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जवाहरलाल नेहरू व भारत रत्न

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सन् 1955 की गर्मियों में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को उनकी खुद की सरकार द्वारा भारत रत्न देने की घोषणा की गई। नेहरू उस वक्त यानी 1955 की जून-जुलाई में यूरोप के दौरे पर थे और यूरोप के विभिन्न देशों में तैनात भारत के राजनयिकों को साल्जबर्ग में संबोधित कर रहे थे, ऑस्ट्रिया के चॉन्सलर जूलियस राब से वियना में भेंट कर रहे थे। देश का यह शीर्ष सम्मान जब उन्हें देने की घोषणा की गई, उस समय वे वियना में ही थे। “कला, साहित्य और विज्ञान के उत्थान तथा सार्वजनिक सेवाओं में उच्चतम प्रतिमान स्थापित करने वालों के लिए” स्थापित किए गए भारत रत्न सम्मान का यह द्वितीय वर्ष था। भारत के राष्ट्रपति द्वारा जारी अध्यादेश के तहत इसे कायम किया गया था। प्रथम भारत रत्न सम्मान, अपने स्थापित किए जाने के वर्ष 1954 में सी राजगोपालाचारी, सीवी रमन और एस राधाकृष्णन को प्रदान किया गया था।

तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के संबंध अपने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से ठीक नहीं थे। दोनों के बीच कई मुद्दों पर मतभेद थे। इसके बावजूद राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने नेहरू को भारत रत्न प्रदान करने की पूर्ण जिम्मेदारी स्वीकार की। 15 जुलाई 1955 को इस बाबत प्रसाद ने कहा, “चूंकि यह कदम मैंने स्व-विवेक से, अपने प्रधानमंत्री की अनुशंसा के बगैर व उनसे किसी सलाह के बिना उठाया है, इसलिए एक बार कहा जा सकता है कि यह निर्णय अवैधानिक है; लेकिन मैं जानता हूं कि मेरे इस फैसले का स्वागत पूरे उत्साह से किया जाएगा…”

फलस्वरूप जवाहरलाल नेहरू को देश का यह शीर्ष सम्मान प्रदान किया गया। उनके साथ ही दार्शनिक भगवानदास व टेक्नोक्रेट एम विश्वेश्वरैया को भी भारत रत्न से विभूषित किया गया था। कूटनीतिज्ञ से राजनीतिज्ञ बने शशि थरूर ने सन् 2003 में प्रकाशित हुई अपनी किताब ‘नेहरूः द इन्वेंशन ऑफ इंडिया’ में इस बाबत लिखा, “एशिया का प्रकाश’ अब औपचारिक रूप से ‘भारत रत्न’ था।”

7 सितंबर 1955 को विशेष रूप से निमंत्रित प्रतिष्ठित भद्रजनों के बीच एक गरिमामय समारोह में नेहरू को भारत रत्न से विभूषित किया गया। राष्ट्रपति भवन में आयोजित इस सम्मान समारोह में तत्कालीन केंद्रीय गृह सचिव एवी पाई ने सम्मान पाने वाली विभूतियों के नाम उच्चारित किए, लेकिन नेहरू का प्रशस्ति-पत्र नहीं पढ़ा गया। प्रशस्तियों की आधिकारिक पुस्तिका में प्रधानमंत्री का महज नाम दर्ज है। उनके द्वारा की गई सेवाओं का वहां कोई जिक्र नहीं है। सामान्यतः यह उल्लेख परंपरागत रूप से उस पुस्तक में किया जाता है। पुराने समय के लोग कहते हैं कि देश व समाज के लिए नेहरू के अप्रतिम योगदान का चंद पैराग्राफ में जिक्र करना कठिन होगा, इसलिए उसे छोड़ दिया गया।

एक प्रतिष्ठित अखबार में छपी इस कार्यक्रम की रिपोर्ट के मुताबिक नेहरू जब यह उपाधि प्राप्त करने मंच पर पहुंचे तो सभागार हर्षध्वनि से गूंज उठा। राष्ट्रपति ने उन्हें ‘सनद’ व मेडल से विभूषित किया।

शशि थरूर ने इस मौके का उल्लेख अपनी पुस्तक में यूं किया है- “इस समारोह में उन (नेहरू) का एक फोटो है। सफेद अचकन पर लगा हुआ सुर्ख गुलाब का फूल, लगभग किसी युवा जैसे छरहरे, खड़े-खड़े मुस्कुरा रहे हैं और राष्ट्रपति उनके सीने पर अलंकरण लगा रहे हैं।तब वे छाछट वर्ष के थे मगर… राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय मंचों पर एक महान व्यक्तित्व के रूप में स्थापित।”

दिसंबर 1971 में जवाहरलाल नेहरू की सुपुत्री इंदिरा गांधी भी एक महान व्यक्तित्व के रूप में इसी तरह के समारोह की ओर बढ़ रही थीं। इसी साल के प्रारंभ में उन्होंने देश के लोकसभा चुनाव जीत कर सत्ता प्राप्त की थी। फिर उन्होंने एक निर्णायक युद्ध में पाकिस्तान को परास्त कर बांग्लादेश निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर दिया। इसी उपलब्धि पर वर्ष 1971 के लिए, मार्च 1972 में इंदिरा गांधी को भारत रत्न देने की घोषणा की गई।

जैसा निर्णय सन् 1955 में तत्कालीन राष्ट्रपति ने लिया था, वही भूमिका इंदिरा गांधी के समय राष्ट्रपति वीवी गिरी ने निभाई। उन्होंने इंदिरा को भारत रत्न देने की पूरी जिम्मेदारी स्वयं स्वीकार की। बाद में नेहरू व इंदिरा दोनों ने यह कर्ज उसी ढंग से चुकाया भी।

सन् 1962 में डॉ. राजेंद्र प्रसाद जब बतौर राष्ट्रपति सेवानिवृत्त हुए, तब उन्हें भारत रत्न से विभूषित किया गया। इसी तरह बतौर राष्ट्रपति वीवी गिरि का कार्यकाल अगस्त 1974 में पूर्ण हुआ और वर्ष 1975 में वे भारत रत्न हो गए।

हालिया बरसों में सूचना के अधिकार पर काम करने वाले उत्साही कार्यकर्ताओं द्वारा नेहरू, इंदिरा, प्रसाद, गिरि सहित अन्य गणमान्य नागरिकों को भारत रत्न देने संबंधी रिकॉर्ड की मांग की गई। तब प्रधानमंत्री कार्यालय तथा राष्ट्रपति भवन द्वारा उन्हें जानकारी दी गई कि इन महानुभावों के महती योगदान से संबंधित जानकारियों व उनकी उपलब्धियों संबंधी कोई रिकॉर्ड मौजूद नहीं है।

 

लेखक ने भारत के प्रधानमंत्री नाम से एक पुस्तक भी लिखा है, जिसमें भी इस ऐतिहासिक संदर्भ का वर्णन आया है।

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