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LGBTQ के लिए सूरज ज्यादातर डूबा ही रहता है

चलो दरवाजा खोल दे: एलजीबीटी की दुनिया ना ही अनूठी है और न ही हम सभी से थोड़ी सी भी अलग है। यहाँ के रंग भी ठीक वैसे ही हैं जैसा की हम यहाँ इस वक़्त आस पास देख पा रहे है। मतलब की हमें जो रंग, सुगंध और स्वाद आता है, ठीक वैसा ही ये भी मेहसूस करते हैं

चहत्तर (75) बसंत देख चुके आजाद भारत में एलजीबीटी (LGBTQ) के लिए सूरज कई बार डूबा है। अगर बारीकी से LGBTQ और उनके समाज से संबंधो को अलग अलग रूपों में उजागर किया जाये तो समाज को गहरी सांस दबाकर खामोश पछतावे के पीछे छुपना पड़ेगा।

पर शायद ऐसा हर वक़्त नहीं रहा होगा। कम से कम से एक ऐसा वक़्त भी रहा होगा जब हम सभी के तरह LGBTQ भी समाज के बेहद करीब रहे होंगे। और इस बात का जिक्र भारतीय पौराणिक कथाओं, मिथक, रामायण, महाभारत आदि में आता रहा है, खासतौर से किन्नरों के बारे में।

रामायण के कुछ संस्करणों में लिखा है, जब राम अपने 14 वर्ष के वनवास के लिए अयोध्या छोड़ने लगे थे, तब अपने साथ आ रही प्रजा को उन्होंने वापस अयोध्या लौटने को कहा था। पर 14 साल के बनवास के बाद जब वो वापिस लौटे तो वो चौक गए, क्योकि, सरयू नदी के किनारे उन्होंने एक बस्ती देखि। करीब पहुंचने पर देखा कि यह तो किन्नरों की बस्ती है। और यह बस्ती उनके बनवास जाते ही अस्तित्व में आ गयी। सर्वविदित है कि भगवन श्री राम ने नदी किनारे सभी को अयोध्या लौट जाने को कहा, पर समुदाय के लिए बिना कुछ कहे ही बनवास पथ पर चल दिए। समुदाय ने निर्णय लिया की भगवान श्री राम के बनवास से वापिस आने तक वो यही इन्तजार करेंगे।

महाभारत में शकुनि की कथा को कौन नहीं जानता? यहाँ तक की अर्जुन के बारे में भी ये सर्वविदित है कि एक अप्सरा के श्राप के कारण उन्हें कुछ समय के अपना पौरुषत्व खोना पड़ा था। अर्जुन और उलुपि के पुत्र इरावन को किन्नरों के अराध्य देव माना जाता है। किवदन्ति है कि पांङवों को महाभारत विजय के लिये एक बलि की जरुरत थी। इरावन इसके लिये तैयार हो गया। पर बलि से पहले वह विवाह करना चाहता था। अतः कृष्ण ने मोहिनी नाम की नारी का रुप धारण कर इरावन से एक रात का विवाह रचाया था।

इसी तरह शिखंडी हिंदू महाकाव्य में एक किन्नर चरित्र है। जो पांचाल के राजा द्रुपद का पुत्र और पांचाली व धृष्टद्युम्न का भाई था। शिखंडी ने पांडवों के पक्ष में कुरुक्षेत्र युद्ध में हिस्सा लिया तथा भीष्म की मृत्यु का कारण बना।

इतिहास के मध्यकालीन समय में भी किन्नरों का जिक्र बार बार आता है। खासकर मुगलकालीन इतिहास में इस बात का जिक्र आता है कि किन्नरों का इस्तेमाल मुग़ल बादशाहों के बेगमों की सेवा में किया जाता था।

अंग्रेजी हुकूमत में किन्नरों का हाल

पर पिछले कुछ वर्षो का इतिहास कुछ और ही बयां करता है। ज्यादा पीछे झाँकने की जरूरत नहीं है, बात अगस्त 1852 की है।

उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले में भूरा नामक एक किन्नर (eunuch) रहता था। वो वैसे ही रहता था, जैसे की अधिकतर किन्नर हिन्दुतान के अन्य हिस्सों में किराये के मकान में सर और अपना शरीर छिपा छिपा कर रह रहे है। और इन अनजान शहरों में वो पेट के लिए वो सब करते है, जो वे करना नहीं चाहते है या ऐसा करना कभी बचपन में कभी नहीं सोचा।

भूरा दो शिष्यों और एक पुरुष प्रेमी के साथ रहती थी।

बताया जाता है कि हत्या से पहले उसने अपने प्रेमी को किसी और के लिए छोड़ दिया था। बस फिर क्या था उसके पुराने आशिक़ ने उसे बेरहमी से मार डाला।

