eNewsroom India Logo

‘हिन्दी मीडियम टाइट’, ऐसी किताब जिसमें छिपा है- हिन्दी भाषियों के दर्द और उनकी पहचान का सच

Date:

Share post:

[dropcap]”पि[/dropcap]छली बार गाँव गया था तो राजन भैया ने एक बात कही- पहले तुम ‘हिन्दी मीडियम टाइप’ थे अब ‘हिन्दी मीडियम टाइट” हो गए हो।”

‘हिन्दी मीडियम टाइट’, दरअसल दिल्ली के ‘राजपाल प्रकाशन’ से छपी किताब का शीर्षक है, जिसकी ये पंक्तियाँ इसी किताब के सबसे आखिर में एक तरह की ठसक के साथ समाप्त हो जाती हैं।

पूरी कहानी सच्ची है, और उन सबका सच भी है जो गाँव-कस्बों में हिन्दी माध्यम से पढ़कर महानगरों के बड़े-कुलीन संस्थानों में प्रवेश तो पा जाते हैं, लेकिन जिन्हें हिन्दी भाषी होने के चलते पिछड़ा जान न सिर्फ अनदेखा किया जाता है, बल्कि तंज, उपहास और अपमान का पात्र भी बना दिया जाता है। प्रभात रंजन बिहार के सीतामढ़ी से दिल्ली के प्रतिष्ठित ‘हिंदू कॉलेज’ में प्रवेश पाने वाले ऐसे ही सच्चे पात्र हैं, एक अंग्रेजीदाँ-अभिजात परिसर में प्रवेश पाने के बाद जिनके सामने सबसे बड़ा संकट होता है- एडजस्ट कैसे हों?

प्रभात रंजन हिन्दी के बेबाक लेखक के रूप में जाने जाते हैं, इस मायने में करीब सौ पेजों की उनकी यह किताब उनकी बेबाकी पुष्टि करती है। पूरी किताब आत्मकथ्य के रूप में है और यह अपनी शुरुआत में कहीं-न-कहीं एक युवा के असामान्य बर्ताव की तरफ हमारा ध्यान खींचती है, जो दरअसल हिन्दी भाषा के लिए पैदा कराई गई हीन-भावना का ही परिणाम है। यही वजह है कि जो ऐसी पीड़ा से गुजरे हैं वे इसकी कथा-व्यथा से जुड़ाव महसूस करते हैं और इस दौरान अपने जीवन के कई प्रसंग भी याद करते हैं।

एक स्थापित लेखक के नजरिए से देखा जाए तो प्रभात रंजन के लिए ऐसी किताब लिखने का विचार ही अपनेआप में साहसी है। इसके दो कारण हैं, पहला तो यह कि एक पड़ाव पर पहुँचने के बाद लेखक अपने गए कल से उन किस्सों को चुनते हैं, जिनमें झिझक, लज्जा, द्वंद है और जिन्हें वे एक किस्सागोई अंदाज में ऐसे सार्वजनिक करते हैं जो मजे-मजे में कई बार खुद का मजाक उड़ाने जैसा लगता है।

दूसरा कारण और भी महत्त्वपूर्ण लगता है कि बौद्धिक दुनिया का एक वर्ग जब ‘हिन्दी वाले’ के हर एक हाव-भाव और उसकी राय को दक्षिणपंथी होने के संदेह के रूप में देख रहा है, तब उसी दुनिया से एक लेखक न सिर्फ हिन्दी के बचाव में लिखते हैं, बल्कि हिन्दी के विरोध में तैयार की जा रहीं धारणाओं को तोड़ने के लिए मुखर होकर अपनी आपबीती सुनाते हैं।

वाकया शुरू होता है ‘हिंदू कॉलेज’ में लेखक के पहले दिन से जुड़ी एक घटना से, जिसमें उसी कॉलेज की एक अंग्रेजीदाँ लड़की उन्हें देख ‘दीज एचएमटी’ कहकर उन पर कमेंट करती है। उस दिन उनके लिए एक बड़े सपने से अधिक बड़ी चीज यह जानना हो जाता है कि एचएमटी मतलब क्या? और एक दिन जब लेखक को एचएमटी का फुल-फार्म मतलब ‘हिन्दी मीडियम टाइप’ का पता चलता है तो उन्हें समझ आ जाता है कि ‘हिन्दू कॉलेज’ उनके जैसे लड़के के लिए वह जूता है जो उनके नाप से ज्यादा ही बड़ा है और जिसे संभालते हुए चलना उनके लिए अपनेआप में किसी मुश्किल टास्क से कम नहीं।

उसके बाद बहुत सारे ‘हिन्दी मीडियम टाइपों’ की तर्ज पर लेखक भी माहौल के मुताबिक खुद को ढालने के लिए तरह-तरह के जतन करते हैं, जिनमें ‘या-या’ और टूटे-फूटे अंग्रेजी के शब्दों से आगे अंग्रेजी के गाने, अंग्रेजी के साहित्य, अंग्रेजी के अखबार, अंग्रेजी की फिल्में, फैशन से लेकर बाकी तमाम गतिविधियों के प्रसंग महज फोबिया को कम करने की कड़ी के हिस्से के तौर पर जुड़ते चले जाते हैं। इसी कड़ी में विमल सर, निरंजन, विधान, तेनजिंग, समरेंद्र, रमेश ठाकुर, सुनील, गौरव और अखिलेश भी आते हैं, जो दरअसल हिन्दी भाषा के भीतर की परेशानियों और बाधाओं की तह में जाने और उन्हें जानने के जरिए बनते हैं, और व्यवहारिक रूप से इस बात को समझने के कारण भी बनते हैं कि यदि अंग्रेजी-अभिजात्य की मुख्यधारा ‘आपको’ स्वीकार करती भी है तो किस रूप में? और, यहीं से लेखक को ‘एचएमटी’ के बाद जल्द ही ‘भैया’ शब्द का अर्थ भी समझ आ जाता है।

