क्या इन चुनावों में उत्तराखंड से चौकाने वाले नतीजे आ सकते हैं
मूलनिवास का सवाल, अंकिता को न्याय, केदारनाथ का सोना चोरी, पहाड़ों का दोहन और अग्निवीर आदि प्रश्न पहाड़ मे अभी भी मुख्य बने हुए है और भाजपा के लिए परेशानी पैदा कर रहे हैं
उत्तराखंड में 19 अप्रैल को हो रहे चुनावों से चौंकाने वाले परिणाम आ सकते हैं। हालांकि ‘विशेषज्ञ’ भाजपा को 5 सीट दे रहे हैं लेकिन हकीकत यह है कि भाजपा के पास बताने के लिए कुछ है नहीं। अयोध्या में राम मंदिर के नाम पर उत्तराखंड तो क्या उत्तर प्रदेश में भी लोग वोट देने को तैयार नहीं है लेकिन ऐसा लगता है भाजपा के प्रशंसक उसे ही अपनी नैया का खेवनहार समझ रहे हैं। असल में उत्तराखंड में भाजपा अजेय है ये सोचना ही गलत है लेकिन ऐसी स्थिति कांग्रेस के थके हारे नेतृत्व के चलते बनी है जो समय पर जनमानस के प्रश्नों को पूरी शिद्दत के साथ उठाने मे असमर्थ रहा है। भाजपा मे नरेंद्र मोदी का उत्तराखंड से लगातार ‘रिश्ता’ बना रहा चाहे वो किसी भी प्रकार का हो लेकिन कांग्रेस नेतृत्व यहा कभी भी गंभीरता से नहीं आया। दिल्ली से ऐसे लोगों को उत्तराखंड पर थोपा गया जिन्हे वहा कि संवेदनशीलता और स्थानीय प्रश्नों की जानकारी भी नहीं है। भाजपा के पास संसाधन और सत्ता दोनों है लेकिन उनका अति विश्वास उन पर भारी पड़ सकता है। उत्तराखंड की पाँच संसदीय सीटे हैं लेकिन कोई भी ऐसी नहीं है जहा लड़ाई नहीं है। असल मे कांग्रेस के पास अभी भी नेतृत्व की कमी साफ दिखाई दे रही है। सत्ता का सुख भोग चुके नेता उत्तराखंड में कोई प्रेरणादायी नेतृत्व नहीं दे सके। हरीश रावत जरूर एक पहचान थे लेकिन उनका दौर अब जा चुका है और बेटे बेटी को राजनीति में ‘स्थापित’ करने के चक्कर में वह उनकी सेवा तक ही सीमित रह गए हैं।
उत्तराखंड की दो सीटों पर सबसे रोचक मुकाबला है। पौड़ी गढ़वाल सीट पर कांग्रेस ने राज्य मे पार्टी के पूर्व प्रमुख गणेश गोड़ियाल को उम्मीदवार बनाया है। गणेश गोड़ियाल जनता मे लोकप्रिय हैं और भारतीय जनता पार्टी के दिल्ली से थोपे गए उम्मीदवार पर भारी पड़ रहे हैं जिनके पास सत्ता बल, धन बल और दिल्ली के दरबारी पत्रकारों का खुला समर्थन भी है। इस संसदीय क्षेत्र मे राजपूत मतदाताओं को लुभाने के लिए राजनाथ सिंह को भी बुलाया गया जिन्होंने कहा कि ‘उत्तराखंड वासी’ केवल एक सांसद ही नहीं चुन रहे अपितु आगे खुद ही समझ लीजिए। मतलब ये कि अनिल बलूनी, मोदी दरबार के एक प्रमुख दरबारी हैं और इसलिए उनसे ये न पूछा जाए कि वह उत्तराखंड के लिए क्या करेंगे या उन्होंने क्या किया है। वैसे तो सवाल दूसरे व्यक्ति से भी होना चाहिए जो यहां से सांसद हैं कि आखिर उन्होंने किया क्या। यदि लोग केवल पार्टी या मोदी को वोट करे तो पूर्व सांसद को हटाया क्यों गया और उनकी असफलताओं का हिसाब वर्तमान प्रत्याशी से क्यों नहीं? दरअसल, गणेश गोड़ियाल के साथ मे अभी भी कांग्रेस के तथाकथित बड़े नेता नहीं आ पाए हैं। हरीश रावत, अपने पुत्र मोह मे हरिद्वार मे ही फंस के रह गए हैं और प्रीतम सिंह कोई ऐसे नेता नहीं हैं जिनके नाम पर पहाड़ी क्षेत्र के लोगों पर कोई प्रभाव पड़े। खैर, गणेश गोड़ियाल अच्छी फाइट दे रहे हैं और यदि लोगों ने समझदारी से वोट दिया तो वह चुनाव जीत सकते हैं।
