भारत जोड़ो यात्रा और भारत का विचार

यद्यपि भारत जोड़ो यात्रा एक राजनैतिक दल द्वारा निकाली जा रही है तथापि राष्ट्रीय एकता के व्यापक लक्ष्य को हासिल करने के लिए सामाजिक संगठन उससे जुड़ रहे हैं. यहाँ तक कि ऐसे संगठन भी इसका समर्थन कर रहे हैं जो कई मुद्दों पर कांग्रेस की राजनीति से सहमत नहीं है. उन सबको यह अहसास है कि सांप्रदायिक राजनीति और देश की एकता पर उसके कुप्रभाव का मुकाबला करना आवश्यक है

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Ram Puniyani
Ram Puniyani
The former Professor, IIT Mumbai is a social activist and commentator

भारत के सबसे पुराने राजनैतिक दल, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, ने 7 सितम्बर से कन्याकुमारी से कश्मीर तक भारत जोड़ो यात्रा शुरू की है. देश के 12 राज्यों और दो केन्द्रशासित प्रदेशों से गुजरते हुए यह यात्रा कुल 3,500 किलोमीटर की दूरी तय करेगी. भारत जोड़ो यात्रा एक राजनैतिक दल का उपक्रम है परन्तु करीब 200 सामाजिक कार्यकर्ताओं, जिनका चुनावी राजनीति से कोई प्रत्यक्ष लेनादेना नहीं है, ने भी राहुल गाँधी से मुलाकात की और ऐसी सम्भावना है कि वे और उनकी संस्थाएं इस यात्रा में सक्रिय भागीदारी करेंगे. जानेमाने सामाजिक कार्यकर्ता और स्वराज इंडिया के मुखिया योगेन्द्र यादव से सामाजिक संस्थाओं से यात्रा में भागीदारी करने की अपील की है. इस अपील में उन्होंने इस यात्रा की आवश्यकता का अत्यंत सारगर्भित वर्णन किया है. उनके अनुसार:

  • इससे पहले हमारे गणतंत्र के मूल्यों पर कभी उतना नृशंस हमला नहीं हुआ, जितना कि पिछले कुछ समय से हो रहा है.
  • इससे पहले कभी नफरत, विघटन और बहिष्करण के भाव देश पर उस तरह से नहीं लादे गए जिस तरह से इन दिनों लादे जा रहे हैं.
  • इससे पहले कभी हम पर उस तरह से निगाहें नहीं रखी गईं और हमें उस स्तर के प्रचार और दुष्प्रचार का सामना नहीं करना पड़ा, जितना कि अब करना पड़ रहा है.
  • इससे पहले हमने कभी ऐसी निष्ठुर सरकार नहीं देखी जिसे अर्थव्यवस्था के बर्बाद होने और लोगों के हालात की कोई परवाह ही नहीं है और जो केवल अपने कुछ चमचों की सेवा में लगी है.
  • इससे पहले कभी वास्तविक राष्ट्रनिर्माताओं – किसानों और श्रमिकों, दलितों और आदिवासियों – को राष्ट्र के भविष्य को आकार देने के प्रक्रिया से उस तरह बाहर नहीं किया गया जिस तरह इन दिनों किया जा रहा है.

देश के वर्तमान निराशाजनक हालात का योगेन्द्र यादव ने अत्यंत सटीक वर्णन किया है. भाजपा जब अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पहली बार सत्ता में आई थी, उस समय कई सामाजिक कार्यकर्ताओं को लगता था कि कांग्रेस और भाजपा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. जल्द ही उन्हें समझ आ गया कि भाजपा ‘सबसे अलग’ है. जिस दौर में भाजपा का अपने दम पर बहुमत नहीं था और वह एनडीए गठबंधन का नेतृत्व करती थी, उस समय भी वह दूसरों से ‘अलग’ थी. संघ परिवार के सदस्य बतौर वह हिंदुत्व के एजेंडे के प्रति प्रतिबद्ध थी. वह भारतीय राष्ट्रवाद के बरक्स हिन्दू राष्ट्रवाद की पैरोकार थी. उस दौर में उसने शिक्षा का भगवाकरण किया और आरएसएस की शाखाओं की संख्या में जबरदस्त वृद्धि हुई.

