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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी निर्णय नहीं कर पा रहे हैं कि ये गुड तालिबान है या बैड तालिबान

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गुड तालिबान, बैड तालिबान, गुड टेररिज़्म, बैड टेररिज़्म ये अब चलने वाला नहीं है। हर किसी को तय करना पड़ेगा कि फैसला करो, आप आतंकवाद के साथ हो या मानवता के साथ हो। निर्णय करो।”

यह बयान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का है। अगस्त 2015 का। इसे मैंने शब्दश: लिखा है। आज नरेंद्र मोदी तय नहीं कर पा रहे हैं कि तालिबान गुड है या बैड है। आतंकवादी है या नहीं है। उनकी पार्टी के नेता इस मसले का राजनीतिक इस्तमाल करने लगे हैं लेकिन शीर्ष नेता बोल नहीं पा रहे हैं।जब ज़मीन पर इसका इस्तमाल करना ही है तो फिर सरकार को बोलने में हिचक नहीं रखनी चाहिए कि तालिबान आतंकवादी हैं और भारत आतंकवादी संगठन से बात नहीं करेगा।

भारत की राजनीति में किसी को सीधे-सीधे या इशारे में आतंकवादी कह देना कोई मुश्किल काम नहीं है। फर्ज़ी आरोपों के आधार पर दस दस साल जेल में डाल देना आम बात है। ऐसे मामलों में ज़्यादातर मुस्लिम लड़के ही होते हैं। इस राजनीति से मोदी सरकार और बीजेपी अनजान नहीं है। गोदी मीडिया का टॉपिक ही है धर्म और आतंकवाद लेकिन वह भी प्रधानमंत्री से नहीं पूछ पा रहा है।मोदी सरकार का अभी तक कोई रुख़ सामने नहीं आया है कि उसके लिए तालिबान आतंकवादी है या कोई नया तालिबान है।

दुनिया के कई देशों के नागरिक अफगानिस्तान में फंसे हुए हैं। उनकी जान को ख़तरा है फिर भी उनकी सरकारें तालिबान पर अपना पक्ष रख रही हैं। सरकारों के मुखिया प्रेस के सवालों का जवाब दे रहे हैं। तालिबान का नाम ले रहे हैं। लेकिन भारत के प्रधानमंत्री ओलिंपिक खिलाड़ियों से मुलाकात के अगले दिन वीडियो ट्विट कर रहे हैं, जिसे चैनलों पर चलाना ही पड़ता है। मान लीजिए मनमोहन सिंह की सरकार होती और तालिबान पर चुप रहती या मान्यता देती तो क्या बीजेपी भारत का हित समझ कर सरकार के साथ होती? क्या बीजेपी नहीं कहती कि तुष्टिकरण के कारण सरकार तालिबान को मान्यता दे रही है। वोट बैंक की राजनीति हो रही है। तो अब बीजेपी और मोदी सरकार में रहते हुए इतने दिनों से क्यों नहीं बता पा रहे हैं कि तालिबान क्या है।

सामने से बोला नहीं जा रहा है लेकिन व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी के ज़रिए कारण बताया जा रहा है कि क्यों नहीं बोला जा रहा है। अफगानिस्तान में भारत की कई सौ कंपनियों के कारोबार हैं। वहां कई हज़ार भारतीय काम करते हैं। तालिबान जब काबुल की तरफ़ बढ़ने लगा तभी सरकार को अपने नागरिकों को वहां से निकालना शुरु कर देना चाहिए था। अगर तालिबान का उभरना अमरीकी ख़ुफ़िया विभाग की नाकामी है तो भारतीय ख़ुफ़िया तंत्र की भी नाकामी है। सरकार ने अपने नागरिकों की सुध नहीं ली और उन्हें निकालने से पहले दूतावास बंद कर निकल आई। इस भ्रम में मत रहिए कि भारतीय नागरिकों के निकाले जाने के बाद भारत तालिबान को आतंकवादी कह देगा। कम से कम यही सवाल व्हाट्स एप फार्वर्ड करने वाले से पूछ लीजिए।

