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खासा जवान की याद में विश्वजीत रॉय की कविता

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तारीख का एक बेमिसाल सूरत हाल —
गोरे तहजीब का मसीहा अपने दुम छुपा कर भाग रहे,
और लाल-हरा-जाफरानी परचम लहराने वाले वीर
अपनी-अपनी सरहदें संभाल रहे।

तालिबानों से उनके अमन का पैगाम सुनते सुनते
दुनिया के तमाम भांड हंसते हंसते दम तोड़ रहे हैं!
इसी के दरमियाँ
अल्लाह की सिपाहियों ने तुम्हारी पीपली हंसी का ख़ून कर दिया,
तुम्हारे बेलस्करी चेहरे से नही, मस्करी जुबान से उनको खतरा था।

खासा जवान! दबंग पठान की छवि से बहुत दूर
तुम तो दुबले-पतले बुड्ढे जैसे एक मेराज निगार थे।

ढीले पतलून-कमीज और सर पर झाड़ी वाले बेकाबू बाल,
धंसे हुए गाल में छाई जिंदादिल मुस्कान,
नाचते गाते हुए तुम एक मजाकिया इंसान
तुम्हारे हाथ में बंदूक तो खिलौने जैसे लगते होंगे!
फिर भी तुम्हें कलाश्निकोव ने खालाश कर दिया पेड़ पर लटका कर
क्योंकि वक़्त के तीखे तंज़ से जल्लाद हमेशा डरते हैं।

हमारे घर के करीब और दूर दुनिया के सारे रंग मंच पर
नाच रहे हैं जल्लाद और कसाई के कई कबीले।

राम और रहीम के नाम पर हमारे धर्म-अधर्म के सारे ठेकेदार,
ईसा-मूसा या बुद्ध के बदौलत उनकी जमींदारी बढ़ती ही जा रही है!
खुदाई पर खुद्दारी की इमारत बनाते हुए ऐसे खुदगर्ज मर्द
आधे आसमान को चारों दीवारों के अंधेरे में घेरना चाहते हैं।

इब्न सीना, इब्न रशीद, इब्न बतूता, खैय्याम और अल-अफगानी जैसे
साइंसदानों और हकीमों के सुनहरे सिलसिले भुला कर
जाहिलों ने तालीम को सच की तलाश से बेखबर कर दिया।

वार्ता या बहस की रौशनी से पर्दा करने वाले यह कौम के रखवाले
खुली दिमाग के सवाल और दिल की पुकार से डरते हैं।

तोरा-शरिया, वेद-बाइबल हो या मनु के विधान में बंधक बनाकर
वह आजाद मर्जी को अपने खुद राय के पिंजरे में डालना चाहते हैं।

क्या इस जबरदस्ती की हुकूमत में भगवान एक हिटलर नहीं?
जिसे चापलूसी बेहद पसंद और मजाक या ख्यालियत से नफरत है!
दहशतगर्दी के खुदा को हंसना मना है,
संगीत के सुरों से जिनके ध्यान टूटते हैं
जिसके दिल में प्यार का दरिया नहीं बहता है।

अपने बनाए हुए दुनिया पर खौफ और ख़ामोशी के साये फैलाए हुए
मजलूम जीने की मजबूरी में ही उसको मजा आता है।

सच तो यह है, साकार हो या निराकार,
दरिंदों का सजदा एक बेरहम मूर्ति के सामने
जीने की जंग और तबाही से बेइंतहा मोहब्बत है!
मुदस्सिर हो या राम, हत्यारे के भगवान आदमखोर होते हैं
मंदिर-मस्जिद के बाहर अपने खुदा को तलाशने वालों से दूर
तानाशाही के ईश्वर की पूजा हर रोज बेगुनाहों के खून से होते हैं।

बामियान बुद्ध की बर्बादी हो या पल्मीरा और बाबरी की ध्वस्त मीनारें
इंसान की सारी विरासत और इंसानियत से फतह की तलाश में।
उनके ईमान बंदूक की नोक पर कायम है,
कत्लेआम ही उनकी इबादत
पूजा और पुण्य बेगुनाह पर जुल्मों में।

इंसानों को भेड़-बकरियों की तरह बंदी बनाते हुए
इस मुतासिबों का स्वर्ग या जन्नत एक खत्म ना होने वाला माजवाह/कसाई खाना।

आज अगर अल अफ़गानी होते
तो इन लोगों की दुनियादारी में धांधली को उजागर करते।
आज अगर सरहद पार फैयाज होते
तानाशाही से मांहकुमो को निजात पाने का भरोसा दिलाते।
आज अगर और एक चैपलिन होते
तो हमें फिर से खौफ के इस अंधेरे में हमदर्दी और हंसी का दीया जलाते।

वे नहीं है तो क्या,
नज़र मोहम्मद की नजरिया कंधार के पहाड़ों में एक सवाल जैसे गूंज रहा:
खासा जवान या तालिबान: आखिर किसका होगा अफ़ग़ानिस्तान?

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