हसदेव में सरकार ले रही दो लाख पेड़ों की बलि!

Date:

Share post:

[dropcap]ज[/dropcap]ल, जंगल, जमीन पर हमारा अधिकार है, बिजली पैदा करने के लिए कोयले के लिए यहां के पेड़ मत काटो, यह आपके लिए भी अच्छा नहीं है।” हसदेव के आदिवासियों की यही चीत्कार है, पर सरकार ने मानो कान पर हाथ रख लिया है!

बढ़ते शहरीकरण के बावजूद भारत में अभी भी विशाल वन क्षेत्र शेष है। इन्हीं में से एक है छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले का जंगल- हसदेव। हसदेव को मध्य भारत का फेफड़ा भी कहा जाता है जिसे इसके पारिस्थितिक महत्व से देखा जा सकता है।

यह वन क्षेत्र हसदेव नदी के तट पर एक लाख 70 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में फैला हुआ है। इसके अंचल में गोंड और अन्य विभिन्न जनजातियों के लगभग 10 हजार आदिवासी रहते हैं। इन लोगों की आजीविका औषधीय पौधों और अन्य वन संसाधनों पर आधारित है, पर पिछले कुछ सालों में हसदेव का जंगल सुर्खियों में है। वजह है कोयला खदानों के लिए बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई और इस विनाशलीला को रोकने की मांग को लेकर चल रहा जन आंदोलन।

यह आंदोलन अब उग्र रूप लेता दिख रहा है। मगर, यह कोई हालिया संघर्ष नहीं है। आदिवासियों का यह संघर्ष करीब एक दशक पुराना है। इसकी शुरुआत साल 2010 के आसपास तब हुई थी जब सरकारी स्तर पर बड़ी संख्या में जंगल काटना शुरू हुआ।

तत्कालीन राज्य सरकार ने हसदेव जंगल में पेड़ों की कटाई की अनुमति देने के लिए एक प्रस्ताव केंद्र को भेजा था। केंद्र ने इसे मंजूरी भी दे दी थी, पर फिर कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं और आदिवासियों ने मिलकर ‘केंद्रीय वन पर्यावरण एवं जलवायु मंत्रालय’ का दरवाजा खटखटाया। लिहाजा, तब पेड़ों की कटाई रोक दी गई थी और सम्पूर्ण हसदेव वन क्षेत्र को ‘नो गो जोन’ घोषित कर दिया गया था।

सरकारें आती हैं और जाती हैं और इस दौरान हर आने वाली सरकार का विरोध जंगल कटाई को मंजूरी देने के नाम पर होता है। दूसरी तरफ, विपक्ष के विरोध करने की परम्परा भी जारी रहती है। मगर, जंगल काटने वालों का काम नहीं रुकता।

फिलहाल इस जंगल के दो इलाकों ‘परसा ईस्ट’ और ‘कांटा बसन’ में कोयला खनन का काम चल रहा है और इस काम की देखरेख अडानी ग्रुप कर रहा है। कहा जा रहा है कि इस खदान से निकलने वाले कोयले का उपयोग राजस्थान में बिजली उत्पादन के लिए किया जाएगा। आज लोगों को बिजली की जरूरत है और अगर बिजली चाहिए तो खदान से कोयला निकालना जरूरी है। कुछ नेताओं का कहना है कि उनके पास कोई विकल्प नहीं है।

ऐसा कहा जाता है कि इस उद्देश्य के लिए 15,000 से अधिक पेड़ काटे गए हैं और अनुमान है कि भविष्य में यह संख्या बढ़कर दो लाख हो जाएगी।

इस उत्खनन से जंगल में स्थानीय आदिवासियों का जीवन अस्त-व्यस्त हो जाएगा। साथ ही जंगली जानवरों का जीवन भी खतरे में पड़ जाएगा और उनकी संख्या घट जाएगी।

इस जंगल में पक्षियों की 82 प्रजातियां और लगभग 170 प्रकार के पौधे हैं। इनमें तितलियों की कुछ प्रजातियाँ विलुप्त होने के कगार पर हैं। हसदेव का जंगल हाथियों और बाघों के लिए मशहूर है। पेड़ों की कटाई के कारण जंगल में पशु और पक्षियों की प्रजातियां भी खतरे में पड़ गई हैं।

साल 2021 में जंगल बचाने के लिए 300 किमी की पैदल यात्रा की गई थी। तब भी सरकार द्वारा कोरे आश्वासन देकर आंदोलन को खत्म करा दिया गया और उसके तुरंत बाद फिर से पेड़ों की कटाई शुरू हो गई थी।