अल्मोड़ा पिथौरागढ़ सीट पर कांग्रेस के उम्मीदवार प्रदीप टमटा पहले भी यहा का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं और एक बार राज्य सभा के सदस्य भी रह चुके हैं। वैचारिक तोर पर प्रदीप एक मजबूत जातिविरोधी सांप्रदायिकता विरोधी सोच के हैं और हमेशा जन पक्षीय सरोकारों से जुड़े रहे हैं। भाजपा उम्मीदवार अजय टमटा के पास दिखाने के लिए मोदी जी की तस्वीर के और कुछ नहीं है। क्योंकि पिथौरागढ़ क्षेत्र सीमांत इलाका है और यहा अनुसूचित जाति जनजाति के वोटरों की संख्या अधिक है और उस संदर्भ मे भाजपा का ट्रैक रिकार्ड अच्छा नहीं रहा है। उत्तराखंड के अंदर अनुसूचित जाति जनजाति के लिए आने वाला बजट कभी भी पूरा खर्च नहीं होता। ये भी खबरे हैं कि उसका इस्तेमाल दूसरे कार्यों के लिए भी होता है। राज्य मे न ही भूमि सुधार हुए और न ही इन वर्ग के लोगों के साथ कोई विशेष रियायत हुए। उनके आरक्षण पर भी सवाल खड़े किये जाते हैं। अब उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों मे भाजपा के नेताओ द्वारा चार सौ पार की सच्चाई भी सामने आने लगी है। प्रधान मंत्री ने तो कह दिया कि यदि ‘बाबा साहब अंबेडकर भी आ जाए’ तो संविधान नहीं बदल सकते लेकिन हकीकत ये है कि भाजपा और हिन्दुत्व का एक बहुत बड़ा वर्ग इस संविधान को भारत की आत्मा का कभी मानता ही नहीं है और इसे बदलने की वकालत कर्ता है। इसलिए चार सौ पार को लेकर भाजपा अपने दरबारी और भक्त काडर को यह समझा रही है कि संविधान बदलने के लिए उसे चार सौ चाहिए। संविधान को बदलने की क्या जरूरत है जब सरकार अपनी मर्जी से परिवर्तन कर रही है।
खैर, इन चुनावों मे उत्तराखंड के पास अवसर है सवाल पूछने का। सबसे बड़ा सवाल यही है कि विकास के नाम पर उत्तराखंड के विनाश की कहानी किसने लिखी? किसने दिया उत्तराखंड की पवित्र नदियों के व्यापार का ठेका। रैनी गाँव के लोगों का क्या हुआ? जोशीमठ पर आए संकट के समदान के लिए क्या किया गया? सड़क और रेल्वे के नेटवर्क के नाम पर उत्तराखंड के जल जंगल जमीन को लूटने की छूट किसने दी। क्या यूनिफॉर्म सिवल कोड उत्तराखंड की मांग थी या ये इसलिए लाया गया ताकि भुकानूनों और मूल निवास के प्रश्नों से ध्यान भटकाया जा सके। तराई मे चकबंदी और सीलिंग के सवाल बहुत महत्वपूर्ण हैं लेकिन मजाल क्या कि उस पर चर्चा हो सके और हर एक सवाल को मुसलमानों से जोड़ कर ऐसा बना दिया गया मानो वे सभी उत्तराखंड मे आकर जमीनो को हड़प रहे हों। सरकार देख ले कि पिछले 20 वर्षों मे उत्तराखंड मे अवैध हॉटेलों और रिज़ॉर्ट आदि किन लोगों के हाथ मे हैं। इसका डाटा निकाल सबके सामने रखे और बताए कि इनमे से पहाड़ के लोगों के हाथ मे कितने हैं। सभी जानते हैं कि रामदेव के पास कितनी जमीन है और बिना सरकार की कृपया के वो ले नहीं सकता है। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी उत्तराखंड की सरकार और यहा के अधिकारियों के काम काज पर एक साफ टिप्पणी है।
उत्तराखंड में रोजगार के प्रश्न पर सरकार चुप बैठी है। पेपर लीक की घटनाओं पर रोक नहीं लग पाई। अग्निवीर योजना ने तो उत्तराखंड के हजारों युवाओं के सपनों पर पानी फेर दिया है जो सेना में भर्ती होकर देश सेवा का जज्बा रखते थे और अपने भविष्य का निर्माण भी करना चाहते थे लेकिन मजाल क्या कि भाजपा के नेता इन सवालों पर कुछ बोलते। राजनाथ सिंह ने बेशर्मी से कह दिया कि ये योजना तो जारी रहेगी। अपने बेटे के लिए और अपनी कुर्सी बचाने के लिए अपने ही प्रदेश के नौजवानों के साथ कितना धोखा ये नेता करते हैं और लोग इनके दर्शन के लिए उतावले रहते हैं। बार बार राम मंदिर के निर्माण का प्रश्न उत्तराखंड मे कोई मायने नहीं रखता। वो प्रदेश जो पौराणिक रूप से शिव का धाम रहा हो और हमारे सारे महत्वपूर्ण धर्मस्थल जहा पर हों वहाँ राम मंदिर लोगों को बहुत लुभा पाएगा ऐसा नहीं लगता। उत्तराखंड के लोग खान पान और रहन सहन के विषय में उन क्षेत्रों के बाबाओं से कुछ ज्ञान नहीं लेना चाहते जो उन्हे ये बताएंगे के अब तक तो वो सही भोजन नहीं कर रहे थे। उत्तराखंड के लोग शिव परंपरा के हैं जो उदार होते हैं और अपने स्वाभिमान के साथ कोई समझौता नहीं करते।
आज उत्तराखंड के लोग ये प्रश्न भी सरकार से पूछ रहे हैं कि बाबा केदार पर सोने के पत्तर चढ़ाने के नाम पर पीतल दान करने वाले कौन है? यदि ये मुद्दा किसी दूसरे समय होता तो भाजपा उस पर पूरे देश भर मे आंदोलन कर डालती और हिन्दुओ के देवी देवताओ के अपमान का प्रश्न बनाकर उनके वोटों का सौदा करती लेकिन आज उत्तराखंड मे केदारनाथ के मंदिर से सोना गायब होने की घटना या सोने के स्थान पर पीतल चढ़ा देने की पूरी घटना को मीडिया ने भुला दिया। भाजपा ने बेशर्मी से पूरी खबर दबा दी। जिस समय केदारधाम मे मंदिर मे सोने की कोटिंग या उसके पत्र चढ़ाने की बात हो रहे थी उस समय वहा के पुरोहितों ने उसका विरोध किया था। उनका कहना था कि ये इस ऐतिहासिक मंदिर की ऐतिहासिकता के साथ खिलवाड़ होगा लेकिन प्रदेश सरकार ने उस विरोध के बावजूद ऐसा होने दिया। अब इस बारे मे चुप्पी साध ली जब बाद मे यह पता चला कि जिसे सोना बोलकर प्रचारित किया गया वह असल मे पीतल है। जो हिन्दुओ की इतनी बड़ी आस्था के साथ खिलवाड़ करे उन पर कोई कार्यवाही नही होती। अगर इस विषय मे आ रही खबरें गलत हैं तो सरकार बताए कि असलियत क्या है? क्या ये सोना भी इलेक्टोरल बॉन्ड की तरह तो नहीं था?
