मणिपुर में सैकड़ों मैतेई पुरुषों के द्वारा सरेआम नग्न कर घुमाई और गैंगरेप का शिकार बनाई गई वे दो कुकी महिलाएं कौन थी?
वे आदिवासी थीं। वे इस देश की मूल निवासी थीं। आर्यों से भी पहले। फिलहाल, वे विश्वगुरु और जी20 के मुखिया भारत में गृह युद्ध के बीच फंसी हैं।
वन अधिकार कानून को उठाकर देख लीजिए, जिसकी प्रस्तावना में ही तब की कांग्रेस सरकार ने कहा है कि अंग्रेजों से लेकर बाद की सरकारों ने इन आदिवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय किया है।
किस तरह का ऐतिहासिक अन्याय? हमारे महान विद्वानों ने कभी जानने की कोशिश की है?
हमारे समाज, सिस्टम और इस देश के लोकतंत्र ने उन्हें जंगलों से इसलिए खदेड़ा, क्योंकि हमें उनकी जमीन, पानी और जंगल कब्जाने थे।
हम उन्हें अशिक्षित, गंदे, जंगल आधारित खान–पान का आदी मानते हैं। उन्हें इंसान नहीं मानते। हमारे दिमाग में उन राक्षसों की कल्पना भरी है, जो इंसानों को खा जाते हैं।
हम उनकी उनकी पेंटिग्स बड़े शान से ड्राइंग रूम में टांगते हैं। उनकी लकड़ियों से बने फर्नीचर पर हम इतराते हुए बैठते हैं।
डॉ. मेडुसा की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से अपील
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हमने आदिवासियों को सिर्फ शोषक की नजर से ही देखा है। गुलाम, मजदूर, अनपढ़, मांसभक्षी राक्षस। उनका इस्तेमाल कर फेंक देने की पूरी छूट आपको है।
अब नरेंद्र मोदी सरकार ने इन जंगलों को कॉर्पोरेट्स को बेच दिया है। सुप्रीम कोर्ट में हसदेव पर छत्तीसगढ़ की भूपेश बघेल सरकार का बेशर्म हलफनामा देखिए। ऐतिहासिक अन्याय समझ आएगा।
पिछले दिनों एक बाभन ने एमपी में एक आदिवासी पर मूत दिया। हमारे बेशर्म समाज पर कोई असर नहीं हुआ। हम और बेशर्म हो गए।
असल में हम अपनी गलतियों को ढंकने के लिए बेशर्म, शर्मनाक जैसे छोटे शब्दों का प्रयोग करते हैं। हम कमज़ोरों के साथ खड़े नहीं हो पा रहे हैं। हमारे पैर कांपते हैं। हमने बेशर्मी की भी राजनीतिक, सामाजिक परिभाषा और दायरे सोच लिए हैं।
हमें इस सत्ता की आदिवासियों के प्रति असल मंशा तब भी समझ नहीं आती, जब देश की आदिवासी राष्ट्रपति को मंदिर में गर्भगृह के बाहर खड़ा पाते हैं।
नरेंद्र मोदी इस देश को भारत और न्यू इंडिया कहते हैं। इसी भारत में दो आदिवासी महिलाओं को नंगा घुमाया गया है।
मणिपुर में इंटरनेट बंद है। वहां क्या हो रहा है, किसने क्या किया, कमज़ोरों पर क्या अत्याचार हुए–दुनिया को नहीं पता।
वास्तव में, इस देश को पूरी तरह कॉर्पोरेट्स को बेचने की हवस में मौजूदा सत्ता की चादर इतनी मैली हो चुकी है कि उसकी सड़ांध यूरोप तक जा पहुंची है।
फिर भी सत्ता इसे भारत का आंतरिक मामला बताती है। उसे मालूम है कि उसकी मैली चादर नहीं धुल सकती।
और न ही इस समाज की, जो औरत को प्लॉट मानने वाले एक फर्जी बाबा के आगे सिर झुकाता है।
उम्मीद है कि आगे भी हम सब मिलकर आदिवासियों के प्रति ऐतिहासिक अन्याय करते रहेंगे। कभी गैंगरेप, कभी मूतकर तो कभी उन्हें बदबूदार गटर में उतारकर।
हमें अपनी बदबूदार मैली चादर में चरमसुख मिल रहा है। हम उसी चादर को ओढ़े अंग्रेजों से लड़ने वाले आदिवासी वीरों के बुतों पर मालाएं चढ़ाने का पाखंड करते रहेंगे।
डॉ. मेडुसा की यह अपील बेअसर रहेगी। राष्ट्रपति एक औरत, एक आदिवासी जरूर हैं। लेकिन वह सत्ता से बंधी हैं। उनके हाथ बंधे हैं।
इस देश के 15% मिडिल क्लास की तरह।
ये लेख, सौमित्र की फेस्बूक पोस्ट से ली गई है।
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