात्मक क़दमों का प्रभाव सरकार के उच्च स्तर पर दिखलाई नहीं पड़ रहा है. उदाहरण के लिए, भारत सरकार के सचिवों में से केवल सात प्रतिशत इन वर्गों से हैं. राहुल गाँधी ने यह मांग भी की कि यूपीए सरकार द्वारा 2011 में करवाई गई जाति गणना की रपट सार्वजनिक की जाये. “आंकड़ों से ही हमें पता चलेगा कि ओबीसी, दलितों और आदिवासियों को आबादी में उनके हिस्से के अनुपात में प्रतिनिधित्व मिल सका है या नहीं.”

भाजपा इस मुद्दे से बचने का प्रयास कर रही है. जिस पार्टी की सरकार ने असम में एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिकता पंजी) के निर्माण के लिए कठिन, जटिल और जनता के लिए त्रासद कवायद की, उसी पार्टी की सरकार ने 2021 में सुप्रीम कोर्ट को बताया कि जाति-वार जनगणना करवाना “प्रशासनिक दृष्टि से कठिन और जटिल” होगा और इसलिए यह ‘सोचा-समझा नीतिगत निर्णय’ लिया गया है कि इस तरह की जानकारी को जनगणना में शामिल न किया जाए.

जब महत्वपूर्ण और दूरगामी प्रभाव वाले निर्णय लेने का समय आता है तब सामाजिक न्याय के प्रति भाजपा के असली रुख का पर्दाफाश हो जाता है. आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर वर्गों (ईडब्लूएस) को आरक्षण देकर सरकार ने पहले ही आरक्षण के असली उद्देश्यों को पलीता लगा दिया है. अब आठ लाख रुपये प्रति वर्ष से कम आमदनी वाले परिवारों के सदस्य आरक्षण के लिए पात्र हो गए हैं. यह तब जबकि आर्थिक पिछड़ापन कभी भी आरक्षण की पात्रता का आधार नहीं रहा है. आरक्षण की संकल्पना ही जातिगत पिछड़ेपन से जुड़ी हुई है क्योंकि उनकी जाति के कारण कई वर्गों को सामान अवसर प्राप्त नहीं हो पाते.

अब आंबेडकर की जयंती पर लौटते हैं. यह साफ़ है कि भाजपा जैसे पार्टियों के लिए आंबेडकर के सिद्धांतों का कोई महत्व नहीं है. बल्कि हिन्दू राष्ट्रवादी राजनीति का उदय ही इसलिए हुआ था ताकि दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं को लगाम लगाई जा सके. इस राजनैतिक विचारधारा की नींव में ही प्राचीन परम्पराओं एवं मूल्यों का महिमामंडन है – उन परम्पराओं और मूल्यों का जो जातिगत और लैंगिक पदक्रम को औचित्यपूर्ण और दैवीय ठहरातीं हैं.

आज ज़रुरत इस बात की है कि विभिन्न हाशियाकृत समुदायों की आबादी का ठीक-ठीक अंदाज़ा लगाया जाए और सरकार की नीतियों में इस तरह के परिवर्तन किये जाएँ जिससे अवसरों की असमानता समाप्त हो और समाज में बराबरी आ सके. रोहित वेम्युला और दर्शन सोलंकी जैसे युवा विद्यार्थियों की आत्महत्या यह रेखांकित करती है कि हमें एससी,एसटी व् ओबीसी के बारे में व्याप्त पूर्वाग्रहों को समाप्त करना है और एक ऐसे समाज का निर्माण करना है जिसका अंतिम लक्ष्य जाति का उन्मूलन हो.  

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

Ram Puniyani
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इस साल (2023) बाबासाहेब आंबेडकर की 132वीं जयंती पिछले वर्षों की तुलना में बहुत जोर-शोर से मनाई गई. बड़ी संख्या में विभिन्न संगठनों ने इसमें भागीदारी की. अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्गों, जिनके वे मसीहा हैं, के लिए यह एक बहुत बड़ा उत्सव था. आंबेडकर के योगदान को न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी स्वीकारा गया और 150 से अधिक देशों में कार्यक्रम आयोजित हुए.