इस कोल्ड ब्लडेड मर्डर में ब्रिटिश जजों को कुछ और ही नजर आया। हत्या के इस मामले में बोलते हुए जजों ने कहा की उसके पूर्व प्रेमी ने गुस्से में आकर उसकी हत्या कर दी थी। गुस्से में। ध्यान रखिये ब्रिटिश जजों ने अपनी टिपण्णी में गुस्से शब्द का इस्तेमाल किया। यहाँ मतलब साफ़ हो जाता है की समाज और लोगो के सामने भूरा को खलनायक (villain) बना दिया गया। उस भूरा को जिसे उसके माँ-बाप और अन्य परिवार के सदस्यों ने तिस्कार कर डाला। किशोरावस्था (teenage) में घर की चौखट से जिसे निकाल दिया गया हो।

lgbtq एलजीबीटी eunuch किन्नर transgenders भारत
साभार: indianexpress.com

बाद में मुकदमे के दौरान ब्रिटिश जजों ने किन्नरों को क्रॉस-ड्रेसर, भिखारी और अप्राकृतिक वेश्या तक बता डाला।

एक न्यायाधीश ने तो यह तक कह डाला कि यह समुदाय “opprobrium upon colonial rule’ अर्थात कोलोनियल सल्तनत के लिए अपमान की संज्ञा तक दे डाली।

एक अन्य ब्रिटिश जज ने दावा किया कि उनका अस्तित्व ब्रिटिश सरकार के लिए “तिरस्कार” से कम कुछ नहीं है।

मतलब जजों ने तो पूरा प्याज ही परिवार और समाज से जिल्लत झेल कर गुमनामी में जिंदगी जी रहे भूरा पर काट डाला। ऐसा इसलिए क्योकि की वो एक किन्नर था।

अब इसमें ब्रिटिश जजों की भी क्या गलती।

उन्होंने तो शायद वही बात कही जो भारत के हर मुहल्ले और चौराहे में नजर आ जाती है। क्योकि हिन्दुस्तान के हर गली और मोहल्ले में किन्नर (eunuch/transgenders) से छेड़ छाड़, गाली, गंदे कमैंट्स और आम लोगो द्वारा पिटाई का नजारा बहुत ही आम है।

और जो बेचारे इन नजारो को गली, मोहल्ले में देखने और सुनने में चूक जाते है, उन्हें इन नजारो से मुखातिब होने का मौका बस स्टैंड, स्टेशन, कार पार्किंग में जरूर मिल ही जाता है। अगर यहाँ से भी कोई चूक जाये तो जीव आत्मा इसकी भरपाई कहानियाँ और किस्से बनाकर पूरा कर डालते है।

आज़ाद भारत में किन्नर

कहना का मतलब है यह है की आजाद हिंदुस्तान में लैंगिक पहचान की चुनौती पर खुल कर ज्यादा बातचीत नहीं हो पायी। हम आजाद तो हो गए, पर आज भी lgbtq उसी हाल में है जैसे वे 1852 में रहे होंगे। इसका प्रमाण है लगभग दो महीने पुराना एक घटनाक्रम।

इस चौकाने वाले घटना में, इस बार ब्रिटिश जजों की जगह शायद हमारे पत्रकार भाइयों ने ले ली। इंदौर से लेकर दिल्ली तक हमारे साथियो ने उनको गुनहगार बना डाला। देखा जाये तो इसमें उनका कोई कसूर भी नहीं है। उन्हें तो जैसा बताया जायेगा वैसे ही लाइन लिखी जाएगी।

मतलब- जैसा पुलिस बताएगी वैसी ही लाइन तो लिखी जाएगी।

ठीक ब्रिटिश जजों की तरह इंदौर पुलिस ने बताया कि 22 वर्षीय आरोपि का कुछ समय पूर्व transgender जोया से इंटरनेट मीडिया पर दोस्ती हुई। दोनों वाट्सएप पर लगातार चेटिंग करते थे।

घर में जब उसकी बीबी और घर वाले नहीं थे तो उसने किन्नर को काल कर घर बुलाया।

यहाँ गौर करने वाली बात है। आरोपी को किन्नर ने घर बुलाया. ऐसा में नहीं पुलिस खुद कह रही है।

दोनों ने करीब आधा घंटा साथ बिताया लेकिन बाद में आरोपी के साथ किन्नर ने संबंध बनाने से मना कर दिया।

यहाँ गौर करने वाली बात है। आरोपी के साथ किन्नर ने सम्बन्ध बनाने से मना कर दिया। यहाँ यह बात में नहीं, पुलिस खुद कह रही है।

पुलिस आगे कहती है- दोनों में मारपीट शुरु हो गई और आरोपी ने टावेल से घला घोंट कर किन्नर को मार डाला।

