किताबों से निकले, जंगलों में लड़े, संसद तक पहुंचे—शिबू सोरेन की ज़िंदगी एक पाठशाला
13 साल की उम्र में जब पिता को ज़मींदारों ने मारा, तब उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी। उस दर्द ने उन्हें जंगलों का नेता और जनता की आवाज़ बना दिया। शिबू सोरेन का जीवन सत्ता नहीं, संघर्ष से परिभाषित होता है। 1970 के दशक में जो बीज उन्होंने बोए, आज झारखंड उसी से फल-फूल रहा है

साल 2005 में जब झारखंड में पहली बार विधानसभा चुनाव हो रहे थे, तब झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) ने गुरुजी—शिबू सोरेन—के लिए एक हेलिकॉप्टर किराए पर लिया था। एक हफ्ते की ताबड़तोड़ रैलियों के बाद जब पायलट मीर को विदा करने का वक्त आया, तो हम सबने साथ में एक कप कॉफी पी। बातचीत के दौरान मीर, जो पिछले तीन दशकों में देश के लगभग हर बड़े नेता को उड़ा चुके थे—एलके अडवाणी, लालू प्रसाद यादव, शरद पवार से लेकर जयललिता तक—एक बात कह गए जो हमें सोचने पर मजबूर कर गई।
उन्होंने कहा, “मैंने ऐसा नेता पहले कभी नहीं देखा।”
“हम समझ नहीं पाए कि वो क्या कहना चाहते हैं। हमें लगा, शायद गुरुजी की सादगी ने उन्हें प्रभावित किया होगा। मैंने हैरानी से पूछा—‘ऐसा क्या देखा आपने उनमें?’” ये बात गिरिडीह से JMM विधायक सुदिव्य कुमार सोनू ने याद करते हुए बताई।
एक ऐसा नेता जो लोगों को हंसाता नहीं, रुला देता था
पायलट मीर ने जवाब दिया, “सभी नेता ऐसी बातें करते हैं जिससे लोग हंसते हैं। लेकिन तुम्हारा नेता ऐसी बातें करता है जिससे लोग रो पड़ते हैं।”
यही गुरुजी की सबसे बड़ी ख़ासियत थी, सोनू कहते हैं।
“वो अपने संघर्ष की कहानियां सुनाते थे, झारखंड की लड़ाई में दिए गए बलिदानों को याद करते थे, शराब छोड़ने की सलाह देते थे, और शिक्षा की अहमियत बताते थे। उनकी बातें लोगों को अंदर तक झकझोर देती थीं। हम तो इसके गवाह थे ही, लेकिन बाहर के लोग आकर जब ये बताते थे, तब हमें समझ में आता था कि गुरुजी वाकई अलग थे।”
लेकिन गुरुजी सिर्फ भाषण देने वाले नेता नहीं थे।
शिबू सोरेन, जो पूरी ज़िंदगी नशे से दूर रहे, शाकाहारी रहे, 1970 के दशक में ही सामूहिक खेती करते थे, रात में बड़ों के लिए साक्षरता क्लास चलाते थे, और गांवों में झगड़े सुलझाने के लिए पंचायतें लगाते थे।
अपने आंदोलन के दौर में वो ज़्यादातर पैदल ही चलते थे—गिरिडीह, धनबाद, बोकारो और जामताड़ा के जंगलों से होकर।
81 साल के शिबू सोरेन, जिनका आज दिल्ली के गंगाराम अस्पताल में इंतक़ाल हो गया, आम नेताओं से बिल्कुल अलग थे। वो उन चंद नेताओं में थे, जिन्हें राजनीति में लाने वाले एक आईएएस अफसर थे और जिनकी तरबियत एक इंजीनियर-से-समाजसेवी-से-सांसद बने इंसान ने की थी।
दबे-कुचले लोगों की आवाज़ थे गुरुजी
गुरुजी की पकड़ झारखंड के आदिवासी समाज और शोषित तबके पर इतनी मज़बूत थी कि धनबाद से तीन बार सांसद रह चुके एक और बड़े नेता एके रॉय और वरिष्ठ वकील विनोद बिहारी महतो ने भी उनके आंदोलन को दिशा दी।
एमरजेंसी के दौरान एक DC ने बदला गुरुजी का रास्ता
लेकिन जिन्हें सबसे बड़ा क्रेडिट जाता है, वो थे धनबाद के उस वक़्त के डिप्टी कमिश्नर—आईएएस अफसर कुंवर बहादुर (केबी) सक्सेना।
यह वो समय था जब देश में इमरजेंसी लगी थी। उस दौरान बीसीसीएल (भारत कोकिंग कोल लिमिटेड) में काम करने वाले तारा बाबू मरांडी टुंडी के पोखरिया आश्रम में गुरुजी की मदद कर रहे थे। उन्होंने एक अजीब वाकया याद किया।
