Freshly BrewedOpinion

छोटे बनाम बड़े किसान क्यों कर रही थी सरकार?

किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ-साथ खेती में एक ऐसी व्यवस्था बनाने की ज़रूरत है जिसमें एक किसान परिवार को अपनी आजीविका में उतनी आमदनी तो हो कि वह बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा कर सके

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछली 10 फरवरी को लोकसभा में कृषि कानूनों पर एक लंबा भाषण दिया था। इस दौरान उन्होंने छोटे किसान के बरक्स बड़े किसान को रखते हुए एक थ्योरी दी। उन्होंने अपनी थ्योरी को स्थापित करने के लिए कुछ आंकड़े भी दिए। इन आंकड़ों में बताया गया कि देश भर में 12 करोड़ छोटे किसान हैं। प्रधानमंत्री का पूरा जोर इस बात पर था कि नए कृषि कानूनों से देश के छोटे किसानों को बड़ा लाभ होगा। हालांकि, उन्होंने कहीं भी यह बात स्पष्ट नहीं की कि नए कृषि कानून यदि लागू हुए तो विभिन्न राज्यों के छोटे किसानों को इससे किस प्रकार लाभ होगा।

प्रश्न है कि क्या वाकई नए कृषि कानूनों से खासकर छोटे किसानों का भाग्य बदल जाता? जहां तक आंकड़ों की बात है तो पिछले कई वर्षों से छोटे किसानों की संख्या लगातार बढ़ रही है। वजह भी स्पष्ट है कि ग्रामीण भारत में जमीन के लगातार बंटवारे के कारण छोटे किसानों की संख्या बढ़ रही है। कृषि सूचकांक, 2015 पर दृष्टि डालें तो देश में दो हेक्टेयर जमीन तक के किसानों की संख्या 68 प्रतिशत है। वहीं, चार हेक्टेयर जमीन तक के किसानों की संख्या 87 प्रतिशत है। इसी तरह, आठ और दस हेक्टेयर जमीन तक के किसानों की संख्या क्रमशः 95 और 99 प्रतिशत है। यानी भारत में दस हेक्टेयर से अधिक जमीन वाले किसान जिन्हें बड़े किसान कहा जा सकता है उनकी संख्या मुश्किल से एक प्रतिशत है।

प्रश्न है कि खुले बाजार में व्यापारियों को उपज बेचने से छोटे किसानों को लाभ होता तो बिहार, पश्चिम बंगाल, झारखंड, पूर्वी उत्तर-प्रदेश का पूर्वी, बुंदेलखंड, मध्य-प्रदेश, महाराष्ट्र का विदर्भ, खानदेश और मराठवाड़ा से लेकर शेष भारत जहां बड़ी संख्या में चार हेक्टेयर तक खेत वाले किसान हैं उन्हें उनकी उपज़ का सही दाम क्यों नहीं मिल पा रहा है? इन क्षेत्रों में सरकारी मंडियां कमजोर हैं और छोटे किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर अपनी उपज नहीं बेच पाते तो क्यों खुले बाजार के बड़े व्यापारी न्यूनतम समर्थन मूल्य से अधिक दाम पर छोटे किसानों की उपज़ नहीं खरीद रहे हैं।यदि इसी वर्ष की बात करें तो बिहार में खुले बाजारों में धान उत्पादक किसानों ने प्रति क्विंटल 900 रुपए की दर पर अपना धान बेचा। जबकि, छत्तीसगढ़ में सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य पर प्रति क्विंटल करीब 1,400 रुपए की दर से धान उत्पादक किसानों से उनकी उपज खरीदी। जाहिर है कि यदि खुले बाजार में छोटे किसानों को उनकी उपज का उचित दाम मिल रहा होता तो अब तक मिल चुका होता। वे बड़ी संख्या में अपने राज्यों से पलायन करके हर साल पंजाब और हरियाणा में मजदूरी करने क्यों जाते, जहां उन्हें चार-पांच सौ रुपए दिन के हिसाब से मज़दूरी मिलती है।

प्रश्न है कि यदि छोटे किसानों के प्रति केंद्र सरकार को इतनी ही हमदर्दी है तो वह उनसे जुड़ी समस्याओं का समाधान क्यों नहीं करती है? जैसे कि देश के जिन अंचलों में अधिक से अधिक छोटे किसान हैं वहां सरकारी मंडी बनाकर छोटे किसानों से सभी तरह की फसलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के दायरे में लाकर उन्हें खरीदने का संकल्प क्यों नहीं लेती है।

इसी तरह, उत्तर-प्रदेश में पिछले कुछ वर्षों से महाराष्ट्र से भी अधिक गन्ना उगाया जा रहा है। लेकिन, ऐसे किसानों का समय पर गन्ने का भुगतान तक नहीं होता है। पिछले वर्ष गन्ना उत्पादक किसानों को उनकी उपज का साढ़े सोलह हज़ार करोड़ रुपए बकाया है। इसमें ढाई हजार करोड़ रुपए ब्याज अलग है, जबकि वर्ष 2016 में जिन दिनों उत्तर-प्रदेश में विधानसभा चुनाव हो रहा था उन दिनों प्रचार के दौरान भाजपा के कई नेता लगातार यह कह रहे थे कि एक ओर सरकार शपथ लेगी तो दूसरी ओर गन्ना किसानों का भुगतान करेगी।

