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गायत्री मंत्र से कोरोना का उपचार और भारत में विज्ञान का भविष्य

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कोरोना महामारी से जब जीवनरक्षक दवाइयों और ऑक्सीजन की कमी से देश भर में रिकार्ड मौते हो रही हैं और हर दिन साढ़े तीन से चार लाख लोग संक्रमित हो रहे हैं तब सरकार से यह अपेक्षा की जाती है कि वह ऐसे खतरनाक वायरस से लोगों को निजात दिलाने के लिए यदि कोई अनुसंधान करे तो उसका आधार विज्ञान हो।

दूसरी तरफ, पिछले दिनों भारत सरकार के विज्ञान-प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने जो निर्णय लिया है वह विचित्र किंतु सत्य है। यह मंत्रालय कोरोना के मरीजों पर एक ऐसी स्टडी के लिए वित्तीय मदद देने जा रहा है जिसमें पता लगाया जाएगा कि गायत्री मंत्र के जाप और प्राणायाम से क्या कोरोना का उपचार किया जा सकता है। जिसे यह स्टडी करनी है वह भी कोई मामूली संस्थान नहीं है, बल्कि ऋषिकेश स्थित एम्स यानी भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान है जहां के विशेषज्ञ तकरीबन 20 कोरोना मरीजों को इस स्टडी के लिए शामिल करेंगे।

इसके लिए 10-10 मरीजों को दो समूहों में बांटा जाएगा और पहले समूह के मरीजों को सामान्य उपचार के साथ गायत्री मंत्र का जाप और प्राणायाम कराया जाएगा, जबकि दूसरे समूह के मरीजों को सिर्फ सामान्य उपचार दिया जाएगा। सुपरवाइजिंग के लिए योग विशेषज्ञों की टीम रहेगी जो मरीजों पर गायत्री मंत्र और प्राणायाम का असर देखेगी और उनमें थकान के साथ मानसिक तनाव को लेकर रिसर्च करेगी। एक अच्छी बात यह है कि इस स्टडी में कोरोना के गंभीर मरीजों को शामिल नहीं किया जाएगा।

कोरोना का उपचार

ऐसे समय जब हमारा देश कोरोना की दूसरी लहर की चपेट में आकर अभूतपूर्व संकट से गुजर रहा है और मरीजों की संख्या लाखों में पहुंच चुकी है तब सवाल है कि सरकार इस किस्म की कवायदों पर अपने संसाधन खर्च क्यों कर रही है जिसका कि आधार ही अवैज्ञानिक है। वहीं, किसी भी महामारी के समय सरकार का जिम्मा होता है कि वह वैज्ञानिक चेतना को प्रोत्साहित करे जिससे लोग किसी तरह के भ्रम में न रहें। लेकिन, इतनी बड़ी मुसीबत के बावजूद समुदाय के भीतर के कुछ धड़े कभी गाय के गोबर के कंडे जलाने तो कभी गौ-मूत्र के सेवन या फिर गंगा-जल के उपयोग से कोरोना भागने के झूठे दावे कर रहे हैं। इसी क्रम में अब दो कदम आगे बढ़कर विज्ञान-प्रौद्योगिकी जैसा मंत्रालय गायत्री मंत्र से कोरोना के इलाज की बात करें तो सोचकर ही डर लगता है कि ऐसी महामारी में सरकार का दिमाग किस तरह से काम कर रहा है!

हालांकि, सरकार ने कोरोना अनुसंधान के नाम पर जो कदम उठाया है उससे कतई हैरानी नहीं होनी चाहिए। वजह यह है कि पिछले साल भी जल-शक्ति मंत्रालय ने एक प्रस्ताव बनाया था जिसमें गंगा-जल के उपयोग से कोरोना के मरीजों के उपचार की बात की गई थी। बाद में इस प्रस्ताव को आईसीएमआर (भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद) ने ठुकरा दिया था। जल-शक्ति मंत्रालय के इस प्रस्ताव में यह दावा किया गया था कि गंगा-जल में निंजा नाम का वायरस होता है जिससे कोरोना वायरस से लड़ने में मदद मिलेगी।

