किसानों की बीजेपी पर वोट की चोट भला क्यों?

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केंद्र की मोदी सरकार के कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ किसान आंदोलन के 98वे दिन संयुक्त किसान मोर्चा ने एक बड़ी घोषणा की। घोषणा यह कि वह बीजेपी को वोट के ज़रिए चोट पहुंचाएगा। मोर्चा की प्रेस कॉन्फ़्रेंस में योगेंद्र यादव के मुताबिक़ किसान नेता अलग-अलग राज्यों में जाकर मतदाताओं से कहेंगे कि वोट देना उनका हक़ है, वे किसी को भी वोट दें, पर केंद्र की बीजेपी सरकार जो किसान विरोधी कृषि क़ानून लाई है, जिसने किसानों को दमन किया है और जो किसानों की बार-बार बेइज़्ज़ती कर रही है, उन्हें सज़ा ज़रूर दें।

इसी के साथ यह कहा जा सकता है कि सौ दिनों को पार करने जा रही किसानों की सरकार के ख़िलाफ़ यह लड़ाई एक निर्णायक मोड़ पर पहुंच गई है। बंगाल, असम, तमिलनाडु, पंडिचेरी और केरल में होने वाले विधानसभा चुनावों को देखते हुए बीजेपी को वोट न देने के लिए मोर्चा द्वारा की गई यह अपील अहम मानी जा रही है। इसके पीछे आंदोलन के किसान नेताओं का मानना है कि किसी भी सियासी दल की सबसे बड़ी ताक़त या कमज़ोरी वोट ही होती है। जब तक सरकार पर वोटों का दबाव नहीं बढ़ाया जाएगा तब तक यह सरकार उनकी मांगों को तवज़्ज़ो नहीं देगी। इसके पहले भी पिछले कई दिनों से किसान नेता यह कहते आ रहे थे कि वे ख़ासकर बंगाल के आगामी विधानसभा चुनाव में सभी 294 सीटों पर जाएंगे और जनता से कहेंगे कि बीजेपी उम्मीदवार को वोट न दें।

इसी कड़ी में 12 मार्च को कोलकाता में किसान आंदोलन के नेताओं ने एक बड़ी रैली की घोषणा की है। इस घोषणा से यह ज़ाहिर होता है कि किसान नेता सरकार के ख़िलाफ़ एक लंबी लड़ाई की रणनीति बना चुके है। एक ओर जहां कई हज़ार की संख्या में किसान दिल्ली की सीमाओं पर बैठे हैं, दूसरी ओर वहीं ज़गह-ज़गह किसान महापंचायतों के ज़रिये पश्चिमी उत्तर-प्रदेश सहित हरियाणा और अन्य राज्यों में किसान आंदोलन का कैचमेंट एरिया बढ़ता जा रहा है। ऐसे में सवाल है कि इस मोड़ पर आकर क्यों किसान आंदोलन के नेता चुनावी राजनीति में अब सीधे हस्तक्षेप कर रहे हैं।

दरअसल, किसान आंदोलन को अब तीन महीने से अधिक का समय हो चुका है। धरना-स्थलों से बड़ी संख्या में किसानों की मौत से जुड़ी ख़बरें लगातार आ रही हैं। बीती 22 जनवरी से सरकार की किसानों के साथ बातचीत बंद है। इतने बड़े आंदोलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किसानों के प्रति संवेदनशीलता नहीं दिखाई है। केंद्र में सत्तारूढ़ बीजेपी के बड़े नेता भी उनकी अनदेखी कर रहे हैं। यहां तक कि कुछ नेता तो अभी भी आंदोलन विरोधी बयान दे रहे हैं।

इस बारे में किसान शक्ति संघ से जुड़े नेता पुष्पेंद्र सिंह कहते हैं कि पिछले लोकसभा चुनाव के डाटा देखें तो कुल नब्बे करोड़ मतदाताओं में से साठ करोड़ मतदाताओं ने वोट दिया। इनमें तेईस करोड़ के आसपास वोट बीजेपी को गए। मतलब यदि पिछले चुनाव के मुक़ाबले बीजेपी को लगा कि उसके पांच फ़ीसदी वोट कम होने पर यदि बड़ी संख्या में उसकी सीटें घट सकती हैं तो सत्ता में बैठी मोदी सरकार किसानों से बातचीत के लिए आएगी।

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हरियाणा के चरखी-दादरी में पचास हज़ार से ज़्यादा किसानों ने हिस्सा लिया