प्रश्न है कि ये छोटे किसान कौन हैं और इनके साथ अन्य कौन-सा वर्ग जुड़ा हुआ है? दरअसल, छोटे किसानों के साथ गांवों का वह बढ़ई, लोहार, कुंभार और भूमिहीन पशुपालक वर्ग भी शामिल हैं जो परोक्ष रुप से खेती पर निर्भर है। ये समुदाय किसानों से चारा लेता या ख़रीदता है और बदले में दूध बेचकर अपने बच्चे पालता है। हमारे देश के सकल घरेलू उत्पाद में डेयरी का बड़ा योगदान है।

लेकिन, कोरोना-काल से पहले भैंस का जो दूध चालीस रुपए लीटर मिल रहा था वही कोरोना-काल में कई ज़गहों पर यह घटते हुए 26 रुपए लीटर तक आ पहुंचा। विरोध में कई छोटे किसान और पशुपालकों ने अपना दूध सड़कों पर ही फेंका। इस दौरान उपभोक्ता के दाम तो कम किए नहीं गए, फिर सहकारी समितियों द्वारा दूध के दाम क्यों कम करा दिए गए। यदि छोटे किसान और पशुपालकों की इतनी ही चिंता होती तो यह सरकार उन्हें कम-से-कम उनके दूध का ही उचित दाम सुनिश्चित करा देती।

दूसरी तरफ, ऐसे पशुपालक परिवारों पर तो उत्तर-प्रदेश सरकार ने और भी बड़ी चोट मार दी। उत्तर-प्रदेश सरकार ने निर्देश दिया कि जो परिवार एक से अधिक पशु रखेगा वह कमर्शियल डेयरी के अंतर्गत आएगा। उन पर बिजली के कमर्शियल कनेक्शन लेने के लिए भी दबाव डाला जा रहा है। इसी तरह, देखा जाए तो छोटा किसान और पशुपालक एक आम उपभोक्ता भी है। लेकिन, जो सिलेंडर पहले वह 360 रुपए में ख़रीदता था उसी के लिए इस वर्ग को अब 700 रुपए देना पड़ रहा है। ज़ाहिर है कि केंद्र सरकार छोटे किसानों को सीधा लाभ देने की बजाय उन पर दया दृष्टि दिखाते हुए उन्हें अपनी ओर खींचना चाहती है।

मंजिलें दूर हैं मगर…

तीन कृषि कानूनों की वापसी से 4 जून, 2020 की स्थिति बहाल हुई है, जो कि किसानों के लिए एक बड़ी राहत है, लेकिन इससे किसानों की बुनियादी समस्या दूर नहीं होगी।

देश भर के किसानों की स्थिति देखी जाए तो पूरी खेती कुल 9.4 करोड़ हैक्टेयर में बंटी हुई है। जबकि, इस पर 10.1 करोड़ किसान धारक (होल्डर) हैं। इस तरह, भारत में खेतों का औसत आकार एक हैक्टेयर से भी कम है। जिनके पास जमीन है उनमें लगभग 85 प्रतिशत के पास एक हैक्टेयर से कम जमीन है। ज़ाहिर है कि ज्यादातर किसान परिवार जमीन के मामूली टुकड़े पर अपना गुजारा कर रहे हैं।

इसके अलावा भी एक बड़ी आबादी उन खेत मज़दूर परिवारों की है जिनके पास खेती का पट्टा नहीं है। एक अनुमान के अनुसार भारत में लगभग 40 प्रतिशत यानी 4 करोड़ खेत मजदूर परिवार हैं।

सवाल है कि खेत के इतने छोटे टुकड़े होने की स्थिति में ज्यादातर छोटे किसान और खेत मजदूर परिवारों को उनकी मेहनत की उपज का क्या उचित दाम मिलना संभव है?

इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि आज चार से छह सदस्यों के एक किसान परिवार को हर महीने न्यूनतम 20 से 30 हजार रुपए तो चाहिए ही। यानी उसे साल में ढाई से तीन लाख रुपए चाहिए ही। इसमें आपातकालीन स्थितियों में होने वाला खर्च शामिल नहीं है।

सवाल है कि एक हैक्टेयर से कम जमीन का किसान परिवार सिर्फ़ खेती से इतनी आमदनी हासिल कर सकेगा? इसलिए, किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ-साथ खेती में एक ऐसी व्यवस्था बनाने की ज़रूरत है जिसमें एक किसान परिवार को अपनी आजीविका में उतनी आमदनी तो हो कि वह बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा कर सके।क्योंकि, यदि किसान आत्महत्याओं की गहराई में भी जाएं तो यह निचोड़ निकलता है- जितने लोग खेती में हैं उतने लोगों की आजीविका देने की हालत में खेती नहीं है। इसलिए खेती घाटे का सौदा है। इसके पीछे एक बड़ी वजह यह है कि किसानों के पास आवश्यक आमदनी के अनुपात में खेती की ज़मीन नहीं है। जब ज़मीन ही नहीं है तो खेती पर निर्भर लोगों को आजीविका कैसे मिलेगी।

शिरीष खरे

शिरीष पिछले दो दशकों से भारतीय गांवों और हाशिये पर छूटे भारत की तस्वीर बयां कर रहे हैं, इन दिनों इनकी पुस्तक 'एक देश बारह दुनिया' चर्चा में है

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button