घटते भारत के खेत के आकार और बढ़ती भूख

'वेस्टलैंड एटलस 2019' के मुताबिक, पंजाब जैसे कृषि प्रधान राज्य में 14,000 हेक्टेयर, पश्चिम बंगाल में 62,000 हेक्टेयर और केरल में 42,000 हेक्टेयर खेती योग्य भूमि घट गई है. वहीं, सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा सबसे अधिक खतरनाक लग सकता है, जहां हर साल विकास कार्यों पर 48,000 हेक्टेयर कृषि भूमि घटती जा रही है। और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण' के आंकड़ों से पता चलता है कि आंध्र प्रदेश में 82 फीसदी किसान कर्जदार हैं. इसी तरह, पंजाब और महाराष्ट्र में यह आंकड़ा औसतन 65 प्रतिशत है. यही वे राज्य हैं, जहां किसान सबसे ज्यादा आत्महत्या करते हैं

Date:

Share post:

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा तीन कृषि कानूनों को वापस लेने के निर्णय को अभी ज्यादा वक्त नहीं गुजारा है. इस बीच प्रधानमंत्री के निर्णय के बाद राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर लंबे समय से आंदोलन कर रहे किसान घर लौट गए हैं. एक अंतराल के बाद अब यही वह स्थिति है, जिस स्थिति में एक बार फिर गंभीरतापूर्वक यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि क्या कृषि क्षेत्र पर छाया संकट टल गया है?

दरअसल, यह प्रश्न नया नहीं है, लेकिन इसे एक नये आयाम से देखें जाने की आवश्यकता है, नया आयाम यह कि कृषि क्षेत्र का यह संकट क्या इतना अधिक गहरा है कि देश की बढ़ती आबादी को कृषि से भोजन उपलब्ध कराना एक नई चुनौती होगी?

यह त्रासदी ही है कि आजादी के बाद देश खाद्यान्न के मामले में पूरी तरह आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है, बल्कि आज कृषि भूमि के अन्य उपयोगों में तेजी से परिवर्तन हो रहा है, किसान कृषि से दूर हो रहे हैं, जिससे भारत में खाद्य सुरक्षा के लिए खतरा बढ़ सकता है. इतना ही नहीं, कृषि भूमि का ह्रास भारत के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने को भी प्रभावित कर रहा है.

हालांकि, इस दौरान सरकार द्वारा बंजर भूमि को कृषि योग्य भूमि में बदलने से जुड़ी सफल कहानियां भी हैं, बावजूद इसके यह भी एक तथ्य है कि हमारे देश में खेती योग्य भूमि साल दर साल घट रही है, जैसा कि भूमि संसाधन विभाग द्वारा प्रकाशित ‘वेस्टलैंड एटलस 2019’ में उल्लेख किया गया है. वहीं, ‘ग्रामीण विकास मंत्रालय’ और ‘इसरो’ का राष्ट्रीय सुदूर संवेदन केंद्र भी इस बात की पुष्टि करता है कि जनसंख्या वृद्धि के कारण भोजन की मांग बढ़ रही है. ऐसे में यह आशंका अनदेखी नहीं की जा सकती है कि खाद्य सुरक्षा के मामले में विश्व के अन्य देशों पर हमारी निर्भरता बढ़ सकती है.

पंजाब से लेकर पश्चिम बंगाल तक का हाल

अब हम आंकड़ों पर आते हैं. ‘वेस्टलैंड एटलस 2019’ के मुताबिक, पंजाब जैसे कृषि प्रधान राज्य में 14,000 हेक्टेयर, पश्चिम बंगाल में 62,000 हेक्टेयर और केरल में 42,000 हेक्टेयर खेती योग्य भूमि घट गई है.  वहीं, सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा सबसे अधिक खतरनाक लग सकता है, जहां हर साल विकास कार्यों पर 48,000 हेक्टेयर कृषि भूमि घटती जा रही है.