भाजपा का प्रत्यक्ष और परोक्ष अल्पसंख्यक-विरोधी रवैया सबके सामने था. मुसलमानों के अलावा, ईसाईयों के खिलाफ भी हिंसा हुई. सन 1999 में पास्टर स्टेंस को बजरंग दल के दारा सिंह ने जिंदा जला दिया. इस भयावह कृत्य का उद्देश्य था उन लोगों को धमकाना जो प्रजातान्त्रिक मूल्यों के हामी थे. अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा, प्रजातान्त्रिक मूल्यों का हिस्सा है. कॉर्पोरेट संस्थाओं की बन आई थी और मीडिया की खरीद-फरोख्त शुरू हो गई थी. गुजरात कत्लेआम ने सांप्रदायिक हिंसा में अमानवीय और बर्बर क्रूरता की नई मिसाल कायम की.

सन 2014 में भाजपा ने अपने बल पर पूर्ण बहुमत हासिल कर लिया. एनडीए की भूमिका नाममात्र की रह गई और भाजपा-आरएसएस ने पूरे जोशोखरोश से अपना एजेंडा लागू करना शुरू कर दिया. प्रजातंत्र को बनाये रखने के लिए जो संस्थाएं निर्मित की गईं थीं उन्हें कमज़ोर किया गया और आरएसएस एवं उसके संगी-साथियों ने बड़ी होशियारी से दलितों, आदिवासियों और यहाँ तक कि अल्पसंख्यक वर्गों के एक तबके को भी अपने झंडे तले लाने में सफलता प्राप्त कर ली. वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य गरीबों और धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए अत्यन डरावना है. भारतीय संविधान के मूल्यों, विशेषकर बंधुत्व, को किनारे कर दिया गया है.

एक बेहतर भारत के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध सामाजिक समूह प्रजातान्त्रिक मूल्यों को पुनर्स्थापित करने और समाज के हाशियाकृत तबकों के उनके अधिकारों के लिए संघर्ष के लिए ज़मीन तैयार करने की कोशिशों में लगे हुए हैं. शायद इसलिए अनेक सामाजिक समूह भारत जोड़ो यात्रा से जुड़ना चाहते हैं. इस यात्रा का उद्देश्य बंधुत्व को बढ़ावा देना और आम लोगों की ज़िन्दगी की परेशानियों के प्रति समाज का ध्यान आकर्षित करना है. आर्थिक असमानता बढ़ती ही जा रही है और समाज के एक बड़े तबके के नागरिक अधिकार केवल कागज़ पर रह गए हैं. बिलकिस बानो प्रकरण से पता चलता है कि समाज की सामूहिक सोच कितनी बदल गई है. बलात्कारियों और हत्यारों को जेल से रिहा किया जा रहा है और उनका स्वागत फूलमालाओं से हो रहा है. दूसरी ओर, कमजोरों और दमितों के लिए संघर्ष करने वाले उमर खालिद जैसे लोग जेलों में है. यह अत्यंत संतोष का विषय है कि तीस्ता सीतलवाड़ को जमानत मिल गई है.

भारत में यात्राओं ने सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह की भूमिकाएं निभाईं हैं. महात्मा गाँधी की दो यात्राओं ने पूरे समाज को बदल डाला था. डांडी यात्रा औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध संघर्ष का एक महत्वपूर्ण अध्याय थी. इस यात्रा ने आज़ादी हासिल करने के भारत के संकल्प को मज़बूत किया और सामाजिक सुधार और औपनिवेशिक शासन को उखाड़ फेंकने की इच्छा को बलवती किया. आश्चर्य नहीं कि सांप्रदायिक संगठन इस यात्रा से दूर रहे. इस यात्रा का आयोजन इस तरह से किया गया कि देश के नागरिक धर्म और जाति की सीमाओं के ऊपर उठकर अपनी पहचान को भारतीय पहचान में समाहित करें.