उत्तराखंड की बेटी अंकिता भंडारी के साथ हुए अत्याचार के अपराधियों को भाजपा की सत्ता का प्रश्रय रहा है। पूरे पहाड़ के अंदर लोगों मे इस बात को लेकर इतना गुस्सा है कि मोदी की गारंटी बोलकर उसे गायब नहीं किया जा सकता। आखिर अंकिता भंडारी के हत्यारे कौन है और क्यों सरकार उन्हे बचा रही है। असल मे अंकिता भंडारी का प्रश्न अब पहाड़ बनाम मैदान के मतभेदों मे बदल चुका है। उत्तराखंड राज्य का गठन हिमालय की अस्मिता के सवाल से पैदा हुआ है लेकिन धीरे धीरे करके वो गायब होता जा रहा है। पहाड़ों मे रिज़ॉर्ट संस्कृति के मालिक बड़े पैसे वाले लोग हैं जो मुख्यतः मैदानी भागों से हैं। नदियों, पहाड़ों को काट काट कर बड़े बड़े होटल और रिज़ॉर्ट बनाए जा रहे हैं। पहाड़ का युवा पलायन कर रहा है और उसके लिए पलायन आयोग बना भी था लेकिन कुछ हुआ नहीं। आज भी पहाड़ मे 2000 से अधिक गाँव भूत गाँव कहे जाते हैं। उत्तराखंड मे पहाड़ी क्षेत्रों की आबादी लगातार कम हो रही है जबकि उसके मुकाबले मैदानी क्षेत्रों की आबादी हर वर्ष बड़ी रफ्तार से आगे बढ़ रही है जिसके चलते आने वाले समय मे जब भी परिसीमन होगा तो पहाड़ी क्षेत्रों का राज्य विधान सभा मे प्रतिनिधित्व कम होगा और मैदानी क्षेत्रों का बढ़ेगा। ये आने वाले समय मे व्यापक असंतोष का कारण बन सकता है। भाजपा सरकार की और से पहाड़ी लोगों को ऐसा कोई वादा नहीं है कि ऐसा नहीं होगा। अंकिता मामले मे भी उत्तराखंड के पहाड़ और मैदान की खाई दिखाई देती है। पहाड़ मे लोग ये मानते हैं कि मैदानी भागों के लोग वहा आकार अपने पैसे के दम पर बदतमीजी करते हैं और उत्तराखंड के पहाड़ों मे खुलेपन को इस नजर से देखते हैं मानो कोई इनहे अपना शोषण करने को आमंत्रित कर रहा हो। हिमालयी क्षेत्रों मे महिलाये और पुरुष साथ साथ काम करते हैं और यौनिक हिंसा और कानून व्यवस्था की स्थिति आम तौर पर मैदानी इलाकों की तुलना मे बहुत अच्छे होती है। इसलिए अंकिता भण्डारी पर हुए अत्याचार से हिमालय सहमा है क्योंकि इस प्रकार की घटनाए वहा पर नहीं होती हैं। भाजपा इस संदर्भ मे पहाड़ के लोगों को कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाई क्योंकि उनकी पार्टी के बड़े नेता के पुत्र इसमे आरोपित है और पार्टी उसे पूरी तरह से बचा रही है। इसलिए पहाड़ की इस चिंता पर पार्टी चुप है और उसने पहाड़ बनाम मैदान के इस प्रश्न से ध्यान भटकाने के लिए हिन्दू-मुस्लिम का कार्ड खेला जिसमे वह कुछ हद तक कामयाब हो गई फिर भी मूलनिवास का सवाल, अंकिता को न्याय, केदारनाथ का सोना चोरी, पहाड़ों का दोहन और अग्निवीर आदि प्रश्न पहाड़ मे अभी भी मुख्य बने हुए है और भाजपा के लिए परेशानी पैदा कर रहे हैं। जब उत्तराखंड राज्य बना था तो पूरे हिमालय मे एक बात पर सहमति थी कि गैरसैन यहा की राजधानी बनेगा। लेकिन अब विधायक, नेता, अधिकारी नहीं चाहते कि वे देहरादून छोड़कर वहाँ जाएँ। पहले विधान सभा का एक सत्र वहाँ होता था लेकिन वो भी सरकार ने नहीं होने दिया क्योंकि ‘वहाँ ठंड’ अधिक थी। हकीकत यह है कि बड़े नेता और अधिकारी नहीं चाहते कि वैसे ऐसी जगह पर रहे जहा जनता उनसे आसानी से संवाद करे। आज के मंत्री और विधायक केवल दूर से हैलिकोप्टर दिखाकर और जनता को हाथ दिखा कर दूर से नमस्कार कर भागना चाहते हैं।