पूरे देश का ही हाल देखें तो, अधिकांश उपजाऊ खेतों का अधिग्रहण घरों, कारखानों, सड़कों के लिए हो रहा है. यहां इस बात की भी पड़ताल करनी चाहिए कि कृषि भूमि के घटने से प्रति व्यक्ति आय क्यों बढ़ती है, लेकिन फिर बेरोजगारी की दर भी बढ़ जाती है.

यह भी कहा जा रहा है कि मनरेगा के तहत मजदूरों को कृषि से अलग दूसरे काम बड़ी संख्या तक मिलने लगे हैं, जिससे खेतों में खेतिहर मजदूरों की श्रम शक्ति घट रही है और किसानों को खेतिहर मजदूर न मिलने के कारण भी खेती छोड़नी पड़ रही है.

भारत में कृषि क्षेत्र का संकट खाद्य सुरक्षा
साभार: इंडियन एक्सप्रेस

ग्रामीणों के हाथ से जा रही जमीन

अब गौर करने वाली बात यह है कि 1992 में, ग्रामीण परिवारों के पास 117 मिलियन हेक्टेयर भूमि थी, जो 2013 तक घटकर केवल 92 मिलियन हेक्टेयर रह गई. जाहिर है कि महज दो दशक के अंतराल में 22 मिलियन हेक्टेयर भूमि ग्रामीण परिवारों के हाथ से निकल गई.

यदि यही सिलसिला जारी रहा तो कहा जा रहा है कि अगले साल यानी वर्ष 2023 तक भारत में खेती का रकबा 80 मिलियन हेक्टेयर ही रह जाएगा.

आखिर इतनी खेती की जमीन कहां जाती है और इसके पीछे के सहायक कारण क्या हैं? यदि हम कारणों में जाएं तो पहला कारण है बहुत सारी कृषि आधारित गतिविधियों और उससे जुड़े व्यवसायों का नुकसान में जाना है, साथ ही उत्पादन की अपर्याप्त प्रक्रिया और जलवायु परिवर्तन आदि दूसरे कारण हैं.

150 करोड़ आबादी के लिए खाद्य सुरक्षा कैसे संभव?

लेकिन, यहां हमें विकास की अवधारणा और प्रक्रिया को भी ध्यान देने की जरूरत है, जिसके तहत उदाहरण के लिए छह प्रस्तावित औद्योगिक गलियारों को चिन्हित किया जा सकता है, जिसमें 2014 मिलियन हेक्टेयर कृषि भूमि आती है, औद्योगिकीकरण बनाम कृषि एक पुरानी बहस का विषय है, लेकिन तथ्य यही है कि औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया भी कहीं-न-कहीं कृषि भूमि के घटने का एक महत्त्वपूर्ण कारण है.

दूसरी तरफ, कितनी बंजर या बंजर भूमि को अन्य कामों के लिए खेती योग्य जमीन में बदला गया है, इससे जुड़े आंकड़े भी सरकारी रिपोर्टों में दर्ज हैं, लेकिन यह खेतों को कंक्रीट में बदलने के आंकड़ों के मुकाबले न के बराबर हैं.

प्रश्न है कि इन आंकड़ों की तुलना करने का क्या औचित्य है? ऐसा इसलिए कि हम सभी को इस बात का ध्यान रहे कि भारत की आबादी वर्ष 2031 तक 150 करोड़ होने का अनुमान है, लिहाजा इस बात की अनदेखी कैसे की जा सकती है कि कृषि क्षेत्र का विस्तार किए बिना खाद्य सुरक्षा प्राप्त की जा सकती है?

भारत में कृषि क्षेत्र का संकट
साभार: theindianblog.in

किसान अपने खेत क्यों बेच रहे?

वहीं, कृषि क्षेत्र की कुछ सहायक चुनौतियां भी हैं जिन पर समय रहते ध्यान दिया गया तो उससे जुड़ी चिंताओं को कम किया जा सकता है. उदाहरण के लिए, पिछले पांच वर्षों में बीटी जैसे विदेशी बीज महंगे होने के कारण किसानों को हुए नुकसान के कई प्रकरण सामने आए हैं. विदेशी बीजों को लेकर यह दावा भी कई प्रकरणों में तथ्यहीन जान पड़ता है कि इनसे फसल की पैदावार कई गुना तक अधिक बढ़ जाती है और इनमें किसी तरह के कोई कीट नहीं होते हैं.