अम्बेडकर के महाड तालाब और कालाराम मंदिर आंदोलनों, जिनका उद्देश्य सामाजिक न्याय की स्थापना थी, के बाद गांधीजी ने जाति और अछूत प्रथा के खिलाफ संघर्ष शुरू किया. वे इस मामले में इतने गंभीर थे कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध अपने आन्दोलन को विराम देते हुए, 1933 के बाद से अनेक यात्राएं निकलीं. इनका उद्देश्य जातिगत पदक्रम और अछूत प्रथा का उन्मूलन था. इन यात्राओं से भी भारत को एक करने में मदद मिली.

इनके अतिरिक्त जगन मोहन रेड्डी ने चुनावी लाभ के लिए, एनटीआर ने सत्ता हासिल करने के लिए और चंद्रशेखर ने मुख्यतः भारत को एक करने के उद्देश्य से यात्राएं निकलीं. परन्तु जिस यात्रा ने भारत को सबसे ज्यादा विभाजित किया वह थी भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी द्वारा निकली गई रथयात्रा. इस यात्रा को मंडल आयोग की सिफारिशों को अमल में लाने के सरकार के निर्णय के परिप्रेक्ष्य में निकाला गया था. आडवाणी की यात्रा का एक लक्ष्य देश को धार्मिक आधार पर विभाजित करने भी था. इसके नतीजे में सांप्रदायिक हिंसा बढी और अंततः बाबरी मस्जिद को गिरा दिया गया. पिछले आठ वर्षों में विघटनकारी राजनीति का बोलबाला तेजी से बढ़ा है और देश की एकता और बंधुत्व के भाव पर गंभीर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है.

यद्यपि भारत जोड़ो यात्रा एक राजनैतिक दल द्वारा निकाली जा रही है तथापि राष्ट्रीय एकता के व्यापक लक्ष्य को हासिल करने के लिए सामाजिक संगठन उससे जुड़ रहे हैं. यहाँ तक कि ऐसे संगठन भी इसका समर्थन कर रहे हैं जो कई मुद्दों पर कांग्रेस की राजनीति से सहमत नहीं है. उन सबको यह अहसास है कि सांप्रदायिक राजनीति और देश की एकता पर उसके कुप्रभाव का मुकाबला करना आवश्यक है. हमें यह आशा है कि गैर-भाजपा दल, क्षेत्रीय दल और सामाजिक कार्यकर्ता व संगठन, जो स्वाधीनता आन्दोलन से उपजे भारत के विचार में आस्था रखते हैं और उन मूल्यों में विश्वास करते हैं जो हमारे संविधान का हिस्सा हैं, यह समझते हैं कि इस समय आवश्यकता इस बात की है कि हम गाँधी और पटेल, मौलाना आज़ाद और नेहरु, सुभाष बोस और अम्बेडकर की सपनों को भारत को नष्ट होने से बचाएँ

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

Ram Puniyani
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भारत के सबसे पुराने राजनैतिक दल, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, ने 7 सितम्बर से कन्याकुमारी से कश्मीर तक भारत जोड़ो यात्रा शुरू की है. देश के 12 राज्यों और दो केन्द्रशासित प्रदेशों से गुजरते हुए यह यात्रा कुल 3,500 किलोमीटर की दूरी तय करेगी. भारत जोड़ो यात्रा एक राजनैतिक दल का उपक्रम है परन्तु करीब 200 सामाजिक कार्यकर्ताओं, जिनका चुनावी राजनीति से कोई प्रत्यक्ष लेनादेना नहीं है, ने भी राहुल गाँधी से मुलाकात की और ऐसी सम्भावना है कि वे और उनकी संस्थाएं इस यात्रा में सक्रिय भागीदारी करेंगे. जानेमाने सामाजिक कार्यकर्ता और स्वराज इंडिया के मुखिया योगेन्द्र यादव से सामाजिक संस्थाओं से यात्रा में भागीदारी करने की अपील की है. इस अपील में उन्होंने इस यात्रा की आवश्यकता का अत्यंत सारगर्भित वर्णन किया है. उनके अनुसार:

  • इससे पहले हमारे गणतंत्र के मूल्यों पर कभी उतना नृशंस हमला नहीं हुआ, जितना कि पिछले कुछ समय से हो रहा है.
  • इससे पहले कभी नफरत, विघटन और बहिष्करण के भाव देश पर उस तरह से नहीं लादे गए जिस तरह से इन दिनों लादे जा रहे हैं.
  • इससे पहले कभी हम पर उस तरह से निगाहें नहीं रखी गईं और हमें उस स्तर के प्रचार और दुष्प्रचार का सामना नहीं करना पड़ा, जितना कि अब करना पड़ रहा है.
  • इससे पहले हमने कभी ऐसी निष्ठुर सरकार नहीं देखी जिसे अर्थव्यवस्था के बर्बाद होने और लोगों के हालात की कोई परवाह ही नहीं है और जो केवल अपने कुछ चमचों की सेवा में लगी है.
  • इससे पहले कभी वास्तविक राष्ट्रनिर्माताओं – किसानों और श्रमिकों, दलितों और आदिवासियों – को राष्ट्र के भविष्य को आकार देने के प्रक्रिया से उस तरह बाहर नहीं किया गया जिस तरह इन दिनों किया जा रहा है.

देश के वर्तमान निराशाजनक हालात का योगेन्द्र यादव ने अत्यंत सटीक वर्णन किया है. भाजपा जब अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पहली बार सत्ता में आई थी, उस समय कई सामाजिक कार्यकर्ताओं को लगता था कि कांग्रेस और भाजपा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. जल्द ही उन्हें समझ आ गया कि भाजपा ‘सबसे अलग’ है. जिस दौर में भाजपा का अपने दम पर बहुमत नहीं था और वह एनडीए गठबंधन का नेतृत्व करती थी, उस समय भी वह दूसरों से ‘अलग’ थी. संघ परिवार के सदस्य बतौर वह हिंदुत्व के एजेंडे के प्रति प्रतिबद्ध थी. वह भारतीय राष्ट्रवाद के बरक्स हिन्दू राष्ट्रवाद की पैरोकार थी. उस दौर में उसने शिक्षा का भगवाकरण किया और आरएसएस की शाखाओं की संख्या में जबरदस्त वृद्धि हुई.

भाजपा का प्रत्यक्ष और परोक्ष अल्पसंख्यक-विरोधी रवैया सबके सामने था. मुसलमानों के अलावा, ईसाईयों के खिलाफ भी हिंसा हुई. सन 1999 में पास्टर स्टेंस को बजरंग दल के दारा सिंह ने जिंदा जला दिया. इस भयावह कृत्य का उद्देश्य था उन लोगों को धमकाना जो प्रजातान्त्रिक मूल्यों के हामी थे. अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा, प्रजातान्त्रिक मूल्यों का हिस्सा है. कॉर्पोरेट संस्थाओं की बन आई थी और मीडिया की खरीद-फरोख्त शुरू हो गई थी. गुजरात कत्लेआम ने सांप्रदायिक हिंसा में अमानवीय और बर्बर क्रूरता की नई मिसाल कायम की.

सन 2014 में भाजपा ने अपने बल पर पूर्ण बहुमत हासिल कर लिया. एनडीए की भूमिका नाममात्र की रह गई और भाजपा-आरएसएस ने पूरे जोशोखरोश से अपना एजेंडा लागू करना शुरू कर दिया. प्रजातंत्र को बनाये रखने के लिए जो संस्थाएं निर्मित की गईं थीं उन्हें कमज़ोर किया गया और आरएसएस एवं उसके संगी-साथियों ने बड़ी होशियारी से दलितों, आदिवासियों और यहाँ तक कि अल्पसंख्यक वर्गों के एक तबके को भी अपने झंडे तले लाने में सफलता प्राप्त कर ली. वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य गरीबों और धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए अत्यन डरावना है. भारतीय संविधान के मूल्यों, विशेषकर बंधुत्व, को किनारे कर दिया गया है.