इन दिनों सरकार के नुमाइंदों और बीजेपी के कई बड़े नेताओं द्वारा रामायण या महाभारत जैसे मिथकों को इतिहास की तरह बताते हुए उनमें कही बातों को विज्ञान से जोड़ने का चलन बढ़ गया है। यहां तक कि साल 2014 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गणेशजी की सूंड का उदाहरण देते हुए यह बात कह दी कि प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी जैसी तकनीक चलन में थी। इसी तरह, बीजेपी के बड़े नेता सत्यपाल सिंह ने साल 2018 में चार्ल्स डार्विन की थ्योरी को ही पलट दिया। आपने बताया कि स्कूल के पाठ्यक्रम से इसे हटाने की जरूरत है, क्योंकि इंसान जब से पृथ्वी पर देखा गया है, हमेशा इंसान ही रहा है।

इस बयान से एक साल पहले सत्यपाल सिंह यह कहकर भी सुर्खियां बटोर चुके हैं कि देश के विद्यार्थियों को पुष्पक विमान के बारे में क्यों नहीं बताया जाता है। आपकी मानें तो ऐरोप्लेन का अविष्कार राइट ब्रदर्स ने नहीं किया था, बल्कि इसका अविष्कार तो भारत में बहुत पहले ही हो चुका था। वहीं, साल 2016 में केंद्रीय मंत्री श्रीपद नाइक ने कैंसर जैसी बीमारी को हराने के लिए योगा को बेस्ट थैरेपी माना। लेकिन, इससे ज्यादा ध्यान खींचा साल 2018 में राजस्थान के तत्कालीन शिक्षा मंत्री वासुदेव देवनानी ने। आपने राजस्थान की हिस्ट्री पर हो रही बहस के बीच साइंस के फैक्ट भी बदल दिए और संभवत: सबसे पहले यह बताया कि न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण की थ्योरी नहीं दी थी। यह थ्योरी तो हजार वर्ष पहले ब्रह्मागुप्त द्वितीय ने दी थी, फिर भी स्कूलों में गलत विज्ञान पढ़ाया जाता है। आपका सुझाव था: क्यों नहीं हमें इस बात को सिलेबस में शामिल करके बच्चों को पढ़ाना चाहिए। इसी कड़ी में साल 2017 में बीजेपी के नेता और वर्तमान में असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा कैंसर का कारण बताते हुए इसे पूर्व जन्मों का पाप माना। कुल मिलाकर, इस तरह के बयानों के आधार पर यदि सूची बनाई जाए तो यह बहुत लंबी बनती चली जाएगी।

पिछले साल मार्च में जब कोरोना संक्रमण रोकने के लिए सरकार द्वारा लॉकडाउन की घोषणा हो गई थी तो हिन्दू-महासभा के तत्वधान में गौ-मूत्र पार्टी के समाचार आ रहे थे। उस समय सोशल मीडिया पर गौ-मूत्र पार्टी की तस्वीरे तेजी से वायरल हुई थीं। आयोजक दलील दे रहे थे कि यदि मरीज गौ-मूत्र का नियमित सेवन करे तो निश्चित ही वह कोरोना ठीक हो जाएगा। इसी बीच बाबा रामदेव ने कोरोनिल नाम से दवा बनाई और बहुत जोर-शोर से कोरोना ठीक करने का दावा किया।

इस तरह के तमाम झूठ अब तक हिंदुत्व की आड़ में फैलाए जाते रहे हैं जिससे धार्मिक श्रद्धा से जोड़कर एक माइंड-सेट तैयार करने में आसानी हो। लेकिन, अब इस तरह की कवायद में सरकार को भी भागीदार बनते हुए देखा जा सकता है। ऐसे में सवाल है कि भारत सरकार की शह पर विज्ञान के नाम पर अंध-श्रद्धा को जिस तरीके से बढ़ावा दिया जा रहा है भविष्य में उसके क्या दुष्परिणाम होंगे। इसी तरह, एक सवाल यह भी कि यदि सत्ता के जोर पर रूढ़िगत विचार एम्स जैसे संस्थानों के जरिए प्रचारित किए जाएंगे तो हमारे देश में विज्ञान का भविष्य क्या होगा? क्या आज की प्रतिभा संपन्न पीढ़ी गौ-मूत्र से कैंसर के उपचार के बारे में पढेगी? या हमारे आइआइटियन मिथकीय साहित्य से पुष्पक विमान के बारे में पढ़ेंगे? आखिर आने वाली पीढ़ी विज्ञान को किस रुप में समझने की कोशिश करेगी?

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