जो व्यक्ति और समूह सामाजिक न्याय और समानता के प्रति प्रतिबद्ध हैं और जन्म-आधारित ऊंच-नीच और अन्याय के खिलाफ हैं उन्होंने अत्यंत श्रद्धा से आंबेडकर को याद किया और आशा व्यक्त की कि आने वाले समय में देश और दुनिया आंबेडकर के बताए रास्ते पर चलेगी. इस सन्दर्भ में यह भी ध्यान देने की बात है कि आंबेडकर जयंती मनाने के तरीके में धार्मिकता का रंग घुलता जा रहा है और उनके मूल्यों को याद करने की बजाय जोर औपचारिक समारोहों पर है. निश्चित रूप से बाबासाहेब के सपनों को पूरा करने के लिए अनवरत संघर्ष की ज़रुरत है.

दूसरी ओर अनेक ऐसे समूह व संगठन हैं जो उन सिद्धांतों व मूल्यों के एकदम खिलाफ हैं जिनके लिए आंबेडकर ने जीवन भर संघर्ष किया. जैसे ‘हिन्दू राष्ट्रवादी’ आरएसएस और उससे प्रेरित अन्य संगठन बाबासाहेब के एक मुख्य लक्ष्य ‘जाति के उन्मूलन’ के पूर्णतः विरूद्ध हैं. वे ‘जातियों के समन्वय’ की बात करते हैं. आंबेडकर समाज के वंचित वर्गों के हित में सकारात्मक कदम उठाए जाने के पक्ष में थे. शुरू में केवल 10 वर्षों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया था. संभवतः आंबेडकर को उम्मीद थी कि हिन्दू समाज में फैली द्वेष भावना को जड़ से समाप्त करने के लिए 10 वर्ष पर्याप्त होंगे. उन्होंने शायद इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं दिया कि नीतियों पर अमल उच्च जातियों के अभिजात वर्ग के माध्यम से होगा. उच्च जातियों के अभिजात वर्ग ने एससी/एसटी वर्ग के लिए आरक्षण की नीति के अमल में बाधाएं खड़ी कर दीं जिसके चलते आरक्षण आज भी जारी रखना पड़ रहा है. और सामाजिक न्याय की मंजिल की ओर आगे बढ़ने के लिए यह आवश्यक भी है.

संविधान, जिसका मसविदा उनकी अध्यक्षता में तैयार किया गया, में एससी व एसटी वर्ग के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया था किंतु अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) को छोड़ दिया गया. ओबीसी समाज का एक बड़ा हिस्सा हैं, जिसकी ओर लंबे समय तक समुचित ध्यान नहीं दिया गया. सन 1931 के बाद से किसी जनगणना में उनकी गिनती नहीं की गई. सन 1931 की जनगणना के अनुसार उस समय आबादी में ओबीसी का प्रतिशत 52 था. इसी आधार पर 1990 में इनके लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया. सकारात्मक कदमों के कुछ प्रावधान किए गए थे लेकिन उन पर ठीक से अमल मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद ही हो पाया.

आरक्षण समाज के कुछ वर्गों की आंख की किरकिरी है और उन्होंने ‘यूथ फॉर इक्वालिटी’ जैसे समूहों का गठन किया है जो आरक्षण के प्रावधान को समाप्त करने के पक्ष में हैं. यह कहा जाता रहा है कि आरक्षण का लाभ उठाकर ‘अयोग्य लोग’ नौकरी एवं शिक्षा के अवसर हासिल कर लेते हैं और जिनका इन पर हक होना चाहिए वे वंचित रह जाते हैं. इस सोच से दलितों और ओबीसी के बारे में पूर्वाग्रह जन्म लेते हैं और इन्हीं के चलते रोहित वेम्युला और दर्शन सोलंकी जैसे छात्रों को आत्महत्या करने पर विवश होना पड़ता है. यही पूर्वाग्रह 1980 के दशक में अहमदाबाद में भड़की दलित-विरोधी हिंसा और 1985 में गुजरात में ओबीसी-विरोधी हिंसक प्रदर्शनों की जड़ में थे.