एक बेहतर भारत के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध सामाजिक समूह प्रजातान्त्रिक मूल्यों को पुनर्स्थापित करने और समाज के हाशियाकृत तबकों के उनके अधिकारों के लिए संघर्ष के लिए ज़मीन तैयार करने की कोशिशों में लगे हुए हैं. शायद इसलिए अनेक सामाजिक समूह भारत जोड़ो यात्रा से जुड़ना चाहते हैं. इस यात्रा का उद्देश्य बंधुत्व को बढ़ावा देना और आम लोगों की ज़िन्दगी की परेशानियों के प्रति समाज का ध्यान आकर्षित करना है. आर्थिक असमानता बढ़ती ही जा रही है और समाज के एक बड़े तबके के नागरिक अधिकार केवल कागज़ पर रह गए हैं. बिलकिस बानो प्रकरण से पता चलता है कि समाज की सामूहिक सोच कितनी बदल गई है. बलात्कारियों और हत्यारों को जेल से रिहा किया जा रहा है और उनका स्वागत फूलमालाओं से हो रहा है. दूसरी ओर, कमजोरों और दमितों के लिए संघर्ष करने वाले उमर खालिद जैसे लोग जेलों में है. यह अत्यंत संतोष का विषय है कि तीस्ता सीतलवाड़ को जमानत मिल गई है.

भारत में यात्राओं ने सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह की भूमिकाएं निभाईं हैं. महात्मा गाँधी की दो यात्राओं ने पूरे समाज को बदल डाला था. डांडी यात्रा औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध संघर्ष का एक महत्वपूर्ण अध्याय थी. इस यात्रा ने आज़ादी हासिल करने के भारत के संकल्प को मज़बूत किया और सामाजिक सुधार और औपनिवेशिक शासन को उखाड़ फेंकने की इच्छा को बलवती किया. आश्चर्य नहीं कि सांप्रदायिक संगठन इस यात्रा से दूर रहे. इस यात्रा का आयोजन इस तरह से किया गया कि देश के नागरिक धर्म और जाति की सीमाओं के ऊपर उठकर अपनी पहचान को भारतीय पहचान में समाहित करें.

अम्बेडकर के महाड तालाब और कालाराम मंदिर आंदोलनों, जिनका उद्देश्य सामाजिक न्याय की स्थापना थी, के बाद गांधीजी ने जाति और अछूत प्रथा के खिलाफ संघर्ष शुरू किया. वे इस मामले में इतने गंभीर थे कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध अपने आन्दोलन को विराम देते हुए, 1933 के बाद से अनेक यात्राएं निकलीं. इनका उद्देश्य जातिगत पदक्रम और अछूत प्रथा का उन्मूलन था. इन यात्राओं से भी भारत को एक करने में मदद मिली.

इनके अतिरिक्त जगन मोहन रेड्डी ने चुनावी लाभ के लिए, एनटीआर ने सत्ता हासिल करने के लिए और चंद्रशेखर ने मुख्यतः भारत को एक करने के उद्देश्य से यात्राएं निकलीं. परन्तु जिस यात्रा ने भारत को सबसे ज्यादा विभाजित किया वह थी भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी द्वारा निकली गई रथयात्रा. इस यात्रा को मंडल आयोग की सिफारिशों को अमल में लाने के सरकार के निर्णय के परिप्रेक्ष्य में निकाला गया था. आडवाणी की यात्रा का एक लक्ष्य देश को धार्मिक आधार पर विभाजित करने भी था. इसके नतीजे में सांप्रदायिक हिंसा बढी और अंततः बाबरी मस्जिद को गिरा दिया गया. पिछले आठ वर्षों में विघटनकारी राजनीति का बोलबाला तेजी से बढ़ा है और देश की एकता और बंधुत्व के भाव पर गंभीर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है.