अफगानिस्तान की जनता जिन देशों के भरोसे एक तंग सुरंग से निकल रही थी, उन देशों ने उसे धोखा दिया है। उन्हें आतंकवादियों के हाथ में छोड़ दिया है। ये आतंकवाद भी उन्हीं देशों का खड़ा किया हुआ है।अमरीका से पहले कम्युनिस्ट सरकारों ने उस इलाके में हथियार और कट्टरवाद का वातावरण खड़ा किया था। वहां की महिलाओं की कोई चिन्ता नहीं की गई। वे अब तालिबान के आतंक के हवाले हैं। नारियों की पूजा करने वाला भारत महिलाओं के लिए दुनिया के नैतिक बल को ललकार सकता था। लेकिन सोचिए जिस देश में लाखों ट्रक, टैंपों और दीवारों पर यह लिखा हो कि बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ। 21 वीं सदी के भारत में बेटियों की यह हालत है कि उन्हें बचाने के लिए नारे लिखने पड़ रहे हैं। गर्भ में और पैदा होने के बाद बेटियों को मारने से बचाने के लिए जगह-जगह नारे लिखे हैं फिर भी गर्भ में बेटियों का मारा जाना जारी है और दूसरी जाति में शादी कर लेने पर जला देने या मार देने की ख़बरों से आप अनजान नहीं है। कहने का मतलब यही है कि भारत को अपनी बेटियों को बचाने के साथ साथ अफगान औरतों और वहां की बेटियों को बचाने के लिए नारे लगाने चाहिए थे। पश्चिमी ताकतों को शर्मसार करना चाहिए था।

इस भुलावे में नहीं रहना चाहिए कि भारत के लोगों को अफगान औरतों से हमदर्दी है। वो इन प्रसंगों को इस्तमाल एक मज़हब को लाछिंत कर सांप्रदायिक उन्मान को सही ठहराने भर के लिए कर रहे हैं। तालिबान के बदलने की बात कही जा रही है लेकिन अभी तक इसके कोई प्रमाण नहीं है। कुछ लोगों ने कहा कि जिस तालिबान की बात की जा रही है वह बीस साल पुराना है। लेकिन कोई इन बीस सालों के दौरान तालिबान में आए बदलाव का प्रमाण नहीं दे रहा है। क्या इन बीस सालों में तालिबान का संबंध आतंकी धमाकों से ख़त्म हो चुका था? क्या तालिबान ने इन बीस सालों में औरतों के प्रति अपना नज़रिया बदल लिया था? क्या औरतों के बीच तालिबान का प्रभाव बढ़ा था? हम इन सवालों के जवाब नहीं जानते लेकिन जवाब क्या है अंदाज़ा लगा सकते हैं। जब बीस सालों में तालिबान में आए बदलाव के प्रमाण नहीं हैं तो आज किस आधार पर कहा जा रहा है कि आगे वे औरतों का सम्मान करेंगे।

हिंसा के कारणों का सीधा जवाब नहीं होता है लेकिन हिंसा के साथ आप अगर-मगर के साथ खड़े नहीं हो सकते हैं। हिंसा और प्रतिहिंसा अंत में हिंसा ही तैयार करती है।इसलिए जो लोग तालिबान को आतंक की जगह कुछ और समझना चाहते हैं वह दुधारी तलवार पर चल रहे हैं और जो तालिबान को आतंकवादी नहीं बोल पा रहे हैं वे भी दुधारी तलवार पर चल रहे हैं। भारत सरकार के विदेश मंत्री को बीजेपी के आई टी सेल की मीटिंग बुलानी चाहिए जैसे चुनावों के समय बीजेपी के आई टी सेल की बैठक होती है। उसी बैठक में बताना चाहिए कि तालिबान आतंकवादी है या नहीं है।

रविश कुमार का ये पोस्ट, उनके फेस्बूक पेज पे पहले आया है।

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