भाजपा के हिन्दुत्ववादी नेतृत्व ने इन वर्गों में अपनी पैठ बनाने के लिए सोशल इंजीनियरिंग शुरू की और सामाजिक समरसता मंच जैसे संगठन स्थापित किए. इनसे भाजपा को चुनावों में भारी लाभ हुआ. यह इससे जाहिर है कि इन वर्गों के लिए आरक्षित चुनाव क्षेत्रों से बड़ी संख्या में भाजपा सांसद व विधायक निर्वाचित हुए हैं. आरएसएस के प्रचारकों और स्वयंसेवकों की एक बड़ी फौज लंबे समय से दलित और आदिवासी इलाकों में काम कर रही हैं. वे परोपकार के कामों के साथ-साथ, सोशल इंजीनियरिंग भी करते हैं और आदिवासियों का हिन्दुकरण भी.

हिन्दू दक्षिणपंथी, जाति प्रथा की बुराईयों के लिए आक्रान्ता मुस्लिम शासकों को दोषी बताते हैं. वे कहते हैं कि मुस्लिम शासन के पहले सभी जातियां बराबर थीं. भाजपा और उसके संगी-साथी आंबेडकर जयंती तो बहुत जोर-शोर से मनाते हैं परन्तु जाति जनगणना का विरोध करते हैं जबकि जाति जनगणना ही नीतियों में इस प्रकार के सुधारों की राह प्रशस्त कर सकती है जिनसे हाशियाकृत समुदायों को सच्चे अर्थों में लाभ हो.

इस पृष्ठभूमि में राहुल गाँधी का कर्नाटक के कोलार में दिया गया भाषण महत्वपूर्ण है. राहुल गाँधी ने जाति जनगणना की मांग का समर्थन किया और कहा कि हाशियाकृत समुदायों के हितार्थ उठाए गए सकारात्मक क़दमों का प्रभाव सरकार के उच्च स्तर पर दिखलाई नहीं पड़ रहा है. उदाहरण के लिए, भारत सरकार के सचिवों में से केवल सात प्रतिशत इन वर्गों से हैं. राहुल गाँधी ने यह मांग भी की कि यूपीए सरकार द्वारा 2011 में करवाई गई जाति गणना की रपट सार्वजनिक की जाये. “आंकड़ों से ही हमें पता चलेगा कि ओबीसी, दलितों और आदिवासियों को आबादी में उनके हिस्से के अनुपात में प्रतिनिधित्व मिल सका है या नहीं.”

भाजपा इस मुद्दे से बचने का प्रयास कर रही है. जिस पार्टी की सरकार ने असम में एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिकता पंजी) के निर्माण के लिए कठिन, जटिल और जनता के लिए त्रासद कवायद की, उसी पार्टी की सरकार ने 2021 में सुप्रीम कोर्ट को बताया कि जाति-वार जनगणना करवाना “प्रशासनिक दृष्टि से कठिन और जटिल” होगा और इसलिए यह ‘सोचा-समझा नीतिगत निर्णय’ लिया गया है कि इस तरह की जानकारी को जनगणना में शामिल न किया जाए.

जब महत्वपूर्ण और दूरगामी प्रभाव वाले निर्णय लेने का समय आता है तब सामाजिक न्याय के प्रति भाजपा के असली रुख का पर्दाफाश हो जाता है. आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर वर्गों (ईडब्लूएस) को आरक्षण देकर सरकार ने पहले ही आरक्षण के असली उद्देश्यों को पलीता लगा दिया है. अब आठ लाख रुपये प्रति वर्ष से कम आमदनी वाले परिवारों के सदस्य आरक्षण के लिए पात्र हो गए हैं. यह तब जबकि आर्थिक पिछड़ापन कभी भी आरक्षण की पात्रता का आधार नहीं रहा है. आरक्षण की संकल्पना ही जातिगत पिछड़ेपन से जुड़ी हुई है क्योंकि उनकी जाति के कारण कई वर्गों को सामान अवसर प्राप्त नहीं हो पाते.