यद्यपि भारत जोड़ो यात्रा एक राजनैतिक दल द्वारा निकाली जा रही है तथापि राष्ट्रीय एकता के व्यापक लक्ष्य को हासिल करने के लिए सामाजिक संगठन उससे जुड़ रहे हैं. यहाँ तक कि ऐसे संगठन भी इसका समर्थन कर रहे हैं जो कई मुद्दों पर कांग्रेस की राजनीति से सहमत नहीं है. उन सबको यह अहसास है कि सांप्रदायिक राजनीति और देश की एकता पर उसके कुप्रभाव का मुकाबला करना आवश्यक है. हमें यह आशा है कि गैर-भाजपा दल, क्षेत्रीय दल और सामाजिक कार्यकर्ता व संगठन, जो स्वाधीनता आन्दोलन से उपजे भारत के विचार में आस्था रखते हैं और उन मूल्यों में विश्वास करते हैं जो हमारे संविधान का हिस्सा हैं, यह समझते हैं कि इस समय आवश्यकता इस बात की है कि हम गाँधी और पटेल, मौलाना आज़ाद और नेहरु, सुभाष बोस और अम्बेडकर की सपनों को भारत को नष्ट होने से बचाएँ

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भारत के सबसे पुराने राजनैतिक दल, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, ने 7 सितम्बर से कन्याकुमारी से कश्मीर तक भारत जोड़ो यात्रा शुरू की है. देश के 12 राज्यों और दो केन्द्रशासित प्रदेशों से गुजरते हुए यह यात्रा कुल 3,500 किलोमीटर की दूरी तय करेगी. भारत जोड़ो यात्रा एक राजनैतिक दल का उपक्रम है परन्तु करीब 200 सामाजिक कार्यकर्ताओं, जिनका चुनावी राजनीति से कोई प्रत्यक्ष लेनादेना नहीं है, ने भी राहुल गाँधी से मुलाकात की और ऐसी सम्भावना है कि वे और उनकी संस्थाएं इस यात्रा में सक्रिय भागीदारी करेंगे. जानेमाने सामाजिक कार्यकर्ता और स्वराज इंडिया के मुखिया योगेन्द्र यादव से सामाजिक संस्थाओं से यात्रा में भागीदारी करने की अपील की है. इस अपील में उन्होंने इस यात्रा की आवश्यकता का अत्यंत सारगर्भित वर्णन किया है. उनके अनुसार:

  • इससे पहले हमारे गणतंत्र के मूल्यों पर कभी उतना नृशंस हमला नहीं हुआ, जितना कि पिछले कुछ समय से हो रहा है.
  • इससे पहले कभी नफरत, विघटन और बहिष्करण के भाव देश पर उस तरह से नहीं लादे गए जिस तरह से इन दिनों लादे जा रहे हैं.
  • इससे पहले कभी हम पर उस तरह से निगाहें नहीं रखी गईं और हमें उस स्तर के प्रचार और दुष्प्रचार का सामना नहीं करना पड़ा, जितना कि अब करना पड़ रहा है.
  • इससे पहले हमने कभी ऐसी निष्ठुर सरकार नहीं देखी जिसे अर्थव्यवस्था के बर्बाद होने और लोगों के हालात की कोई परवाह ही नहीं है और जो केवल अपने कुछ चमचों की सेवा में लगी है.
  • इससे पहले कभी वास्तविक राष्ट्रनिर्माताओं – किसानों और श्रमिकों, दलितों और आदिवासियों – को राष्ट्र के भविष्य को आकार देने के प्रक्रिया से उस तरह बाहर नहीं किया गया जिस तरह इन दिनों किया जा रहा है.

देश के वर्तमान निराशाजनक हालात का योगेन्द्र यादव ने अत्यंत सटीक वर्णन किया है. भाजपा जब अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पहली बार सत्ता में आई थी, उस समय कई सामाजिक कार्यकर्ताओं को लगता था कि कांग्रेस और भाजपा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. जल्द ही उन्हें समझ आ गया कि भाजपा ‘सबसे अलग’ है. जिस दौर में भाजपा का अपने दम पर बहुमत नहीं था और वह एनडीए गठबंधन का नेतृत्व करती थी, उस समय भी वह दूसरों से ‘अलग’ थी. संघ परिवार के सदस्य बतौर वह हिंदुत्व के एजेंडे के प्रति प्रतिबद्ध थी. वह भारतीय राष्ट्रवाद के बरक्स हिन्दू राष्ट्रवाद की पैरोकार थी. उस दौर में उसने शिक्षा का भगवाकरण किया और आरएसएस की शाखाओं की संख्या में जबरदस्त वृद्धि हुई.

