ईन्यूज़रूम इंडियाराय

1984, 2002 ,1993 और 2013 के नरसंहारों पर चोट दे गया है दिल्ली हाईकोर्ट का फ़ैसला- रवीश कुमार

वारिस शाह से

आज वारिस शाह से कहती हूं-

अपनी क़ब्र से बोलो !

और इश्क़ की किताब का

कोई नया वर्क़ खोलो !

पंजाब की एक बेटी रोयी थी

तूने उसकी लम्बी दास्तान लिखी,

आज लाखों बेटियां रो रही हैं

वारिस शाह ! तुमसे कह रही हैं

ऐ दर्दमंदों के दोस्त,

पंजाब की हालत देखो

चौपाल लाशों से अटा पड़ा है

चनाब लहू से भर गया है

किसी ने पांचों दरियाओं में

ज़हर मिला दिया है

और यही पानी

धरती को सींचने लगा है

इस ज़रख़ेज़ धरती से

ज़हर फूट निकला है

देखो, सुर्खी कहां तक आ पहुंची !

और क़हर कहां तक आ पहुंचा !

फिर ज़हरीली हवा

वन-जंगलो में चलने लगी

उसमें हर बांस की बांसुरी

जैसे एक नाग बना दी

इन नागों ने लोगों के होंट डस लिए

फिर ये डंक बढ़ते चले गए

और देखते-देखते पंजाब के

सारे अंग नीले पड़ गए

जस्टिस एस मुरलीधर और जस्टिस विनोद गोयल ने अपने फैसले की शुरूआत अमृता प्रीतम की इस कविता से की है। लिखा है कि 1947 की गर्मियों में विभाजन के दौरान जब देश भयावह सामूहिक अपराध का गवाह बना, जिसमें लाखों लोग मारे गए। मरने वालों में सिख, मुस्लिम और हिन्दू थे। एक युवा कवि जो अपने दो बच्चों के साथ लाहौर से भागी थी, रास्ते में चारों तरफ दर्दनाक मंज़र देखे थे और एक कविता लिखी थी। उसके 37 साल बाद देश में एक और भयावह त्रासदी होती है, तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में 2,733 सिखों को निर्ममता से मार दिया जाता है। घर नष्ट कर दिए जाते हैं। देश भर में भी हज़ारों सिखों को मारा जाता है। इस नरसंहार में शामिल अपराधी राजनीतिक संरक्षण के कारण और जांच एजेंसियों की बेरूख़ी के कारण मुकदमों और सज़ा पाने से बचते रहे। दस कमेटियां और आयोगों ने इसमें शामिल लोगों की भूमिका की जांच की और घटना के 21 साल बाद यह मामला सीबीआई के पास गया।

अगर जगदीश कौर, निरप्रीत कौर और जंगशेर सिंह ने हिम्मत नहीं दिखाई होती तो हत्यारों को सज़ा नहीं मिलती। सीबीआई तो बाद में आई। उसके बाद उन्हें भरोसा मिला और बोलने लगीं। दिल्ली के राजनगर में मारे गए पांच सिखों के मामले में सज्जन कुमार और अन्य 5 लोगों को सज़ा हुई है। दो लोगों को दस-दस साल की सज़ा हुई है और बाकियों को उम्र क़ैद।

इस फैसले के पेज नंबर 193 पर भी लिखा है जो 84 बनाम 2002 की बहस करने वालों के काम आ सकती है।

“भारत में 1984 के नवंबर के शुरू में सिर्फ दिल्ली में 2,733 सिखों को और देश भर में करीब 3350 सिखों को निर्ममता से मारा गया था। ये न तो नरसंहार के पहले मामले थे और न ही आख़िरी। भारत के विभाजन के समय पंजाब, दिल्ली व अन्य जगहों पर नरसंहारों की सामूहिक स्मृतियां 1984 के निर्दोष सिखों की हत्या की तरह दर्दनाक है। इससे मिलती जुलती घटनाएं 1993 में मुंबई में, 2002 में गुजरात में, 2008 में कंधमाल और 2013 में मुज़फ्फरनगर में हो चुकी है। इन सब सामूहिक अपराधों में एक बात जो सामान्य है वह यह है कि हमेशा अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जाता है। अपवाद की तरह नहीं बल्कि हर जगह। लेकिन समाज भी अतीत में मिले ऐसे ज़ख्मों की जांच के लिए आगे आता जा रहा है।”

2002 की बात को कमज़ोर करने के लिए 1984 की बात का ज़िक्र होता था अब 1984 की बात चली है तो अदालत ने 2013 तक के मुज़फ्फरनगर के दंगों तक का ज़िक्र कर दिया है। सबक यही है कि हम सब चीखें चिल्लाएं नहीं। फैसले को पढ़ें और प्रायश्चित करें। वो भी जो भीड़ की हिंसा पर अख़लाक़ से लेकर सुबोध कुमार सिंह की हत्या तक चुप रहे और वो भी जो 1984 को लेकर चुप रहे और वो भी जो 2002 पर बात नहीं करना चाहते, वो उससे पहले गोधरा की बात करना चाहते हैं। कोई उससे पहले 1993 के मुंबई दंगों की बात करना चाहता है।

कुल मिलाकर इन सब हिंसा में हमीं हैं, महान भारत के नागरिक, जिन्होंने नागरिकों को मारा है। मरने वालों में सिख भी है, मुसलमान भी है और हिन्दू भी है। ये फैसला हमारी निर्ममता के खिलाफ आया है। 1984 के समय राज कर रही कांग्रेस के खिलाफ आया है। जैसे 2002 में राज कर रही बीजेपी के खिलाफ ऐसे कई फैसले आए हैं। गोधरा की घटना के लिए मुसलमान जेल गए और गुलबर्ग सोसायटी की घटना के लिए हिन्दुओं को सज़ा हुई।

Ravish Kumar has posted this piece on his Facebook page.

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button