राय

चुनाव और भारतीय मुसलमानों के समक्ष विकल्प

हमने लव जिहाद के चारों ओर बुना गया नफरत और भय का जाल देखा है, हमने जिहाद के प्रकारों के टेबिल देखे जिनमें यूपीएससी जिहाद और लैंड जिहाद शामिल था. सबसे मजेदार था कोरोना जिहाद. हमें बताया गया कि भारत में तबलीगी जमात में आए मुसलमानों ने कोरोना फैलाया! कई रहवासी संघों ने मुसलमान ठेले वालों का आवासीय परिसरों में प्रवेश रोक दिया था. इस्लामोफोबिया नई ऊंचाईयां छू रहा है. मुसलमान डरे हुए हैं और केवल अपनों के बीच रहना चाहते हैं. अधिकांश शहरों में मिश्रित आबादी वाले इलाकों में मुसलमानों को न तो मकान खरीदने दिए जा रहे हैं और ना किराए पर मिल रहे हैं. मुसलमानों की आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति में भी गिरावट आ रही है

जैसे-जैसे 2024 के आमचुनाव नजदीक आ रहे हैं, कुलीन वर्ग के कुछ मुसलमान अपने समुदाय से अपील कर रहे हैं कि भाजपा के बारे में अपनी राय पर वह एक बार फिर विचार करे (तारिक मंसूर, ‘मुस्लिम्स शुड रीलुक एट बीजेपी’, द इंडियन एक्सप्रेस, फरवरी 01, 2024). पुनर्विचार के आग्रहियों का कहना है कि भारतीय मुसलमानों के साथ किसी तरह का भेदभाव नहीं हो रहा है. उनका यह भी कहना है कि सरकार की खाद्यान्न, आवास, रसोई गैस, पेयजल इत्यादि से संबंधित समाज कल्याण योजनाओं से मुसलमानों को भी लाभ मिल रहा है. इसके अलावा, भाजपा पसमांदा और सूफी मुसलमानों की ओर विशेष ध्यान दे रही है और यह भी कि भारत में 2014 के बाद से कोई बड़ा साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ है. उनका दावा है कि पिछला एक दशक साम्प्रदायिक हिंसा की दृष्टि से स्वतंत्रता के बाद भारत का सबसे शांतिपूर्ण दौर रहा है.

इस तरह की अपीलें अर्धसत्यों पर आधारित हैं और उन मूल मुद्दों को नजरअंदाज करती हैं जो भारतीय मुसलमानों के जीवन को सबसे ज्यादा प्रभावित कर रहे हैं. यह हो सकता है कि कुलीन वर्ग के कुछ मुसलमानों को पहले की तुलना में कम समस्याओं का सामना करना पड़ रहा हो मगर उससे असुरक्षा, हाशियाकरण और अपने मोहल्लों में सिमटने की मजबूरी जैसी मुसलमानों से जुड़ी समस्याएं अदृश्य नहीं हो जातीं. इस बात में कोई दम नहीं है कि 2014 के बाद से मुसलमानों के खिलाफ हिंसा की कोई बड़ी घटना नहीं हुई है. दिल्ली में शाहीन बाग आंदोलन के पश्चात मुसलमानों के खिलाफ भयावह हिंसा हुई थी जिसे भाजपा के नेताओं ने भड़काया था (“गोली मारो…”). इस हिंसा में मारे गए 51 लोगों में से 37 मुसलमान थे.

