Opinion

सोशल मीडिया का नियमन जरूरी

र्तमान दौर में सोशल मीडिया एक बड़ी चिंता का विषय बन चुका है। इंटरनेट और मोबाइल आधारित सोशल मीडिया ने जनसंचार के नियमों को गहरे प्रभावित किया है। इसने दुनिया भर में सामाजिक राजनीतिक जीवन पर गहरा असर छोड़ा है।

इक्कीसवीं सदी ने नागरिकों को अभिव्यक्ति के नए-नए प्लेटफॉर्म दिए हैं। फेसबुक, टि्वटर, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम, टेलीग्राम इत्यादि ने हर व्यक्ति को अपनी बात खुलकर कहने का अवसर दिया। इसकी पहुँच भी विश्वव्यापी हो गई। इस लिहाज से सोशल मीडिया ने एक व्यक्ति के तौर पर नागरिकों को सशक्त बनाया है।

यही वजह है कि प्रारंभ में सोशल मीडिया को काफी सकारात्मक तौर पर देखा गया। बड़ी संख्या में सामान्य लोगों ने ऐसे मंच पर खुलकर लिखते हुए अपनी प्रतिभा को निखारा। ऐसे मंच न होते, तो बड़ी संख्या में ऐसे लोगों की लेखन क्षमता का पता ही नहीं चल पाता।

सोशल मीडिया का नकारात्मक पक्ष ज्यादा प्रभावी होता जा रहा है। झूठ, अफवाह, नफरत और गलत धारणाओं को स्थापित करने वाले सामग्री की भरमार हो गई। ट्रोल नामक एक नई प्रजाति का उदय हुआ है, जो दूसरों को गालियां और धमकियां दे। इसके कारण गंभीर लोगों ने सोशल मीडिया से दूरी बनाना शुरू कर दिया है।

सोशल मीडिया का अर्थ है सामाजिक व्यक्तियों के परस्पर संवाद का माध्यम। यह इसी रूप में सीमित रहता, तो संकट ना आता। मुसीबत तब शुरू हुई जब राजनीतिक दलों ने इसे अपने प्रचार का हथियार बनाना शुरू किया। भारत ही नहीं, दुनिया भर में खतरनाक प्रवृत्ति उभरी। राजनीतिक दलों ने आईटी सेल बना लिए। इनमें बड़ी संख्या में गुप्त लोगों की भर्ती की गई। फर्जी अकाउंट बनाकर विरोधी पक्ष के खिलाफ झूठ और नफरत फैलाने का धंधा शुरू हुआ।

लेकिन झूठ और नफरत फैलाने वाले सारे लोग बिके हुए नहीं हैं। बड़ी संख्या में ऐसे स्वतंत्र लोग भी हैं, जो किसी विचार से प्रेरित हैं। ऐसे लोग स्वप्रेरणा से सोशल मीडिया में सक्रिय हैं।

सोशल मीडिया का नकारात्मक पक्ष ज्यादा प्रभावी होता जा रहा है। झूठ, अफवाह, नफरत और गलत धारणाओं को स्थापित करने वाले सामग्री की भरमार हो गई। ट्रोल नामक एक नई प्रजाति का उदय हुआ है, जो दूसरों को गालियां और धमकियां दे। इसके कारण गंभीर लोगों ने सोशल मीडिया से दूरी बनाना शुरू कर दिया है।

इसीलिए, अब सोशल मीडिया का नियमन जरूरी है। मद्रास हाईकोर्ट में दो जनहित याचिकाओं में फेसबुक अकाउंट्स को आधार से जोड़ने की मांग की गई है। मध्यप्रदेश तथा मुंबई हाईकोर्ट में भी ऐसी याचिका दाखिल हुई हैं।

फ़िलहाल सारे मामले सुप्रीम कोर्ट में स्थानांतरित हो चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार का पक्ष जानना चाहा है। केंद्र ने सोशल मीडिया नियमन कानून जनवरी 2020 तक लाने की बात कही है। ऐसा कोई कानून आने के बाद ही सुप्रीम कोर्ट इन याचिकाओं पर सुनवाई करेगा।

सोशल मीडिया अकाउंट को आधार से जोड़ने का तर्क वाजिब है। इससे फर्जी अकाउंट्स पर रोक लगेगी। नफरत, अफवाह फैलाने  तथा अपराधी या राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए सोशल मीडिया का दुरुपयोग नहीं हो पाएगा।
दूसरी ओर, फेसबुक का मानना है कि आधार से जुड़ने पर नागरिकों की निजता का हनन होगा। आधार से जोड़ने के विरोधियों के अनुसार नागरिकों की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए सरकार इसका दुरुपयोग कर सकती है।

चिंता यह है कि जो लोग जानबूझकर भड़काऊ पोस्ट के जरिए अपने आका की नजर में आने की कोशिश करते हैं, उन पर रोक लगाने के लिए केंद्र सरकार कौन से कदम उठाएगी? क्या संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों, खासकर सांसदों, विधायकों, मंत्रियों को किस तरह जिम्मेवार बनाया जाएगा। ऐसे लोग अगर खुद विवादित पोस्ट न शेयर करें, लेकिन नफरत फैलाने वालों को फ्रेंड बनाते हों, या फॉलो करके वैधता देते हों, तो उन पर क्या कार्रवाई होगी?