गैरसेन राजधानी बनने से राजधानी के विषय मे बहुत से मिथ टूट सकते थे। ये एक ऐसे राजधानी होता, यदि बन गई कि विधायक, मंत्री, राज्यपाल आपस मै बैठकर बातचीत कर सकते थे और उन्हे चौबीस घंटे बड़ी बड़ी सुरक्षा और तामझाम के बिना भी जनता से बात हो सकती थी लेकिन आज की सत्ता केवल पूंजीवादी ही नहीं है समांतवादी भी है जहा लाल बत्ती और बड़ी बड़ी सुरक्षा आपनी हैसियत दिखाती और इन बातों का सामान्यीकरण हो गया है जो रॉड शो आदि मे दिखाई देता है जहा बड़े नेता ‘मसीहा’ के रूप मे प्रकट होते हैं और ‘असहाय’ जनता घंटों उनका इंतेजार करती है। शायद इसी मसीहाई राजनीति को हम ‘गैर सैन’ के कान्सेप्ट से खत्म कर सकते थे लेकिन सत्ता की चकाचौंध मे नेता नहीं चाहते कि जनता उनसे आसानी से मिल सके। असल मे मैदान और पहाड़ की खाई को आप इस प्रकार से भी देख सकते हैं कि अधिकांश ‘राष्ट्रीय’ नेता उत्तराखंड के मैदानी इलाकों मे ही अपनी सभाएं करके चले गए और ऊपर पहाड़ों मे जाने का समय नहीं निकाल पाए। और ये शायद इसलिए, कि बड़ी बड़ी रैलिया तो पहाड़ों मे मुश्किल है। आम सभाए हो सकती हैं और ‘बड़े नेता’ तो लाखों की भीड़ को संबोधित करने के आदि बन गए हैं इसलिए वे 5 सीटों के लिए इतनी मेहनत नहीं करना चाहते।
उत्तराखंड मे लोगों मे व्यापक असंतोष हैं लेकिन कांग्रेस पार्टी के पास कोई भी प्रेरणादाई नेतृत्व नहीं है। हरीश रावत अपनी बाजी हार चुके हैं और अब केवल अपने बेटे को स्थापित करने की लड़ाई लड़ रहे हैं। उन्हे प्रदेश मे चुनाव प्रचार करना चाहिए था लेकिन वो नहीं कर पा रहे। ये जरूर हैं कि कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशी गणेश गोड़ियाल और प्रदीप टमटा अपने क्षेत्रों मे अच्छी टक्कर दे रहे हैं और सीट निकालने की संभावना है। लेकिन उत्तराखंड की जिस सीट के नतीजे पूरे प्रदेश के लिए निर्णायक हो सकते हैं वह है टिहरी गढ़वाल की सीट जहा से भाजपा प्रत्याशी और यहाँ की महारानी माला राज लक्ष्मी शाह चुनाव मे है। हालांकि कांग्रेस ने यहा पर अपना एक प्रत्याशी दिया है लेकिन वो मुखबले मे नहीं दिखाई देते। टिहरी सीट इस समय देश भर मे चर्चा का विषय बन चुकी है क्योंकि युवा प्रत्याशी बॉबी पँवार ने भाजपा के लिए सरदर्द पैदा कर दिया है। 