लेखक के लिए नब्बे के दशक का वह दौर एक ऐसा समय सिद्ध होता है जिसमें उन्हें हिन्दी अनंत मजबूरियों की भाषा नजर आती है। भाषा की इस दीवार को पार करते हुए जिन्होंने अंग्रेजी सीख ली वे ठीक, जो नहीं सीख सके वे हाशिये के लोग रह गए। देखते ही देखते ‘भैया’ से ‘दीदी’, ‘मौसी’, ‘काकी, ‘दादा’ जैसे प्यारे शब्दों के साथ उनके संबंध और उनके अर्थ बदल गए।

इस बदली हुई अर्थो की दुनिया में ‘भैया’ पर ‘संघी’ समझे जाने की तलवार और लटक गई, इसलिए भैया लोग ‘गोबरपट्टी’ के वे रहवासी हो गए, जिन पर साम्प्रदायिकता के विस्तार का आरोप है, यह आरोप एक तरह से भैया लोगों पर एक खासा दबाव है, जिसके चलते उन्हें अपना हर कदम फूँक-फूँककर रखना पड़ता है। क्या खाया, क्या पिया, क्या बोला, क्या किया के उत्तर में ‘भैया’ बात-बात पर सफाई देने का आदी हो गया है इस डर से कि कहीं उसे बौद्धिक जगत से बाहर न कर दिया जाए। दरअसल, इस जगत में एक ऐसी जमात तैयार हो चुकी है जिसके सामने हिन्दी बोलने भर से ज्ञान का स्तर नीचे की ओर खिसकता है।

किसी गंभीर विषय को लेकर हिन्दी वाले की बात मायने रखती भी है तो बस कहने-सुनने के लिए। लेकिन, समस्या यहीं खत्म नहीं होती, बल्कि यहां से एक दूसरा मोड़ लेती है। असल में हिन्दी मीडियम वाले दूसरी तरफ से भी पिसते हैं, क्योंकि हिन्दी पढ़ने, लिखने से लेकर कुछ कहने और सुनने वाले को हिन्दी वाला भी गंभीरता से नहीं लेता। जैसे एक जगह- “.. बाद में जब परिपक्व हुआ तो समझ में आया कि जिस प्रोफेसर साहब के बारे में चुटकुला सुनाया जाता था, वे संस्कृतनिष्ठ हिन्दी बोलते थे, हिन्दी के अच्छे विद्वानों में माने जाते थे, पर उन्हें इस तरह से आज भी कोई याद नहीं करता। आज भी उनके जानने वाले उनका नाम आते ही चुटकुला सुना देते हैं। हिन्दी के बड़े-बड़े विद्वान् भी हिन्दी समाज में चुटकुलों के काम आते हैं।”

“हिन्दी के बड़े-बड़े विद्वान् भी हिन्दी समाज में चुटकुलों के काम आते हैं।” जैसे कई पंक्तियाँ तीर की तरह मन के कोमल हिस्से पर चुभती हैं। वहीं, ‘यू केन किस मी ऑन अ मंडे, अ मंडे इज बेरी-बेरी गुड’ जैसे छोटे-छोटे चैप्टर में बंटा यह आत्मकथ्य कई बार इसी तरह के रोचक कमेंट्स से शुरू होता है और गाँव-कस्बे के परिवेश तक जाता है, जिसमें लेखक अपनी तरह से उनकी तुलना करते हुए उन्हें महानगर की दुनिया से तोलते हैं, सोचते-विचारते हैं और कई तरह की उधेड़-बुन में लगे रहते हुए कई सारी बातें कई सारे किस्से और कई सारे तजुर्बे सुनाते हैं। लेखक का यह तरीका हिन्दी वालों के लिए हिन्दी में किस्सागोई सीखने के काम भी आ सकता है।

आज जब सोशल मीडिया और वैश्विक बाजार के दौर में हिन्दी के लिए कई क्षेत्र खुले हैं तो इस लिहाज से लेखक हिन्दी के भविष्य को सकारात्मक रूप में देखते हैं। हालांकि, आत्मकथ्य अपने अंत की ओर एकलाप में बदलने लगता है जो शेष भाग की तुलना में हल्का बोझिल लगते हुए भी वैचारिक स्पष्टता को दर्शाने की दृष्टि से आवश्यक जान पड़ता है।

spot_img

Related articles

Politics, Power, and Cinema: Author Rasheed Kidwai Captivates Dubai Audience

Dubai: Literature enthusiasts from India and Dubai gathered at the India Club for a memorable evening with celebrated...

The Untamed Soul of Indian Cinema: How Ritwik Ghatak’s Art Still Speaks to Our Times

The World Cinema Project has restored, among other films, Titas Ekti Nodir Naam by Ritwik Ghatak. Martin Scorsese,...

How India’s Symbol of Love Is Being Twisted into a Tool of Hate

The Taj Mahal, regarded as one of the Seven Wonders of the World, is one of the major...

“Students Don’t Know Who Fazlul Huq Was”: Bengal Scholars Lament Erasure of Sher-e-Bangla’s Legacy

Kolkata: “In many colleges and universities, students and even teachers are unaware of who Fazlul Huq truly was,”...