आदिवासी समाज के आंखों का खुलना ज़रूरी है

Date:

Share post:

[dropcap]य[/dropcap]ह दो संस्कृतियों की लंबी लड़ाई है। एक संस्कृति जो पूरे इतिहास में मानवता के खिला़फ रही है, प्रकृति के खिला़फ रही है, आदिवासियों का संघर्ष उसी संस्कृति से है। मौजूदा CAA-NRC-NPR के संघर्ष के दौरान भी संस्कृतियों का यह संघर्ष काम कर रहा है। इस दौरान देखना चाहिए कि आदमी जब कपड़ों से ही पहचाना जा रहा है तब शेष मनुष्य जो कपड़े पहनते हैं, क्या उनके कपड़ों की भी पहचान नहीं की जाएगी? इस पूरे संघर्ष में आदिवासियों को बाकियों के साथ खड़े होने से अलग रखने की कोशिश होती रही। और दूसरी ओर यह भी घोषणा कर दी गई कि वे हिन्दू हैं। इसलिए उन्हें सवाल नहीं करना चाहिए। ये कानून उनके हित में हैं। और पूरे संघर्ष को हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष में बदल दिया गया।

सवाल तो यह उठता है कि आदिवासी हिन्दू कैसे हैं? इसे सिर्फ़ भारत ही नहीं पूरी दुनिया के संदर्भ में समझना चाहिए।

इस देश में लगभग 12 करोड़ आदिवासी हैं। उन्हें आदिवासी कहे जाने, माने जाने और उनका हक उन्हें दिए जाने से उसी संस्कृति ने लगातार इंकार किया है, जो उन्हें अपना हिस्सा बताती है। और उसी संस्कृति के खिला़फ आदिवासी, अनवरत एक लड़ाई लड़ रहे हैं। वे ठीक वैसी ही लड़ाई लड़ रहे हैं, जैसी लड़ाई ब्राज़ील में अमेज़न के नेटिव आदिवासी लड़ रहे हैं। जैसे दुनिया के बाकी हिस्सों के आदिवासियों ने लड़ा है और आज भी लड़ रहे हैं।

भारत के आदिवासियों की संस्कृति दुनिया के बाकी देशों के आदिवासियों से क्यों मिलती हैं? अगर वे हिन्दू हैं तब दुनिया के बाकी देशों के आदिवासियों पर भी इस धर्म को अपना दावा ठोकना चाहिए। पर उनकी संस्कृति उन आदिवासियों की संस्कृति से मेल नहीं खाती। इसके उलट उन अमेरिकियों, उन आस्ट्रेलियाई और उन लोगों की संस्कृति से मेल खाती है जिन्होंने वहां के लाखों लोगों की हत्याएं की हैं, वहां के मूल लोगों की ज़मीन छीनी हैं, उनका धर्म बदल दिया है, नए तरीके से इतिहास लिख दिया है। और उनका यह प्रयास आज भी जारी है। एक संस्कृति जो जबरन अपना धर्म, अपनी जीवन शैली उनपर थोपना चाहती है, उसी संस्कृति के खिला़फ वे लड़ रहे हैं। उसी संस्कृति के खिला़फ भारत के आदिवासी भी लड़ रहे हैं।

प्रकृति से जुड़े आदिवासी जब भी लड़े हैं, चाहे वे दुनिया के किसी भी कोने में हों, किसी भी जंगल में हों, किसी भी पहाड़ पर हों, उन्होंने सबके हिस्से की हवा, पानी, धरती पर विविधता के बचे रहने की लड़ाई भी अनायास लड़ी है। वे धरती को जंगल की तरह देखना चाहते हैं, जहां हर फूल, हर पेड़, हर चीज़ अपनी अलग पहचान के साथ, प्रकृति की व्यापकता का हिस्सा बनी रहे। वे समुद्र सा समाज होना नहीं चाहते, जहां नदियों की पहचान ख़त्म हो जाती है, जहां सभ्यताएं जन्म नहीं ले पाती, जहां नदी, लोगों की प्यास बुझाने और उनको जीवन देने की ताक़त खो देती है।

अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और बाकी देशों की तथाकथित मुख्य धारा की संस्कृति का रक्तरंजित इतिहास लगभग चार सौ साल पुराना है इसलिए इतिहास ताज़ा है। उन्हें स्वीकारना पड़ता है कि उनका इतिहास मूल लोगों की हत्या से रक्त रंजीत है। इसलिए “लैंड एक्नॉलेजमेंट” जैसे पहल वहां मौजूद हैं। भारत में वही इतिहास ज्यादा पुराना है इसलिए पूरा इतिहास ही अपने हिसाब से रच दिया गया है। मूल संस्कृति से चीजें उठाकर शास्त्र गढ़ दिए गए हैं। लेकिन जिंदा इतिहास, जो शास्त्रों और किताबों के बाहर है, जो अभी भी सांस ले रहा है, वह उस सदी से इस सदी तक किताब से बाहर जीवित है। उसके सवाल आज भी जीवित हैं और लोग उन सवालों के साथ लड़ रहे हैं।

गौर करने वाली बात यह भी है कि तथाकथित सभ्य समाज की संस्कृति ने लोक जीवन की संस्कृतियों से देवी, देवता, कुछ अच्छी बातें चुराकर शास्त्र तो गढ़ लिए लेकिन उनकी मूल जीवन शैली लूटने की, बेईमानी की, दगाबाजी की कभी गई नहीं।

यह भी समझना चाहिए कि किसी एक धर्म की स्थापना का संघर्ष हमेशा मनुष्य और मानवता के खिला़फ ही रहा है क्योंकि धर्म, मनुष्य होने से रोकता है। वह मनुष्य होने का नाटक करना सिखाता है। इतिहास में संगठित धर्मों ने कपड़ों और पहचान के लिए मनुष्यों की हत्या की है। यह जब भी शुरू होगा, जिस भी देश में भी शुरू होगा, हर बार मनुष्यों की हत्या से ही शुरू होगा।

प्रकृति से जुड़े आदिवासी जब भी लड़े हैं, चाहे वे दुनिया के किसी भी कोने में हों, किसी भी जंगल में हों, किसी भी पहाड़ पर हों, उन्होंने सबके हिस्से की हवा, पानी, धरती पर विविधता के बचे रहने की लड़ाई भी अनायास लड़ी है। वे धरती को जंगल की तरह देखना चाहते हैं, जहां हर फूल, हर पेड़, हर चीज़ अपनी अलग पहचान के साथ, प्रकृति की व्यापकता का हिस्सा बनी रहे। वे समुद्र सा समाज होना नहीं चाहते, जहां नदियों की पहचान ख़त्म हो जाती है, जहां सभ्यताएं जन्म नहीं ले पाती, जहां नदी, लोगों की प्यास बुझाने और उनको जीवन देने की ताक़त खो देती है।

आज़ादी के बाद भी इस देश में आदिवासी इलाकों को विश्वविद्यालय के बदले पागलखाने मिले। उन्हें संग्रहालय दिए जाएंगे, बिरसा मुंडा की विशाल प्रतिमा दी जाएगी, विश्वविद्यालय नहीं दिए जाएंगे। विकास के नाम पर जहां भी उनकी आबादी उठाकर फेंक दी गई हैं, वे पुराने डिटेंशन सेंटर की तरह हैं। अब देश के कई आदिवासी हिस्सों में जब नए तरीके के डिटेंशन सेंटर की तैयारियां हो रहीं, तब CAA-NRC-NPR को लेकर आदिवासी इलाकों की आंखें खुल रही हैं। देर से ही सही, पर आपकी आंखों का खुलना जरूरी है…

1 COMMENT

Comments are closed.

spot_img

Related articles

“Bring Her Home”: SC Orders Return of Pregnant Sunali Khatun ‘Dumped’ Across Bangladesh Border

Delhi/Kolkata: After months of uncertainty and anguish, a ray of hope broke through on December 3, when the...

Unregulated Access, Unchecked Power: The Hidden Dangers of India’s Mandatory Sanchar Saathi App

Delhi: The Government of India’s directive requiring the preinstallation of the Sanchar Saathi application on all smartphones marks...

होमबाउंड: दलित–मुस्लिम पहचान पर नए भारत की सियासत का कड़वा सच

फिल्म ‘मसान’ से चर्चित हुए निर्देशक नीरज घायवान की फिल्म ‘होमबाउंड’ बॉलीबुड के फिल्मी पैटर्न को तोड़ती हुई...

Indian Team Discovers 53 Giant Radio Quasars, Some 50 Times Bigger Than the Milky Way

Four Indian astronomers from West Bengal have discovered 53 giant radio quasars, each with jets millions of light-years long. Using TGSS data, the team identified rare, massive structures that reveal how black holes grow, how jets evolve, and how the early universe shaped asymmetric cosmic environments.