26 वर्षीय बॉबी पँवार एक निम्न मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि से आते हैं जिन्होंने अपने बचपन मे ही पिता को खो दिया था। उनकी माँ आंगनवाड़ी कार्यकर्ता है और पिछले कुछ वर्षों मे वह उत्तराखंड के युवाओ की आवाज बनके उभरे हैं। उन्होंने पेपर लीक के खिलाफ पूरे प्रदेश के युवाओ के साथ आंदोलन किया जिसके चलते उनपर कई फर्जी मुकदमे दर्ज किये गए। बॉबी पँवार उत्तराखंड मे चल रही बदलाव की आहट का प्रतीक हैं। उत्तराखंड को भाजपा अपना अजेय ग़ढ़ समझती थी लेकिन उत्तराखंड भाजपा को बड़ा झटका दे सकता है। बदलाव की इस हवा को कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व को समझना चाहिए था और बॉबी जैसे युवाओं को तुरंत समर्थन दे देना चाहिए था जिसके चलते उन्हे पूरे प्रदेश में युवाओं की गुड विल मिलती। टिहरी मे कांग्रेस कुछ कर नहीं पाएगी और इसलिए समय चलते वह अपना उम्मीदवार यदि बॉबी पँवार के पक्ष मे वापस ले ले तो न केवल भाजपा के लिये सीट निकालना मुश्किल होगा अपितु उत्तराखंड के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय भी लिख लिया जाएगा। अभी तक के प्रचार अभियान को देखकर तो ऐसा लगता है कि बॉबी पँवार का प्रकार टियारी की जनता कर रही है। पहले से उन्हे लड़ाई मे नहीं माना जा रहा था लेकिन पिछले कुछ दिनों मे उनके रोड शो और युवाओ का जोश ये दिखा रहा है कि यदि उनके समर्थक वोट करने के बूथों तक पहुँच गए तो टिहरी की राजशाही लोकशाही के आगे टिक नहीं पाएगी।
टिहरी का चुनाव इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह राजशाही के विरुद्ध लोगों की निर्णायक लड़ाई होगी। हमे समझना पड़ेगा कि ये वही राजशाही है जिसके विरुद्ध प्रजा परिषद का आंदोलन चला था और श्रीदेव सुमन जैसे लोगों की शहादत हुई। याद रहे कि टिहरी की राजशाही शुरुआत मे भारत राज्य मे मिलने को तैयार नहीं थी और जनता के विद्रोह के बाद ही उसे मजबूर होकर मिलना पड़ा और अंततः एक अगस्त 1949 को टिहरी राज्य भारत के गणतंत्र का हिस्सा बना और उत्तर प्रदेश राज्या का एक जिला।
टिहरी के राजा के सिपहसालारों की तानाशाही के विरुद्ध 30 मई 1930 को बड़कोट के पास यमुना तट पर तिलाड़ी नामक स्थान पर हजारों लोग् आजाद पंचायत करने हेतु एकत्र हुए थे लेकिन राजा के अधिकारियों ने लोगों की मांगों को सुनने के बजाए उन्हे चारों और से अपने सैनिकों से घिरवाकर उनपर गोला बारी की। तिलाड़ी को उत्तराखंड का जलियाँवाला भी कहा जाता है जिसमे आंकड़ों के मुताबिक 18 लोगों मारे गए लेकिन सैंकड़ों का कोई अता पता नहीं चला। दुर्भाग्यवश, आज भी तिलाड़ी को याद करने वाले लोग उस स्थल पर जाकर अपनी श्रीधजनली देते हैं लेकिन सरकार ने इतने महत्वपूर्ण स्थान को जनता से दूर रखने और उसे भुला देने के पूरे प्रयास किये। मैंने पिछले वर्ष अकतूबर मे तिलाड़ी का दौरा किया। ये मुझे वहीं जाकर पता चला कि तिलाड़ी केवल साल मे एक दिन के लिए ही जाना जाता है और बाकी समय वहा जाने का रास्ता भी नहीं है और लगभग डेढ़ किलोमीटर की यात्रा आपको पैदल करनी पड़ती है। यमुना नदी के तट पर बने इस स्मारक पर खचचर और घोड़े घूम रहे थे और बड़ी बड़ी घास उग आई थी। सवाल ये है कि आखिर इतने बड़े और महत्वपूर्ण स्थल