अब आंबेडकर की जयंती पर लौटते हैं. यह साफ़ है कि भाजपा जैसे पार्टियों के लिए आंबेडकर के सिद्धांतों का कोई महत्व नहीं है. बल्कि हिन्दू राष्ट्रवादी राजनीति का उदय ही इसलिए हुआ था ताकि दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं को लगाम लगाई जा सके. इस राजनैतिक विचारधारा की नींव में ही प्राचीन परम्पराओं एवं मूल्यों का महिमामंडन है – उन परम्पराओं और मूल्यों का जो जातिगत और लैंगिक पदक्रम को औचित्यपूर्ण और दैवीय ठहरातीं हैं.

आज ज़रुरत इस बात की है कि विभिन्न हाशियाकृत समुदायों की आबादी का ठीक-ठीक अंदाज़ा लगाया जाए और सरकार की नीतियों में इस तरह के परिवर्तन किये जाएँ जिससे अवसरों की असमानता समाप्त हो और समाज में बराबरी आ सके. रोहित वेम्युला और दर्शन सोलंकी जैसे युवा विद्यार्थियों की आत्महत्या यह रेखांकित करती है कि हमें एससी,एसटी व् ओबीसी के बारे में व्याप्त पूर्वाग्रहों को समाप्त करना है और एक ऐसे समाज का निर्माण करना है जिसका अंतिम लक्ष्य जाति का उन्मूलन हो.  

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इस साल (2023) बाबासाहेब आंबेडकर की 132वीं जयंती पिछले वर्षों की तुलना में बहुत जोर-शोर से मनाई गई. बड़ी संख्या में विभिन्न संगठनों ने इसमें भागीदारी की. अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्गों, जिनके वे मसीहा हैं, के लिए यह एक बहुत बड़ा उत्सव था. आंबेडकर के योगदान को न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी स्वीकारा गया और 150 से अधिक देशों में कार्यक्रम आयोजित हुए.

जो व्यक्ति और समूह सामाजिक न्याय और समानता के प्रति प्रतिबद्ध हैं और जन्म-आधारित ऊंच-नीच और अन्याय के खिलाफ हैं उन्होंने अत्यंत श्रद्धा से आंबेडकर को याद किया और आशा व्यक्त की कि आने वाले समय में देश और दुनिया आंबेडकर के बताए रास्ते पर चलेगी. इस सन्दर्भ में यह भी ध्यान देने की बात है कि आंबेडकर जयंती मनाने के तरीके में धार्मिकता का रंग घुलता जा रहा है और उनके मूल्यों को याद करने की बजाय जोर औपचारिक समारोहों पर है. निश्चित रूप से बाबासाहेब के सपनों को पूरा करने के लिए अनवरत संघर्ष की ज़रुरत है.

दूसरी ओर अनेक ऐसे समूह व संगठन हैं जो उन सिद्धांतों व मूल्यों के एकदम खिलाफ हैं जिनके लिए आंबेडकर ने जीवन भर संघर्ष किया. जैसे ‘हिन्दू राष्ट्रवादी’ आरएसएस और उससे प्रेरित अन्य संगठन बाबासाहेब के एक मुख्य लक्ष्य ‘जाति के उन्मूलन’ के पूर्णतः विरूद्ध हैं. वे ‘जातियों के समन्वय’ की बात करते हैं. आंबेडकर समाज के वंचित वर्गों के हित में सकारात्मक कदम उठाए जाने के पक्ष में थे. शुरू में केवल 10 वर्षों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया था. संभवतः आंबेडकर को उम्मीद थी कि हिन्दू समाज में फैली द्वेष भावना को जड़ से समाप्त करने के लिए 10 वर्ष पर्याप्त होंगे. उन्होंने शायद इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं दिया कि नीतियों पर अमल उच्च जातियों के अभिजात वर्ग के माध्यम से होगा. उच्च जातियों के अभिजात वर्ग ने एससी/एसटी वर्ग के लिए आरक्षण की नीति के अमल में बाधाएं खड़ी कर दीं जिसके चलते आरक्षण आज भी जारी रखना पड़ रहा है. और सामाजिक न्याय की मंजिल की ओर आगे बढ़ने के लिए यह आवश्यक भी है.