“एक आदमी साइकिल पर आया और कहा कि वो गुरुजी की बाइक ठीक करने आया है। मैंने कहा—बाइक तो चल ही नहीं रही। उसने पूछा—‘पैसे कौन देगा?’ मैंने कहा—‘गुरुजी देंगे।’ लेकिन उसने ज़िद की कि पहले वो गुरुजी से मिले। मैं उसे पारसनाथ पहाड़ी ले गया, जहां गुरुजी थे। वहां उसने पहचान बताई—वो था धनबाद का डीसी,” मरांडी ने बताया।
उस वक़्त गुरुजी ज़मींदारों के ख़िलाफ़ आंदोलन चला रहे थे और आदिवासी अधिकारों की बात कर रहे थे। डीसी सक्सेना ने उन्हें समझाया कि इमरजेंसी और बढ़ती हिंसा के बीच या तो वो मारे जाएंगे या ज़िंदगीभर जंगलों में छिपकर रहेंगे।
“गुरुजी ने डीसी की बात ध्यान से सुनी। सक्सेना ने कहा—कोर्ट में सरेंडर करो, जेल चले जाओ, फिर वैध राजनीति के रास्ते से आंदोलन को आगे बढ़ाओ। उसी दिन गुरुजी ने आत्मसमर्पण कर दिया,” मरांडी ने याद किया।
आंदोलन के साथियों की कहानियां
गुरुजी के विचारों से प्रभावित होकर मरांडी ने अपनी सरकारी नौकरी छोड़ दी। ऐसा ही किया शिक्षक छोटू राम टुड्डू ने। उन्हें ज़मींदारों ने कुदको दोहरा हत्याकांड के बाद इतना मारा कि उन्हें मरा समझकर छोड़ दिया—सिगरेट से चेहरा जलाया, जीप से घसीटा।
“मैं तो उस दिन शादी में था, जब घटना हुई। लेकिन लौटते ही मुझे उठा लिया गया और मारा गया,” टुड्डू ने कहा, जो अब 73 साल के हैं। उनके बेटे आज रांची में बीडीओ हैं।
1980 में जब गुरुजी दुमका से सांसद बने, तो अपने पुराने साथियों से मिलने पिरटांड़, गिरिडीह पहुंचे।
“वो हंसते हुए बोले—‘मैं बड़ा चपरासी हो गया हूं, विधायक लोग छोटे चपरासी हैं।’ हम सब हंस पड़े,” ये यादें हैं बाबू राम हेम्ब्रम की, जो धान कटनी आंदोलन के शुरुआती दौर से गुरुजी के साथ थे।
एक बचपन जो ज़ुल्म से बना, एक जीवन जो संघर्ष से चमका
आज जब कुछ नेता खुद को चौकीदार कहकर गर्व करते हैं, तो याद रखना चाहिए कि गुरुजी ने सबसे पहले ऐसा रूपक इस्तेमाल किया था।
उनका संघर्ष बचपन से ही शुरू हो गया था। उनके पिता शोबरन मांझी, एक शिक्षक थे, जिन्हें ज़मींदारों ने मार डाला था। उस वक़्त गुरुजी सिर्फ 13 साल के थे और आठवीं क्लास में पढ़ते थे। जब उन्हें यह खबर मिली, तो स्कूल से सीधे उस जगह पहुंचे जहां पिता की हत्या हुई थी। फिर कभी स्कूल नहीं गए। उसी दिन उनका जीवन बदल गया।
सत्ता उनके लिए कभी प्राथमिकता नहीं रही। वो तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने, लेकिन कभी एक भी कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए। लेकिन उन्हें इसका मलाल नहीं था। शिबू सोरेन—जिन्हें लोग प्यार से ‘गुरुजी’ या ‘दिशोम गुरु’ कहते थे—जनता के नेता थे।
सत्ता से ज़्यादा उन्हें समाज की सुध थी
उन्होंने 1970 के दशक में ही आदिवासियों से शराब छोड़ने की अपील की थी। कहते थे—“शराब पीने से इंसान का इरादा कमज़ोर हो जाता है और ज़मींदार उसका फ़ायदा उठाते हैं।” दशकों बाद भी, जब वो चुनाव प्रचार में जाते थे, तो यही बात दोहराते थे।
पांच दशक की राजनीति में उन्होंने आठ बार लोकसभा, दो बार राज्यसभा और तीन बार विधानसभा की सदस्यता पाई। लेकिन विवादों से भी उनका नाता रहा। ज़मींदारों के ख़िलाफ़ आंदोलन के दौरान उन पर दो हत्याओं के आरोप लगे। बाद में, एक सचिव की हत्या और नरसिम्हा राव सरकार के दौरान वोट के बदले पैसे लेने का मामला भी आया।
फिर भी, शिबू सोरेन झारखंड की राजनीति के एक ऐतिहासिक किरदार बनकर रहेंगे—एक ऐसा शख्स जो जंगलों और गांवों से उठकर संसद तक पहुंचा, लेकिन हमेशा अपने लोगों के लिए जिया।
आज वो हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन एक सच्चे आदिवासी नेता की ये कहानी आने वाली नस्लों को हमेशा हिम्मत और हौसला देती रहेगी।