इन परिस्थितियों को देखते हुए प्रशासनिक स्तर पर होना यह चाहिए कि किसानों पर विदेशी आनुवंशिक बीजों का इस्तेमाल करने का दबाव कम किया जाए. वहीं, इस तरह की खेती को प्रोत्साहित किया जाए, जो रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से विपरीत जैविक खेती पर आधारित हो, ताकि किसान और उनके खेत प्रभावित न हो सकें.

इसी तरह, एक कार्य सरकारी हस्तक्षेप के बिना संभव नहीं होगा, वह यह कि किसान नई तकनीक को तो अपनाएं, लेकिन किस सीमा तक तो इस बारे में विचार करना होगा. इसी तरह से यह भी देखना होगा कि उपयोग में लाई जा रही तकनीक जैविक खेती की मूल सिद्धांत के विपरीत तो नहीं है, जाहिर है कि तकनीक ऐसी हो जो रासायनिक खेती को हतोत्साहित करने की दिशा में हो. दरअसल, तकनीक का अंधाधुंध उपयोग कई बार खेती की लागत भी बढ़ा देता है, जिससे किसान को लागत के अनुपात में लाभ कम मिलता है और वह अपने खेत बेच देता है.

किसान पर कर्ज कम हो तो बचेंगे खेत

दरअसल, देखा जाए तो वित्तीय स्वार्थों के कारण कुछ शक्तियां हैं, जो हमेशा से ही ग्रामीण भारत में अपने बाजार को मजबूत करने के तरीकों की तलाश करती रही हैं. यहां तक कि कृषि लागत लगातार बढ़ने के कारण किसान कर्जदार होते जा रहे हैं. उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण’ के आंकड़ों से पता चलता है कि आंध्र प्रदेश में 82 फीसदी किसान कर्जदार हैं. इसी तरह, पंजाब और महाराष्ट्र में यह आंकड़ा औसतन 65 प्रतिशत है. यही वे राज्य हैं, जहां किसान सबसे ज्यादा आत्महत्या करते हैं.

प्रश्न है कि किसान पर कम से कम कर्ज का बोझ रहे, इसके लिए क्या किया जा सकता है? जानकारों से बातचीत का निचोड़ यदि यहां रखा जाए, तो किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य, उचित भंडारण, विपणन सुविधाएं, कृषि उपज की लागत में कमी, असली किसानों के ही इस व्यवसाय में प्रवेश पर सख्ती जैसे उपायों को लागू किया जाए तब देश किसानों का पेट भर सकता है. जाहिर है जब उनका पेट भरेखा, तो खेती भी बचेगी और खेत भी.

spot_img

Related articles

Dhurandhar Controversy Explained: Trauma, Representation, and Muslim Stereotypes

There is no moral ambiguity surrounding the Kandahar Hijack of 1999 or the 26/11 Mumbai Terror Attacks. These...

Garlands for Accused, Silence for Victim: Gita Path Assault Survivor Gets No Support

Eight days after a mob attack during Kolkata’s Gita Path event, patty seller Sheikh Riyajul remains traumatised and jobless. His Rs 3,000 earnings were destroyed, and the five accused walked free on bail. With no help from authorities or society, fear and financial pressure may force him to return.

Vande Mataram and the Crisis of Inclusive Nationalism: A Minority Perspective India Can’t Ignore

As India marks 150 years of Vande Mataram, political celebration has reignited long-standing objections from Muslims and other minorities. The debate highlights tensions between religious conscience, historical memory, and the risk of imposing majoritarian symbols as tests of national loyalty.

Bengal SIR Exercise Reveals Surprising Patterns in Voter Deletions

ECI draft electoral rolls show 58 lakh voter deletions in West Bengal. Data and independent analysis suggest non-Muslims, particularly Matuas and non-Bengali voters, are more affected. The findings challenge claims that voter exclusions under the SIR exercise primarily target Muslim infiltrators.