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पेसा कानून: 25वीं वर्षगांठ पर प्रभावी क्रियान्वयन का प्रश्न

आदिवासी स्वशासन के विचार के बिना आदिवासी विकास का विचार पूरा नहीं हो सकता है. आदिवासी क्षेत्र में हिंसा को रोकना उस क्षेत्र में पिछड़ेपन पर काबू पाने के लिए एक पूर्वापेक्षा है और आदिवासियों के पिछड़ेपन को दूर करने और उन्हें उचित विकास का मौका देने के लिए आदिवासी स्वशासन पर विचार करना अनिवार्य है. पेसा अधिनियम का वास्तविक क्रियान्वयन उस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है

भारत के संबंधित राज्यों के राज्यपालों को पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों पर वनवासी संरक्षण के अनुकूल शासन करने के लिए विशेष अधिकार दिए गए हैं, जिसे पेसा कानून कहा जाता है, पेसा कानून को लागू हुए 25 साल हो चुके हैं, जिसने आदिवासी समुदायों के बीच स्वशासन की परंपरा की अनुमति दी थी, लेकिन इसे कारगर ढंग से लागू न करा पाने के कारण आदिवासी अंचलों में गतिरोध है कि ढाई दशक बाद भी टूट नहीं पा रहा है.

पिछले समय आदिवासियों का पत्थलगड़ी आंदोलन चर्चा में रहा. इसे आदिवासियों की जीत के तौर पर भी देखा गया और कहा गया कि छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार ने आदिवासियों की मांग मान ली है.

लेकिन, इस बारे में ‘फारवर्ड प्रेस’ पर लिखे आलेख में पत्रकार तामेश्वर सिन्हा मानते हैं कि इसे समझने और उससे भी ज्यादा समझते हुए चौकस रहने की जरूरत है. वह लिखते हैं, ”पेसा कानून के तहत ग्रामसभाएं करने के छत्तीसगढ़ सरकार के शासनादेश में ग्रामसभा के लिए चार विभागीय एजेंडा समाहित किए गए हैं. ये हैं- पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग, खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति विभाग, वन विभाग और आदिम जाति अथवा अनुसूचित जाति विकास विभाग. दूसरी ओर, अनुसूचित क्षेत्रों की विकराल समस्याओं, जैसे- अजजा समुदाय की जमीनों पर अवैध कब्जा, धोखाधड़ी बिक्री, सामुदायिक वन पट्टा, गौण खनिज लीज सर्वेक्षण खनन, भू-अर्जन से पहले “पेसा” के तहत ग्रामसभा का निर्णय, अनुसूचित क्षेत्र में अवैध नगरीय निकाय गठन आदि के मुद्दों को गायब कर दिया गया है. इस प्रकार, चतुराईपूर्वक आदिवासियों या अनुसूचित क्षत्रों से संबंधित जरूरी मुद्दों को गायब करके केवल ‘पेसा’ कानून के तहत ग्रामसभाएं आयोजित करने का शासनादेश जारी करना, चुनावी माहौल में आदिवासियों को लॉलीपॉप थमाकर उनके असन्तोष को कम करने का प्रयास मात्र लगता है.

दूसरी तरफ, भारत जनजातीय बहुलता के मामले में समृद्ध देश है. बता दें कि हमारे देश में लगभग 700 आदिवासी जनजातियां हैं. यह भी एक फैक्ट है कि देश में कुल आदिवासियों में से 10% आदिवासी अकेले महाराष्ट्र राज्य में रहते हैं. राज्य के कुल क्षेत्रफल में से 16.5 प्रतिशत क्षेत्रफल यानी 50 हजार 757 वर्ग किमी आदिवासी बहुल वनांचल हैं. यह अपने आप में काफी विस्तृत और संपन्न माना जा सकता है.

वहीं, महाराष्ट्र में 15 जिलों और 68 तहसीलों में बड़ी संख्या में आदिवासी हैं. वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, राज्य में आदिवासियों की आबादी एक करोड़ से अधिक है, जो कि राज्य की कुल आबादी का करीब दस फीसदी है.

लेकिन, दूसरी तरफ सच्चाई यह है कि राज्य में इतनी बड़ी आबादी वाला आदिवासी समुदाय देश के अन्य आदिवासी बहुल क्षेत्र की तरह अभी भी विकास के मामले में पिछड़ रहा है. यह प्रश्न इसलिए अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि महाराष्ट्र मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा जैसे अन्य राज्यों के मुकाबले विकसित राज्य माना जाता है.

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वास्तव में, आदिवासियों के लोकतांत्रिक अधिकारों को संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त है. हीं, उनके प्रतिनिधित्व के लिए आरक्षण भी प्रदान किया गया है. हालांकि, आदिवासी समूह बिखरे और असंगठित हैं, इसलिए यह भी हकीकत है कि जनसंख्या के अनुपात में उनका प्रतिनिधित्व नहीं हो पा रहा है.