की इतनी बड़ी उपेक्षा क्यों? विजय पाल रावत, एक स्थानीय सामाजिक और रजिटिक कार्यकर्ता है जो बताते हैं कि राज परिवार का कोई भी सदस्य आज तक इस स्थान पर नहीं आया है। दुर्भाग्यवश, वही राज परिवार स्वतंत्रता के बाद से यहां का प्रतिनिधित्व करता है। इससे बड़ी त्राशदी क्या होगी कि राजपरिवार या उनके राजनैतिक प्रतिनिधियों ने इन प्रश्नों पर अपना मुंह खोलना तो दूर, इस प्रकार की जघन्य घटना पर कोई दस्तावेज आदि भी मुहैया करवाने की कोशिश नहीं की है। जब हम अंग्रेजों से जलियावाला कांड या अन्य कांडों पर माफी मँगवा सकते हैं तो राज परिवार इन बातों पर अपना मुंह क्यों नहीं खोलता। क्यों उत्तराखंड की राजनैतिक और सामाजिक ऐलीट ने तिलाड़ी के सच को छुपा के रखा है। तिलाड़ी के असली गुनहगार कौन थे। क्या ये चुप्पी इसलिए क्योंकि इनमे जो असली खलनायक है उनके स्वजातीय लोग इन प्रश्नों पर अब चर्चा नहीं करना चाहते या चालाकी से बाते घुमा देते हैं। इसलिए टिहरी मे बदलाव का समय आ गया है। आम जनता के एक व्यक्ति यदि इन चुनावों मे जीतता है तो यह असल में प्रजा परिषद की उस जीत के जैसी होगी जिसके दबाव के चलते राजा ने भारत में विलय का निर्णय लिया।
टिहरी से बॉबी पँवार की जीत इस हिमालयी प्रदेश मे एक नई राजनीति का सूत्रपात कर सकती हैं हालांकि अभी भी तीसरे दल के लिए प्रदेश मे जगह नहीं है और ये कई बार साबित हो चुका है। उत्तराखंड मे लोगों ने बहुत समझदारी से वोटिंग की है। 1980 मे तमाम तामझाम के बावजूद गढ़वाल सीट पर हेमवती नंदन बहुगुणा चुनाव जीते थे हालांकि उस चुनाव के बाद यहा पर ब्राह्मण ठाकुर के अंतरदवंद बहुत उभर गए थे लेकिन शायद पुनः धीरे धीरे कम हो रहे हैं। उत्तराखंड मे शिल्पकार समुदाय की आबादी भी अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत है इसलिए केवल ब्राह्मण ठाकुरों के सवाल ही यहा के सवाल नहीं है अपितु दलित पिछड़ो का प्रश्न भी अति महत्वपूर्ण है। एक बात अवश्य ध्यान रखनी चाहिए और वो ये कि ‘दिल्ली के कनेक्शन’ या दिल्ली मे मंत्री पद या दिल्ली का मीडिया, आदि से प्रभावित हुए बगैर लोग उसे चुने जो उनके प्रश्नों पर उनके साथ खड़ा है उत्तराखंड की पांचों सीटों पर भाजपा के लिए राह इतनी आसान नहीं होगी जितना दिल्ली के पोल सर्वे हमे बताने की कोशिश कर रहे हैं। उत्तराखंड के लोगों को चाहिए कि ध्यान भटकाने वाली खबरों और सर्वे पर न जाकर अपने भले भूरे की सोचकर और दसवर्षों का हिसाब मांगकर वोट करेंगे तो वे लाभ मे रहेंगे। ये चुनाव उत्तराखंड और देश के भविष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं इसलिए सभी लोग समझदारी से वोट कर ऐसे लोगों को चुने जो वी आई पी न हो और जनता के दुख दर्द को समझते हो और इसके लिए जरूरी है भ्रष्ट जातिवादी मीडिया के भ्रामक प्रचार से दूर रहकर बेखौफ वोट करें ताकि आप एक सही निर्णय ले सके जो आपके प्रदेश और लोकतंत्र को मजबूत कर सके।