हर दिन किसी न किसी बहाने मुसलमानों की संपत्ति जमींदोज करने के लिए बुलडोजर खड़े हो जाते हैं. कुछ भाजपा शासित राज्यों के बीच तो यह प्रतियोगिता चल रही है कि कौन मुसलमानों की संपत्ति को ज्यादा नुकसान पहुंचाता है. दिल्ली उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश एपी शाह ने एक न्यूज पोर्टल को बताया कि, ‘‘किसी अपराध में शामिल होने का आरोप किसी भी स्थिति में संबंधित व्यक्ति की संपत्ति को नुकसान पहुंचाने का आधार नहीं हो सकता”. गाय और गौमांस पर राजनीति का एक नतीजा है सड़क पर विचरण करते असंख्य आवारा मवेशी और उनके कारण बढ़ती सड़क दुर्घटनाएं. दूसरा नतीजा है खेतों में खड़ी फसलें चट करते आवारा गायों और बैलों के झुंड. और तीसरा नतीजा है जान लेने के एक नए तरीके – लिंचिंग – का भारत में बढ़ता उपयोग. मोहम्मद अखलाक से शुरू कर ऐसे अनेक मुसलमान (और दलित) हैं जो खून की प्यासी भीड़ के हाथों मारे गए हैं.

मोनू मानेसर, जो नासिर और जुनैद के खिलाफ हिंसा में शामिल था, की दास्तां दिल दहलाने वाली है. हर्षमंदर, जो पीड़ितों के परिवारों से मिले थे, ने लिखा, ‘‘मोनू मानेसर के सोशल मीडिया पेज देखकर मैं सन्न रह गया. वो और उसकी गैंग के सदस्य खुलेआम आधुनिक बंदूकें लहराते हुए पुलिस की गाड़ियों के सायरन जैसी आवाज करने वाली जीपों में घूमते हैं, गाड़ियों पर गोलियां चलाते हैं और जो उनके हत्थे चढ़ जाता है उसकी बेदम पिटाई करते हैं. सबसे बड़ी बात तह कि अपनी इन हरकतों की वे लाईव स्ट्रीमिंग भी करते हैं.”

गाय से जुड़ी हिंसा में मौतों और घायलों की संख्या के बारे में कोई अधिकृत आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि सरकार उन्हें छुपाना चाहती है. परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि इस तरह की घटनाओं से मुसलमान बहुत डर गए हैं. मेवात, जहां बड़ी संख्या में मुसलमान डेयरी उद्योग से जुड़े हुए हैं, उन स्थानों में से एक है जहां के मुसलमान गंभीर मुसीबत में हैं. राजस्थान में शंभूलाल रैगर ने अफराजुल की जान लेते हुए अपना वीडियो बनाया. अलीमुद्दीन अंसारी की हत्या के आरोपियों का तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री जयंत सिन्हा ने अभिनंदन किया था. इस तरह की घटनाएं अब आम हो चली हैं.

हमने लव जिहाद के चारों ओर बुना गया नफरत और भय का जाल देखा है, हमने जिहाद के प्रकारों के टेबिल देखे जिनमें यूपीएससी जिहाद और लैंड जिहाद शामिल था. सबसे मजेदार था कोरोना जिहाद. हमें बताया गया कि भारत में तबलीगी जमात में आए मुसलमानों ने कोरोना फैलाया! कई रहवासी संघों ने मुसलमान ठेले वालों का आवासीय परिसरों में प्रवेश रोक दिया था.

इस्लामोफोबिया नई ऊंचाईयां छू रहा है. मुसलमान डरे हुए हैं और केवल अपनों के बीच रहना चाहते हैं. अधिकांश शहरों में मिश्रित आबादी वाले इलाकों में मुसलमानों को न तो मकान खरीदने दिए जा रहे हैं और ना किराए पर मिल रहे हैं. मुसलमानों की आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति में भी गिरावट आ रही है. मौलाना आजाद फैलोशिप, जो उच्च शिक्षा के लिए थी और जिसके अधिकांश लाभार्थी मुस्लिम विद्यार्थी होते थे, बंद कर दी गई है. आर्थिक दृष्टि से भी मुसलमानों की हालत गिरती जा रही है. गैलप डेटा के अनुसार ‘‘सन् 2018 और 2019 में भारतीय अर्थव्यवस्था की गति धीमी पड़ने के बाद दोनों समूहों (हिन्दू और मुसलमान) में यह धारणा बलवती हुई कि उनका जीवनस्तर गिरा है. सन् 2019 में 45 प्रतिशत भारतीय मुसलमानों ने कहा कि उनका जीवनस्तर पहले की तुलना में खराब हुआ है. सन् 2018 में यह प्रतिशत 25 था. हिंदू भारतीयों में 2019 में यह कहने वालों का प्रतिशत 37 था जो उसके पिछले साल (2018) से 19 प्रतिशत अधिक था”.