उसके बाद शव के दो टुकड़े और वगैरह वगैरह कर डाला।

मतलब गलती किन्नर की रही।

मतलब बिना किंन्नर के साथियो से बात किये ही साबित हो गया की गलती किसकी है।

ऐसा भी तो हो सकता है की किन्नर ने अपने आशिक को कहा हो की समाज इस रिश्ते को accept नहीं करने देगा और न ही उन्हें एक्सेप्ट करेगा।

या किन्नर ने आरोपी को यह कहा हो कि ये शायद यह दोनों के लिए बेहतर होगा की वो अपने परिवार का ही साथ दे और उनके साथ रहे। और किन्नर प्यार व्यार भूल अपनी ज़िन्दगी शांति से जी ले तो वही उसके लिए काफी होगा।

पूरा वाक़्या पढ़ने से समझ आता है कि, किन्नरों के मामले में आजाद हिंदुस्तान की पुलिस काफी हद तक ब्रिटिश जजों की तरह ही वयवहार करती है।

ठीक ब्रिटिश जजों की तरह हमारी पुलिस को भी इस समुदाय के लोग इंसान जैसे नजर ही नहीं आते।

1852 और 2022 में, यानि कि 170 साल में फर्क बस इतना सा है की, तब जो बात जजों ने छाती ठोक कर कही थी, अब वो बात हमारी पुलिस भी छाती ठोक कर ही कह रही है।

यहाँ बात ब्रिटिश जज की हो या आजाद मुल्क की, LGBTQ के साथ कुछ भी नहीं बदला है। मतलब LGBTQ +  के लिए सूरज ज्यादातर वक़्त डूबा ही रहता है।

lgbtq एलजीबीटी eunuch किन्नर transgenders
साभार: theweek.in

लॉकडाउन ज्यादा मुसीबत लेकर आई

हमें ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं। कोरोनो वायरस महामारी का समय LGBTQ + के लिए शायद सबसे दर्दनाक रहा। लॉकडाउन (lockdown) के दौरान जब छत्तरपुर- टीकमगढ़ ट्रांसजेंडर्स जरूरतमंदो के घर घर जाकर खाना बाटने का काम कर रहे थे, तब देश के अन्य भागो में उनसे घृणा अपराध, भेदभाव, हिंसा और आत्महत्या की घटनाएं भी जमकर इजाफा आया।

lockdown के दौरान एक किन्नर ने मुंबई के मुलुंड (Mulund) में आत्महत्या कर ली क्योंकि उसके पास खाने-पीने और दवाई के लिए पैसे नहीं थे।

असम में दो युवा जो की आपस में प्यार करते थे। दोनों ने आत्महत्या कर ली। आप समझ ही सकते है की इसके पीछे क्या वजह रही होगी।

lockdown के बीच ही नैनीताल पुलिस को उस समय पसीना आ गया जब एक 16 वर्षीय लड़के ने बाल कल्याण समिति (CWC) को पत्र लिखकर दावा किया कि वह समलैंगिक है फिर भी उसके पिता ने उसे 16 वर्षीय लड़की से शादी करने के लिए मजबूर कर रहे है।

सबसे ज्यादा डरावनी कहानी मध्य प्रदेश के जबलपुर के पास के एक शहर से आई। शहर में दो युवा प्रेमी प्यार करते थे और एक छोटे से किराये के कमरे में रहते थे। lockdown लगते ही दोनों को घर वापिस आना पड़ा। अपने अपने परिवार में कुछ दिन बिताने के बाद, दोनों ने अपने बीच स्थापित हो चुके रिश्ते के बारे में परिवार वालो को बता डाला।
बस फिर क्या था, दोनों परिवार के सदस्यों में दोनों युवाओ के प्रति घृणा के भाव दिखाई देने लगे और इस सम्बन्ध को अस्वीकार कर दिया गया।

यहाँ तक तो बात फिर भी ठीक थी।

इस बीच दोनों युवा में से एक संपन्न परिवार ने अपने रसूख के चलते अपने बेटे के द्वारा दुसरे साथी के खिलाफ मामला दर्ज करने का दबाव बनाया। पीड़िता को जब कुछ दिन बाद पता चला कि उसकी शिकायत पर उसके साथी को जेल भेज दिया गया है, तो उसने अपने प्यार को बदनाम नहीं होने दिया। और उसने आत्महत्या कर ली।

बात पिछले महीने की है। कालाहांडी जिले में कथित तौर पर पत्नी की सहमति से एक ट्रांसजेंडर की एक विवाहित व्यक्ति से ‘शादी’ चर्चा का विषय आज तक बनी हुई है।

खबरों के हिसाब से नरला प्रखंड के धुरकुटी गांव की ट्रांसजेंडर संगीता ने भवानीपटना प्रखंड के देयपुर निवासी फकीरा नियाल (30) से शादी की।