इसी क्रम में एक अहम बात यह है कि बीजेपी बंगाल में सरकार बनाने के साथ ही असम में सरकार बचाने की भी कोशिश कर रही है। इसी रणनीति को ध्यान में रखते हुए किसान नेताओं ने असम में होने वाले विधानसभा चुनावों को भी तरहीज़ दी है। किसान नेताओं का कहना है कि वे असम भी जाएंगे और वहां की जनता को भी बताएंगे कि मोदी सरकार किसानों के मुद्दों को हल नहीं करना चाहती है। इसमें एक आयाम यह भी है कि किसान आंदोलन बंगाल और असम के चुनाव परिणामों से अप्रभावित रहेगा। कारण यह है कि इन राज्यों से जो भी परिणाम आएं उनसे पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर-प्रदेश और राजस्थान आदि राज्यों में चल रहे किसान आंदोलन को कोई अंतर नहीं पड़ेगा। हां ज़ीत-हार की बात तब आएगी जब जहां-जहां किसान आंदोलन मज़बूत माना जा रहा हैं वहां-वहां के चुनावों में बीजेपी जीते तब। लेकिन, बंगाल और असम के विधानसभा चुनावों में किसान नेताओं के पास कोई कैलकुलेशन रिस्क नहीं है। इन राज्यों के आगामी विधानसभा चुनावों में राजनीतिक दलों का भविष्य तो तय होगा किंतु यह ऐसी स्थिति नहीं होगी जिसमें यह कहा जा सके कि किसान आंदोलन रुक जाएगा। हालांकि, इसके पहले अगले महीने उत्तर-प्रदेश में होने जा रहे पंचायत-चुनाव किसान आंदोलन के नज़रिए से कहीं महत्त्वपूर्ण हैं। जिला-पंचायतों की स्थिति देखें तो पिछले चुनाव में पश्चिमी उत्तर-प्रदेश की 26 में से 25 सीटों पर बीजेपी ने कब्ज़ा ज़माया था। इन 26 में से 18 जिला पंचायतों में जाटों का वर्चस्व हैं। लेकिन, इस बार किसान और खाप महापंचायतों में उमड़ रहा जनसैलाब बताता है कि बीजेपी के लिए स्थितियां विकट हो चुकी हैं। ऐसे में जब आंदोलन से जुड़े सभी प्रमुख किसान नेता बीजेपी के ख़िलाफ़ ख़ुलकर मैदान में हैं तब यह देखना दिलचस्प होगा कि यहां के चुनाव-परिणाम क्या होंगे।

इस बीच किसान आंदोलन की एक बड़ी परीक्षा 12 मार्च को होगी। इस दिन जब मज़दूर और किसान हाथ मिलाएंगे तब यह देखने की ज़रूरत है कि इसकी गूंज़ कितनी होती है। इसी के साथ किसान नेताओं के इस अभियान से उन राज्यों के किसान संगठनों को आंदोलन से जोड़ने का मौका मिलेगा जो अब तक इससे दूर रहे हैं।

हो सकता है कि आगामी राज्यों के विधानसभा चुनावों में किसान आंदोलन से जुड़ी मांगें मुख्य मुद्दा न बन पाएं। लेकिन, जहां तक प्रभाव का सवाल है तो अन्य मुद्दे जैसे मंहगाई और बेकारी को जोड़कर इसे एक बड़े आक्रोश में बदलने की संभावनाएं हैं। इस तरह किसान आंदोलन के मुद्दों पर भी कहीं-न-कहीं चुनावी सभाओं में चर्चा होती रहेगी, जबकि एक सियासी दल के तौर पर बीजेपी ऐसा नहीं चाहेगी। वहीं, गौर करने वाली बात यह भी है कि देश में ऐसा कोई विपक्षी दल नहीं है जो किसान आंदोलन की आलोचना कर रहा है। इससे इशारा मिलता है कि वे जनता की नब्ज़ टटोलकर ही बात कर रहे हैं और सियासी तौर पर उसका फ़ायदा भी उठाना चाहते हैं। कहने का मतलब यह है कि अब तक यदि किसान आंदोलन का नैरेटिव राष्ट्रविरोधी गढ़ दिया जाता तो विपक्षी दल आंदोलन के समर्थन में इतने मुखर नहीं होते। यहां तक कि ख़ुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आंदोलन में शामिल एक वर्ग को लक्ष्य में रखते हुए उन्हें आंदोलनजीवी तो कह रहे हैं, किंतु किसानों के आंदोलन को उन्होंने भी पवित्र ही कहा है।

अंत में यहां यह बात भी ध्यान देने की है कि कई बार आंदोलन राजनीतिक आकार भी ले लेता है। इस लिहाज़ से जानकार आज़ादी की लड़ाई से लेकर जेपी और अन्ना आंदोलन के उदाहरण देते रहे हैं। अनुभव बताते हैं कि ऐसी स्थिति में सरकार को भारी नुकसान उठाना पड़ता है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है और इसके संकेत भी मिल रहे हैं कि यदि अराजनीतिक आंदोलन का समय रहते निराकरण न किया गया तो एक चरण के बाद किसान आंदोलन भी एक राजनैतिक आंदोलन बन सकता है।

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