मदरसों ने जिस तरह से शिक्षा के माध्यम से अमीर-ग़रीब, जातिवाद का फर्क मिटाया वह संसार के किसी अन्य एजुकेशनल सिस्टम में नहीं मिलता

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स्टिस राजेंद्र सच्चर ने मुसलमानों को आरक्षण देने की वकालत करती हुई ऐसी रिपोर्ट पेश की जिसे पढ़ कर कोई भी ईमानदार शख्स इसे लागू करवाने की हिमायत करेगा। वह सेक्यूलरीज्म का रिपोर्ट कार्ड नहीं बल्कि एक पूरी कौम को आज़ादी के बाद सरकारी नौकरियों, शैक्षणिक संस्थानों, प्राइवेट सेक्टर और दूसरे ज़रूरी आयामों से बेदखल कर देने का दस्तावेज़ था। उसमें बताया गया है कि मुसलमानों के हालात दलितों से भी बदतर हैं। सच्चर ने किसी एक भौगोलिक क्षेत्र के कुछ मुसलमानों, सवर्ण अथवा पिछड़े मुसलमानों की बात नहीं कि थी बल्कि उन्होंने उस रिपोर्ट में हर एक मुसलमान की बात लिखी थी।
इन हालातों में भी मुसलमानों ने अपने शैक्षणिक संस्थानों को बचाए रखा। जब उनके छोटे कल-कारखानों को बंद करवा दिया गया तो वे काम सीख कर खाड़ी मुल्क की तरफ जाने लगे। वहां से पैसा भेजते, किसी तरह से घर परिवार चलता। देश की गरीबी भी दूर करने का काम किया। लेकिन सरकारें तो चाहती थी अजमल और याकूब पंचर बनाए।
कोई सकीना किसे के घर में बर्तन मांजे। और इसमें वे कामयाब भी हुए। लेकिन ऐसे लोगों के सामने मदरसे सीना ताने खड़े रहे। हाफिज़, मौलवी और आलिमों ने गांव गांव टहल कर अभिभावकों से बच्चों को मांगा। उन्हें पढ़ाया ताकि वे इज्जत की ज़िंदगी बसर कर सकें। यतीमों को गोद लिया। बेसहारा को ज़िंदगी दी।
मुझे इस्लाम की बहुत सी चीज़े पसंद हैं उसमें एक चीज़ यह भी है कि इस्लामी शिक्षा पर किसी एक का हक़ नहीं। कुरान पढ़ कर कोई भी हाफिज़ बन सकता है। जिस गरीब परिवार को गांव में अन्य मुसलमानो द्वारा दुत्कार दिया जाता था, उसका बच्चा हाफिज-ए-कुरान बन पगड़ी बांधे आता है तो सामंती और लठैत मुसलमान भी कुर्सी छोड़ उठ जाते हैं। मदरसों ने भारत में सामाजिक क्रांति की और चुपचाप की। इसलिए मदरसों की ज़रूरत है।
मदरसों ने जिस तरह से शिक्षा के माध्यम से अमीर-ग़रीब, जातिवाद का फर्क मिटाया वह संसार के किसी अन्य एजुकेशनल सिस्टम में खोजने से भी नहीं मिलता। हाफिज़ और मौलवी के नाम के बाद आज भी साहब लगाया जाता है। पैसों से भरपूर मुसलमान भी ऐसे आलिमों को सम्मान देते नहीं थकते।
हमारे वोट से सरकार बनाने वालों ने अपनी जाति, अपने लोगों को नौकरियां दी लेकिन मुसलमानों को दंगा, गाय, भगवा में फंसा कर शोषण करते रहे। इन सबके ज़िम्मेदार कौन लोग हैं? वे लोग जो खुद के विकास सूचकांक को बढ़ाते रहे लेकिन साथ में रहने वाले मुसलमानों की सुध भी न ली। कभी लिंचिंग पर हफ्तों चर्चा, कभी गाय चोरी पर दर्जनों डिबेट, मज़ाल है जो मुसलमानों की अच्छाई पर बातें हो।
कभी फर्जी इनकाउंटर तो कभी दंगे। यही नियति बना दी गई हमारी। बुद्धिजीवियों से लेकर क्रांतिकारियों तक ने कभी नहीं सोचा कि मुसलमान इस देश में भयभीत क्यों रहता है। क्या बेहतर माहौल बनाने की ज़िम्मेदारी उनकी नहीं है जिनके अपने लोगों, नेताओं के द्वारा ऐसे हालात बना दिए गए जिससे हर तरह की समस्या सामने आ खड़ी हुई। हमारे ऊपर दंगे थोपिए और हमारे ही मोहल्ले में शांति मॉर्च निकालिए, कहां का उसूल है यह।
आज भी लाखों की तादाद में मुस्लिम बच्चे मदरसा तो छोड़िए, बेसिक स्कूली शिक्षा से वंचित हैं। मुद्दा होना चाहिए था उन बच्चों को तालीमयाफ्ता कैसे बनाया जाए लेकिन विडंबना देखिए लोग बात कर रहे हैं मदरसे होने चाहिए या नहीं। मदरसों के प्रति ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि वहां कोई जाए ही न। ठीक है। न जाए। तो करे क्या। कहां जाए। कान्वेंट स्कूल? जहां की फीस पूरे परिवार के महीने भर के राशन के बराबर होती है। अच्छा सजेशन है। खूब समझ कर दिया गया होगा।
मदरसे, मुसलमानों के पैसे से चलते थे, चलते हैं और चलते रहेंगे। वहां सिर्फ मज़हबी नहीं बल्कि एक ज़िम्मेदार, आत्मनिर्भर और मेहनतकश इंसान बनाने की ट्रेनिंग दी जाती है। वहां से मौलाना आज़ाद बने, वहीं से ज़ाकिर हुसैन और वहीं से कलाम। जिसकी जैसी सामर्थ्य थी वो वैसा बना। आप चाहतें हैं हम पंचर की दुकान पर बैठे तो यह होने नहीं देंगे। कुछ न होने से कुछ होना, बन जाना बेहतर होता है। हम आपकी जूती नहीं साफ करेंगे, मस्जिदों के अहाते में पोछा लगा लेंगे।
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