लिहाजा, जनजातीय समूहों के बीच आम सहमति पर आधारित स्वशासन की परंपरा को ध्यान में रखते हुए पंचायत राज्य व्यवस्था ने जनजातीय क्षेत्रों के लिए स्वशासन अधिनियम- पंचायत विस्तार (अनुसूचित क्षेत्र) अधिनियम अर्थात ‘पेसा’ अधिनियम बनाया था. यह अधिनियम 24 दिसंबर, 1996 को लागू हुआ था. यानी 24 दिसंबर को इस कानून को पूरे 25 साल के हो गए हैं. इसलिए, यह लेख इस कानून के कार्यान्वयन की समीक्षा करने के लिए है.

असंतोषजनक क्रियान्वयन

देखा जाए तो पेसा आदिवासी भागीदारी के आधार पर स्वशासन की संस्कृति को कानूनी मान्यता देता है. इतना ही नहीं, इस कानून के तहत सशक्तिकरण की प्रक्रिया के दौरान आदिवासियों को न केवल सक्रिय सदस्यों के रूप में बल्कि सक्षम निर्णय निर्माताओं, नीति निर्माताओं, पर्यवेक्षकों और मूल्यांकनकर्ताओं के रूप में भी मान्यता दी गई है. फिर भी, अफसोस की बात है कि इस तरह के एक क्रांतिकारी कानून का कार्यान्वयन बहुत असंतोषजनक है. लिहाजा, पेसा अधिनियम के प्रभावी कार्यान्वयन की कमी के कारण आदिवासियों के कई अधिकारों और अधिकारों की उपेक्षा की जा रही है. पेसा दस्तावेज मौजूद हैं, लेकिन हम कह सकते हैं कि आदिवासी स्वशासन वास्तव में नहीं आया है.

महाराष्ट्र के संदर्भ में देखा जाए तो वर्ष 1996 में केंद्र सरकार द्वारा पेसा अधिनियम पारित करने के बाद, महाराष्ट्र ने 1997 में पेसा अधिनियम के अनुसार अपने ग्राम पंचायत अधिनियम में संशोधन किया था. इन परिवर्तनों के अनुसार अनुसूचित क्षेत्र के लिए विशेष प्रावधान किए गए थे. लेकिन, केंद्रीय पेसा अधिनियम और कुछ महत्वपूर्ण प्रावधानों के अनुसार राज्यों द्वारा अधिनियमित कानून के बीच एक विसंगति है. नतीजतन, राज्य-स्तरीय कानून की धार संकुचित हो गई है, जिसे कई विद्वानों ने रिपोर्ट किया है. महाराष्ट्र, जो पंचायत राज व्यवस्था में अग्रणी है, पेसा कानून को लागू कराने के मामले में पिछड़ा है.

राज्य में भी सीमित प्रारूप

बता दें कि महाराष्ट्र ने केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए कानून में कुछ महत्वपूर्ण प्रावधानों को शामिल नहीं किया है. केंद्रीय पेसा अधिनियम में ग्राम सभा को कई शक्तियां दी गई हैं, यह सुनिश्चित करने के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं कि वरिष्ठ स्तर की पंचायतें (अर्थात सरकारें) अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभाओं और ग्राम पंचायतों के अधिकारों का अतिक्रमण न करें, लेकिन महाराष्ट्र में पेसा अधिनियम के अनुसार ग्राम पंचायत अधिनियम में किए गए परिवर्तनों ने ग्राम पंचायत को ग्राम सभा को दिए बिना निर्णय लेने की शक्ति दे दी गई.

इसलिए इस राज्य में ग्राम सभा की शक्तियां केवल सलाह देने और सिफारिश करने तक ही सीमित रह गई हैं. उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र ने केवल कई महत्त्वपूर्ण मामलों पर ग्राम सभा को सिफारिश करने का अधिकार दिया है, जैसे कि आदिवासी क्षेत्रों में भूमि हस्तांतरण, ऋण ऋण, माध्यमिक खनिज खदानों के लिए नीलाम लाइसेंस.

वहीं, केंद्रीय कानून में कहा गया है कि पेसा कानून के प्रावधानों के अनुरूप अन्य विषयों से संबंधित कानून में उचित बदलाव किए जाएंगे, जबकि महाराष्ट्र ने उत्पाद कर, वानिकी, खनिज संसाधन और खनन, कृषि बाजार, ऋण ऋण और भूमि अधिग्रहण अधिनियम में उचित बदलाव नहीं किए हैं, जो आदिवासियों की दृष्टि से बहुत संवेदनशील और महत्वपूर्ण हैं. इसके अलावा, राज्य के कानून की भाषा केंद्रीय कानून की भाषा की तुलना में अधिक सूक्ष्म है.

भारत के संबंधित राज्यों के राज्यपालों को पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों पर शासन करने के लिए विशेष अधिकार दिए गए हैं. दूसरी तरफ, अन्य राज्यों के विपरीत महाराष्ट्र के राज्यपालों (कुछ अपवादों को छोड़कर) को अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग करने के लिए नहीं जाना गया है.