संविधान, जिसका मसविदा उनकी अध्यक्षता में तैयार किया गया, में एससी व एसटी वर्ग के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया था किंतु अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) को छोड़ दिया गया. ओबीसी समाज का एक बड़ा हिस्सा हैं, जिसकी ओर लंबे समय तक समुचित ध्यान नहीं दिया गया. सन 1931 के बाद से किसी जनगणना में उनकी गिनती नहीं की गई. सन 1931 की जनगणना के अनुसार उस समय आबादी में ओबीसी का प्रतिशत 52 था. इसी आधार पर 1990 में इनके लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया. सकारात्मक कदमों के कुछ प्रावधान किए गए थे लेकिन उन पर ठीक से अमल मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद ही हो पाया.

आरक्षण समाज के कुछ वर्गों की आंख की किरकिरी है और उन्होंने ‘यूथ फॉर इक्वालिटी’ जैसे समूहों का गठन किया है जो आरक्षण के प्रावधान को समाप्त करने के पक्ष में हैं. यह कहा जाता रहा है कि आरक्षण का लाभ उठाकर ‘अयोग्य लोग’ नौकरी एवं शिक्षा के अवसर हासिल कर लेते हैं और जिनका इन पर हक होना चाहिए वे वंचित रह जाते हैं. इस सोच से दलितों और ओबीसी के बारे में पूर्वाग्रह जन्म लेते हैं और इन्हीं के चलते रोहित वेम्युला और दर्शन सोलंकी जैसे छात्रों को आत्महत्या करने पर विवश होना पड़ता है. यही पूर्वाग्रह 1980 के दशक में अहमदाबाद में भड़की दलित-विरोधी हिंसा और 1985 में गुजरात में ओबीसी-विरोधी हिंसक प्रदर्शनों की जड़ में थे.

भाजपा के हिन्दुत्ववादी नेतृत्व ने इन वर्गों में अपनी पैठ बनाने के लिए सोशल इंजीनियरिंग शुरू की और सामाजिक समरसता मंच जैसे संगठन स्थापित किए. इनसे भाजपा को चुनावों में भारी लाभ हुआ. यह इससे जाहिर है कि इन वर्गों के लिए आरक्षित चुनाव क्षेत्रों से बड़ी संख्या में भाजपा सांसद व विधायक निर्वाचित हुए हैं. आरएसएस के प्रचारकों और स्वयंसेवकों की एक बड़ी फौज लंबे समय से दलित और आदिवासी इलाकों में काम कर रही हैं. वे परोपकार के कामों के साथ-साथ, सोशल इंजीनियरिंग भी करते हैं और आदिवासियों का हिन्दुकरण भी.

हिन्दू दक्षिणपंथी, जाति प्रथा की बुराईयों के लिए आक्रान्ता मुस्लिम शासकों को दोषी बताते हैं. वे कहते हैं कि मुस्लिम शासन के पहले सभी जातियां बराबर थीं. भाजपा और उसके संगी-साथी आंबेडकर जयंती तो बहुत जोर-शोर से मनाते हैं परन्तु जाति जनगणना का विरोध करते हैं जबकि जाति जनगणना ही नीतियों में इस प्रकार के सुधारों की राह प्रशस्त कर सकती है जिनसे हाशियाकृत समुदायों को सच्चे अर्थों में लाभ हो.