हसदेव जंगल महिलाएं
चिपको आंदोलन की तरह पेड़ों को बचाने की कोशिश करती हसदेव में महिलाएं | साभार: एक्स/@savehasdev

इस आंदोलन से जुड़े लोगों का कहना है कि वन क्षेत्र में खनन के लिए खनन से पहले ग्राम पंचायत की अनुमति लेना जरूरी है। मगर, उनसे अनुमति लिए बिना फर्जी दस्तावेजों के आधार पर पेड़ों की कटाई की जा रही है।

जंगल में जिस स्थान पर पेड़ काटे जाने होते हैं, वहां भारी संख्या में पुलिस बल तैनात कर उसे एक छावनी का रूप दे दिया जाता है और आंदोलन में पहल करने वाले स्थानीय प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार करके पुलिस चौकी में तब तक रखा जाता है, जब तक कि पेड़ काट न लिए जाएं।

 

चिपको आंदोलन की तरह पेड़ों को बचाने की कोशिश करती हसदेव में महिलाएं | साभार: एक्स/@SHasdeo

हसदेव को बचाने के इस आंदोलन में महिलाएं भी पीछे नहीं हैं। यहां की महिलाओं ने अपना जंगल बचाने के लिए ‘चिपको’ की तर्ज पर आंदोलन चलाया था, जिसे सरकार ने पुलिस बल के जोर पर कुचल दिया।

हाल ही की एक घटना सामने आई है जहां एक महिला ने अपने घर के आसपास के पेड़ों को काटने का विरोध किया तो  पुलिस ने उसे घर से बाहर निकाल दिया।

हालांकि सरकार ने स्थानीय परियोजना प्रभावित आदिवासियों के लिए रोजगार की घोषणा की है, पर जंगल ही वहां के स्थानीय लोगों की पहचान हैं। यदि बिजली ही चाहिए तो सरकार सौर ऊर्जा उत्पादन परियोजनाएं भी लागू कर सकती थी। इसलिए यह सवाल पूछा जा रहा है कि जंगल को नष्ट करने और स्थानीय संस्कृति को खतरे में डालने की क्या जरूरत है?

वनों की कटाई से पहले वहां के आदिवासियों की 60 से 70 प्रतिशत आजीविका जंगल पर निर्भर थी। इस वन क्षेत्र में अधिक शैक्षणिक सुविधाएं नहीं हैं। यही वजह है कि स्थानीय लोगों के बीच शिक्षा का स्तर कम है, इसलिए सरकार रोजगार की गारंटी देती है, वहां इस अशिक्षित वर्ग को मौका नहीं मिलता। इसका मतलब यह है कि सरकार की कार्रवाई के कारण उन्हें उसी स्थान पर रहना होगा जहां वे अब तक मालिक के रूप में रह रहे थे। परिणामस्वरूप उनका अस्तित्व खतरे में है।

सवाल महज किसी एक उद्योगपति, किसी एक पार्टी या सरकार के खिलाफ नहीं है, बल्कि सवाल सत्ता की प्रकृति का है, जब भी सत्ता आती है तो वह अपनी मनमानी करती है।

“हमारा जंगल, हमारा गौरव है, हमारी संस्कृति है। हम एक दूसरे को जानते है। यही हमारे जीने का जरिया है।” सवाल है कि ऐसा कहने वाले आदिवासियों की सुने कौन?

spot_img

Related articles

Delhi Teen Saahil Shot at Close Range by CISF Constable: A Brutal Reminder of India’s Unchecked Uniformed Power

Saahil, 14, was collecting stray wedding notes in Delhi when a drunk CISF constable slapped him and shot him point-blank. His death reveals deep structural failures—unchecked police power, weak firearm regulations, child labour, and social inequality that make poor children India’s most vulnerable targets of State violence.

How the Babri Masjid Demolition Became a Turning Point in India’s Constitutional Decline

Thirty-three years after the demolition of the Babri Masjid, the event occupies a troubled and unresolved position in...

Babri Demolition’s Echo in 2025: Why 6 December Still Defines the Muslim Experience in India

There are dates in a nation’s history that refuse to stay confined to calendars. They do not fade...

“Bring Her Home”: SC Orders Return of Pregnant Sunali Khatun ‘Dumped’ Across Bangladesh Border

Delhi/Kolkata: After months of uncertainty and anguish, a ray of hope broke through on December 3, when the...