फकीरा, एक दिहाड़ी मजदूर है और कुनी से उसकी शादी को पांच साल हो चुके हैं। शादी से दोनों को एक तीन साल का एक बेटा भी है।

स्थानीय लोगों का कहना है कि कुछ समय पहले फकीरा संगीता के संपर्क में आया और दोनों ने शादी करने का फैसला किया।

हालाँकि, परिवार इस शादी को लेकर स्वीकृति नहीं दी थी, पर फकीरा का कहना था जब उसने अपनी पत्नी से संगीता के लिए अपने प्यार का खुलासा किया, तो उसने कथित तौर पर अपनी सहमति दे दी।

पत्नी की सहमति के बाद नरला में ट्रांसजेंडर समुदाय द्वारा बोहुचोरी मंदिर में ‘शादी’ आयोजित की गई। अब संगीता, फकीरा उसकी पत्नी एक घर में रहने लगे है. संगीता की शादी को लेकर फकीरा के परिवार के सदस्यों ने स्वीकृति भी दी है। फकीरा उसकी पत्नी कुनि, ट्रांसजेंडर संगीता, बेटा और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ खुश है।

पर इस बीच समाज ने उनसे पूछना शुरू कर दिया है कि कानूनी रूप में दूसरी ‘शादी’ योग्य नहीं मानी जाती है तब तक जब तक पहली कानूनी रूप से जारी है। लगता है अयोग्य और योग्य, कानूनी और गैरकानूनी के बीच जल्द ही चार सदस्यों और उनके परिवार के सदस्यों और ट्रांसजेंडर समुदाय की जिंदगी उलझ कर रहने जा रही है।

संविधान की नज़र में

हमारे संविधान में आम नागरिकों के मौलिक अधिकार को बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। “संविधान की रचना के लिए बनाई गई संविधान सभा में मौलिक अधिकार समिति बनाई गई। जिसकी पहली रिपोर्ट सरदार वल्लभ भाई पटेल ने 29 अप्रेल 1947 की। संविधान सभा के लिए मौलिक अधिकार बहुत महत्वपूर्ण थे। सभा यह मानती थी कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद की अवस्था में भारतीयों के सभी मौलिक अधिकारों का ही तो उल्लंघन हुआ था,” लिखते है विकास संवाद से जुड़े सचिन कुमार जैन अपनी किताब ‘संविधान और हम’ में।

सचिन जैन अपनी किताब में आम लोगो के मौलिक अधिकार को विस्तार से समझाते हुए लिखते है, “संविधान में दिए गए मूल अधिकारों का मतलब है किसी भी व्यक्ति को गरिमाय जीवन जीने के लिए जरूरी संरक्षण और अधिकार मिलना, राज्य की जिम्मेदारी है कि मूल अधिकारों को सुनिश्चित करे, इसे पूरा करने में राज्य पीछे नहीं हट सकता। लोगो के मूल अधिकारों को उपलब्ध करवाने के लिए राज्य बाध्य है।”

“यदि किसी व्यक्ति के मूल अधिकारों का हनन होता है, तो वह न्यायलय की शरण ले सकता है। जहाँ न्यायपालिका सरकार को आदेशित कर सकती है कि वह अनिवार्य रूप से व्यक्ति के मूल अधिकारों का संरक्षण  करे,” कहती है किताब ‘संविधान और हम।’

पर क्या LGBTQ भारत के नागरिक नहीं है? क्या भारतीय सरकार की इनके प्रति कोई कोई जवाबदेही नहीं बनती? क्या LGBTQ को सामाजिक स्वीकार्यता की लड़ाई के लिए माननीय न्यायालयों के जाने के अलावा कोई और विकल्प का रास्ता है हीं नहीं? और कितने बरस लगेंगे जब समाज छाती के ऊपर, गले के आसपास से इंसान को देख भड़भड़ाना छोड़ देगा।

इस बात को शायद दावे के साथ कहा जा सकता है कि LGBTQ + की दुनिया ना ही अनूठी है और न ही हम सभी से थोड़ी सी भी अलग है। यहाँ के रंग भी ठीक वैसे ही हैं जैसा की हम यहाँ इस वक़्त आस पास देख पा रहे है। मतलब की हमें जो रंग, सुगंध और स्वाद आता है, ठीक वैसा ही ये भी मेहसूस करते हैं और उनके प्रति आभार व्यक्त करते है।

अगर सभी बातों और भावों में समानता है तो फिर समाज का उनके प्रति ऐसा तिस्कार भाव क्यों? आखिर ऐसा क्यों की समाज में LGBTQ के लिए उनकी लैंगिक पहचान उन्ही के लिए सुबह-शाम एक चुनौती बनी हुई है?

 

अनूप दत्ता विकास संवाद परिषद में फेलो पत्रकार है।

Anup Dutta

is a multimedia freelance journalist based in Bhopal. He reports on people, politics, policies, health, art and culture.

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