इस पृष्ठभूमि में राहुल गाँधी का कर्नाटक के कोलार में दिया गया भाषण महत्वपूर्ण है. राहुल गाँधी ने जाति जनगणना की मांग का समर्थन किया और कहा कि हाशियाकृत समुदायों के हितार्थ उठाए गए सकारात्मक क़दमों का प्रभाव सरकार के उच्च स्तर पर दिखलाई नहीं पड़ रहा है. उदाहरण के लिए, भारत सरकार के सचिवों में से केवल सात प्रतिशत इन वर्गों से हैं. राहुल गाँधी ने यह मांग भी की कि यूपीए सरकार द्वारा 2011 में करवाई गई जाति गणना की रपट सार्वजनिक की जाये. “आंकड़ों से ही हमें पता चलेगा कि ओबीसी, दलितों और आदिवासियों को आबादी में उनके हिस्से के अनुपात में प्रतिनिधित्व मिल सका है या नहीं.”

भाजपा इस मुद्दे से बचने का प्रयास कर रही है. जिस पार्टी की सरकार ने असम में एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिकता पंजी) के निर्माण के लिए कठिन, जटिल और जनता के लिए त्रासद कवायद की, उसी पार्टी की सरकार ने 2021 में सुप्रीम कोर्ट को बताया कि जाति-वार जनगणना करवाना “प्रशासनिक दृष्टि से कठिन और जटिल” होगा और इसलिए यह ‘सोचा-समझा नीतिगत निर्णय’ लिया गया है कि इस तरह की जानकारी को जनगणना में शामिल न किया जाए.

जब महत्वपूर्ण और दूरगामी प्रभाव वाले निर्णय लेने का समय आता है तब सामाजिक न्याय के प्रति भाजपा के असली रुख का पर्दाफाश हो जाता है. आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर वर्गों (ईडब्लूएस) को आरक्षण देकर सरकार ने पहले ही आरक्षण के असली उद्देश्यों को पलीता लगा दिया है. अब आठ लाख रुपये प्रति वर्ष से कम आमदनी वाले परिवारों के सदस्य आरक्षण के लिए पात्र हो गए हैं. यह तब जबकि आर्थिक पिछड़ापन कभी भी आरक्षण की पात्रता का आधार नहीं रहा है. आरक्षण की संकल्पना ही जातिगत पिछड़ेपन से जुड़ी हुई है क्योंकि उनकी जाति के कारण कई वर्गों को सामान अवसर प्राप्त नहीं हो पाते.

अब आंबेडकर की जयंती पर लौटते हैं. यह साफ़ है कि भाजपा जैसे पार्टियों के लिए आंबेडकर के सिद्धांतों का कोई महत्व नहीं है. बल्कि हिन्दू राष्ट्रवादी राजनीति का उदय ही इसलिए हुआ था ताकि दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं को लगाम लगाई जा सके. इस राजनैतिक विचारधारा की नींव में ही प्राचीन परम्पराओं एवं मूल्यों का महिमामंडन है – उन परम्पराओं और मूल्यों का जो जातिगत और लैंगिक पदक्रम को औचित्यपूर्ण और दैवीय ठहरातीं हैं.

आज ज़रुरत इस बात की है कि विभिन्न हाशियाकृत समुदायों की आबादी का ठीक-ठीक अंदाज़ा लगाया जाए और सरकार की नीतियों में इस तरह के परिवर्तन किये जाएँ जिससे अवसरों की असमानता समाप्त हो और समाज में बराबरी आ सके. रोहित वेम्युला और दर्शन सोलंकी जैसे युवा विद्यार्थियों की आत्महत्या यह रेखांकित करती है कि हमें एससी,एसटी व् ओबीसी के बारे में व्याप्त पूर्वाग्रहों को समाप्त करना है और एक ऐसे समाज का निर्माण करना है जिसका अंतिम लक्ष्य जाति का उन्मूलन हो.  

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

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