दरअसल, सच तो यह है कि अधिनियम के प्रावधानों में त्रुटियों, नियमों के निर्माण में अक्षम्य देरी और अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासी स्वशासन के प्रति अत्यधिक उदासीनता के कारण, महाराष्ट्र में आदिवासी स्वशासन की स्थिति अतीत की बात हो गई है.

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साभार | etvbharat.com

कानून को ठीक से लागू किया जाना चाहिए

आदिवासी स्वशासन के विचार के बिना आदिवासी विकास का विचार पूरा नहीं हो सकता है. आदिवासी क्षेत्र में हिंसा को रोकना उस क्षेत्र में पिछड़ेपन पर काबू पाने के लिए एक पूर्वापेक्षा है और आदिवासियों के पिछड़ेपन को दूर करने और उन्हें उचित विकास का मौका देने के लिए आदिवासी स्वशासन पर विचार करना अनिवार्य है. पेसा अधिनियम का वास्तविक क्रियान्वयन उस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है.

इसके लिए राज्य स्तर पर तत्काल कुछ करने की जरूरत है और यह संभव भी है. सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि राज्य ग्राम पंचायत अधिनियम के प्रावधानों में त्रुटियों को सुधारा जाना चाहिए और प्रावधानों को केंद्रीय पेसा अधिनियम के अनुरूप बनाया जाना चाहिए. साथ ही, समग्र जनजातीय विकास की दृष्टि से पेसा अधिनियम, वन अधिकार अधिनियम और जनजातीय घटक योजना में सामंजस्य स्थापित किया जाना चाहिए.

एक मायने में पेसा अधिनियम न केवल आदिवासी स्वशासन की दृष्टि से, बल्कि देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है. लोगों की भागीदारी के आधार पर प्रतिनिधि लोकतंत्र से वास्तविक लोकतंत्र की ओर बढ़ना महत्त्वपूर्ण है. इस लिहाज से बहम यह है कि ग्राम सभा को हर उस गांव में सक्षम बनाया जाए, जहां पेसा अधिनियम प्रत्येक टोला को एक गांव का दर्जा देने का अधिकार देता है, लेकिन प्रदेश के अनुसूचित क्षेत्रों में पेसा गांव घोषित करने की प्रक्रिया बेहद धीमी गति से आगे बढ़ रही है.

हालांकि, पेसा गांव घोषित करने की प्रक्रिया सरल है और पेसा नियम भी स्पष्ट रूप से निर्धारित हैं. लेकिन, सच तो यह है कि इस प्रक्रिया के बारे में न केवल आम आदिवासी लोग, बल्कि नेता, पदाधिकारी और कार्यकर्ता भी पर्याप्त नहीं जानते हैं.

राज्य सरकार को राज्य भर में पेसा गांव घोषित करने की प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए एक समयबद्ध अभियान शुरू करने की जरूरत है. गांव ने पेसा गांव घोषित करने की निर्धारित प्रक्रिया पूरी कर ली है, लेकिन यदि निर्धारित समय के भीतर अनुमंडल पदाधिकारी या जिला कलेक्टर द्वारा कोई निर्णय नहीं लिया गया है तो ऐसे गांवों को गजट या राज्यपाल के हस्ताक्षर से पेसा गांव घोषित किया जाना चाहिए. वहीं, गांव को पत्र व प्रमाण पत्र जारी करने की व्यवस्था की जाए. इसका मतलब यह है कि इस तरह से घोषित गांव भी योजना का लाभ प्रदान करने के लिए सरकारी प्रणाली से बंधे होंगे.

आदिवासी स्वशासन को साकार करने के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है. लेकिन, यहां केवल एक महत्वपूर्ण प्रावधान का उल्लेख किया गया है.

कई वर्षों के संघर्ष के बाद, इस देश और राज्य में आदिवासियों ने अपना अधिकार वापस पा लिया है. लेकिन, एक तरफ निजी स्वामित्व की अवधारणा को पुनर्जीवित किया गया है और दूसरी तरफ, बाजार के लालच और दबाव के कारण उन निजी स्वामित्व वाले संसाधनों के स्वामित्व का नुकसान हुआ है. वास्तव में लोकतांत्रिक निर्णय लेने की प्रक्रिया और तंत्र के अभाव में, आदिवासी समूहों के पास बाजार या हिंसक प्रतिरोध का सहारा लेने का एकमात्र विकल्प बचा है. इसलिए, पेसा अधिनियम के अधिनियम की 25वीं वर्षगांठ को देखते हुए, इस अधिनियम के सचेत और कठोर कार्यान्वयन की क्या आवश्यकता है?

शिरीष खरे

शिरीष पिछले दो दशकों से भारतीय गांवों और हाशिये पर छूटे भारत की तस्वीर बयां कर रहे हैं, इन दिनों इनकी पुस्तक 'एक देश बारह दुनिया' चर्चा में है

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