एनआरसी व सीएए के माध्यम से मुसलमानों को मताधिकार से वंचित करने के प्रयास भी चल रहे हैं. असम में एक लंबी कवायद के बाद पता चला कि जिन 19 लाख लोगों के पास जरूरी दस्तावेज नहीं थे उनमें से अधिकांश मुसलमान थे. सीएए में ऐसे हिन्दुओं के लिए बच निकलने का रास्ते है मगर ऐसे मुसलमानों के लिए हिरासत केन्द्र बनाए जा रहे हैं.

वर्तमान में पसमांदा मुसलमानों के लिए जो सहानुभूति दिखाई जा रही है, वह केवल धोखा है. हम जानते हैं कि बहुसंख्यकवादी राजनीति से प्रेरित हिंसा की घटनाओं के मुख्य शिकार पसमांदा ही हैं. कहने की ज़रुरत नहीं कि अशरफ मुसलमानों को पसमांदाओं के साथ बेहतर व्यवहार करने की ज़रुरत है लेकिन पूरे समुदाय के लिए सबसे बड़ा खतरा असुरक्षा का भाव है जो पसमांदाओं और अशरफों दोनों के प्रभावित करता है और जो दकियानूसी तत्वों को पनपने का मौका देता है. मुस्लिम समुदाय में सामाजिक सुधारों की आवश्यकता है. मगर यह ज़रुरत तब तक हाशिये पर ही रहेगी जब तक कि समुदाय के अस्तित्व और नागरिकता पर खतरा मंडराता रहेगा.

विभिन्न राज्यों की भाजपा सरकारें ऐसे कई कदम उठा रही हैं जो मुसलमानों के साथ भेदभाव करने वाले हैं. राम मंदिर के उद्घाटन के बाद भाजपा-आरएसएस की बहुसंख्यकवादी राजनीति और तेजी पकड़ सकती है. राजनैतिक संस्थाओं में मुसलमानों की भागीदारी पहले ही कम हो रही है. हमें नहीं भूलना चाहिए कि इस हिन्दू राष्ट्रवादी पार्टी का एक भी सांसद मुसलमान नहीं है.

पहले की सरकारें भी मुसलमानों की समस्याओं को हल नहीं कर सकीं. इसकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा रहा है संघ और भाजपा. सच्चर समिति की सिफारिशों का जो हश्र हुआ वह इस बात का उदाहरण है कि इस समुदाय के पक्ष में किसी सकारात्मक कदम को किस तरह रोका जाता है. इस रिपोर्ट के प्रस्तुत किये जाने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने कहा कि वंचित और हाशियाकृत समुदायों का राष्ट्रीय संसाधनों पर पहला हक है. संघ ने प्रचार यह किया कि मनमोहन सिंह का कहना है कि इस देश के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला हक है. इस समुदाय के दुःख-दर्द कम करने के हर प्रयास में अड़ंगे लगाए गए.

भाजपा का कहना है कि मुफ्त राशन इत्यादि जैसे उसकी सरकार की योजनाओं का लाभ सबको मिल रहा है. ये योजनाएं, बल्कि ‘लाभार्थी’ की पूरी परिकल्पना ही, प्रजातान्त्रिक “अधिकार-आधारित दृष्टिकोण” के खिलाफ है. सभी समुदायों को इस बात पर विचार करना चाहिए कि वे किसे वोट दें. जहाँ तक मुसलमानों को बहलाने-फुसलाने के प्रयासों का सवाल है, उसके आधार खोखले हैं.

 

अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया; लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं

Ram Puniyani

The former Professor, IIT Mumbai is a social activist and commentator

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