बहरहाल, केंद्र सरकार क्या नियमन लाएगी, यह अब तक स्पष्ट नहीं है। लेकिन सोशल मीडिया को ‘सोशल’ बनाए रखने के लिए नियमन जरूरी है।

सोशल मीडिया में फर्जी अकाउंट्स का संकट ज्यादा बड़ा है। अपनी वास्तविक पहचान के जरिए लिखते वक्त लोग ज्यादा सचेत रहते हैं। उन्हें पकड़े जाने का भय होता है। लेकिन फर्जी अकाउंट में लोग मर्यादा भूल कर खुलेआम गाली, अश्लीलता और नफरत पर उतारू हो जाते हैं। ऐसे लोगों की पहचान मुश्किल होती है।

इसलिए फर्जी अकाउंट्स पर रोक लगाना जरूरी है। आधार से जुड़ने पर इसका समाधान हो जाएगा।

लेकिन सोशल मीडिया का नियमन फर्जी अकाउंट तक सीमित नहीं है। जो लोग अपनी वास्तविक पहचान के साथ झूठ, नफरत, अफवाह फैला रहे हैं, वे और भी ज्यादा खतरनाक हैं। उन पर नियंत्रण के लिए भी स्पष्ट और कठोर कानून जरूरी है।
अभी भारत में धर्म और जाति के नाम पर विद्वेष फैलाने का अभियान चरम पर है। सोशल मीडिया का नियम यह है कि अगर कोई बेशर्म होकर अपने एजेंडे पर चले, तो आसानी से सफल होगा। उसे तत्काल अपने विचारों या पार्टी समर्थकों की भीड़ का समर्थन मिलेगा। जबकि गंभीर लोगों की टीआरपी बेहद कम होती है।

चिंता यह है कि जो लोग जानबूझकर भड़काऊ पोस्ट के जरिए अपने आका की नजर में आने की कोशिश करते हैं, उन पर रोक लगाने के लिए केंद्र सरकार कौन से कदम उठाएगी? क्या संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों, खासकर सांसदों, विधायकों, मंत्रियों को किस तरह जिम्मेवार बनाया जाएगा। ऐसे लोग अगर खुद विवादित पोस्ट न शेयर करें, लेकिन नफरत फैलाने वालों को फ्रेंड बनाते हों, या फॉलो करके वैधता देते हों, तो उन पर क्या कार्रवाई होगी?

फेक न्यूज़ और अफवाह ने मुख्यधारा के मीडिया को भी गहरे तौर पर प्रभावित किया है। अब अगर कोई जिम्मेवार अख़बार या टीवी चैनल कोई सही खबर भी दे, तो उसके बेअसर होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। अधिकांश मामलों में मुख्यधारा के मीडिया में खबर आने से पहले ही सोशल मीडिया में झूठ और अफवाह का प्रसार हो जाता है। सच जब तक जगे, उससे पहले ही झूठ पूरे शहर की सैर कर आता है।

लिहाजा, मुख्यधारा के मीडिया में वास्तविक खबर आने से पहले ही नागरिकों के बड़े हिस्से पर झूठ अपना असर कायम कर चुका होता है। इसके कारण मुख्य धारा के मीडिया में आए सही तथ्यों को पाठक अपने पूर्वाग्रह के आधार पर देखते और नकारते हैं। इसके कारण खुद मुख्यधारा की पत्रकारिता को विश्वास के गहरे संकट से गुजरने की नौबत आ जाती है।

झूठ और नफरत रोकने के लिए सोशल मीडिया के एकाउंट्स की वैधता जरूरी है। किसी नियमन से वास्तविक लोगों को नुकसान नहीं। फेक पहचान वालों को जरूर कष्ट होगा। अभी तो किसी भी व्यक्ति के नाम की फर्जी प्रोफ़ाइल बनाकर बड़ा भ्रम फैलाया जा सकता है। आम लोग फर्जी प्रोफ़ाइल का फर्क नहीं कर पाते। ट्वीटर में वेरिफाइड ब्लू टिक निशान का प्रावधान है। लेकिन लंबे समय से वेरिफिकेशन नहीं हो रहा। ऐसे में किसी के भी नाम की प्रोफाइल दो मिनट के भीतर बनाकर कोई बड़ा विवाद खड़ा किया जा सकता है।

सोशल मीडिया के झूठ और उन्माद के कारण काफी लोगों की मॉब लिंचिंग तथा कई जगहों पर तनाव की भी ख़बरें आती रहती हैं। लिहाजा, इसे अनियंत्रित छोड़ना उचित नहीं।

किसी स्पष्ट व कठोर नियमन के जरिए ही सोशल मीडिया  का सकारात्मक उपयोग संभव हो सकेगा। फिलहाल तो यह एक बड़ी त्रासदी बन चुका है।

 

ये लेखक के निजी विचार हैं।

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