भाजपा का प्रत्यक्ष और परोक्ष अल्पसंख्यक-विरोधी रवैया सबके सामने था. मुसलमानों के अलावा, ईसाईयों के खिलाफ भी हिंसा हुई. सन 1999 में पास्टर स्टेंस को बजरंग दल के दारा सिंह ने जिंदा जला दिया. इस भयावह कृत्य का उद्देश्य था उन लोगों को धमकाना जो प्रजातान्त्रिक मूल्यों के हामी थे. अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा, प्रजातान्त्रिक मूल्यों का हिस्सा है. कॉर्पोरेट संस्थाओं की बन आई थी और मीडिया की खरीद-फरोख्त शुरू हो गई थी. गुजरात कत्लेआम ने सांप्रदायिक हिंसा में अमानवीय और बर्बर क्रूरता की नई मिसाल कायम की.

सन 2014 में भाजपा ने अपने बल पर पूर्ण बहुमत हासिल कर लिया. एनडीए की भूमिका नाममात्र की रह गई और भाजपा-आरएसएस ने पूरे जोशोखरोश से अपना एजेंडा लागू करना शुरू कर दिया. प्रजातंत्र को बनाये रखने के लिए जो संस्थाएं निर्मित की गईं थीं उन्हें कमज़ोर किया गया और आरएसएस एवं उसके संगी-साथियों ने बड़ी होशियारी से दलितों, आदिवासियों और यहाँ तक कि अल्पसंख्यक वर्गों के एक तबके को भी अपने झंडे तले लाने में सफलता प्राप्त कर ली. वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य गरीबों और धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए अत्यन डरावना है. भारतीय संविधान के मूल्यों, विशेषकर बंधुत्व, को किनारे कर दिया गया है.

एक बेहतर भारत के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध सामाजिक समूह प्रजातान्त्रिक मूल्यों को पुनर्स्थापित करने और समाज के हाशियाकृत तबकों के उनके अधिकारों के लिए संघर्ष के लिए ज़मीन तैयार करने की कोशिशों में लगे हुए हैं. शायद इसलिए अनेक सामाजिक समूह भारत जोड़ो यात्रा से जुड़ना चाहते हैं. इस यात्रा का उद्देश्य बंधुत्व को बढ़ावा देना और आम लोगों की ज़िन्दगी की परेशानियों के प्रति समाज का ध्यान आकर्षित करना है. आर्थिक असमानता बढ़ती ही जा रही है और समाज के एक बड़े तबके के नागरिक अधिकार केवल कागज़ पर रह गए हैं. बिलकिस बानो प्रकरण से पता चलता है कि समाज की सामूहिक सोच कितनी बदल गई है. बलात्कारियों और हत्यारों को जेल से रिहा किया जा रहा है और उनका स्वागत फूलमालाओं से हो रहा है. दूसरी ओर, कमजोरों और दमितों के लिए संघर्ष करने वाले उमर खालिद जैसे लोग जेलों में है. यह अत्यंत संतोष का विषय है कि तीस्ता सीतलवाड़ को जमानत मिल गई है.

भारत में यात्राओं ने सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह की भूमिकाएं निभाईं हैं. महात्मा गाँधी की दो यात्राओं ने पूरे समाज को बदल डाला था. डांडी यात्रा औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध संघर्ष का एक महत्वपूर्ण अध्याय थी. इस यात्रा ने आज़ादी हासिल करने के भारत के संकल्प को मज़बूत किया और सामाजिक सुधार और औपनिवेशिक शासन को उखाड़ फेंकने की इच्छा को बलवती किया. आश्चर्य नहीं कि सांप्रदायिक संगठन इस यात्रा से दूर रहे. इस यात्रा का आयोजन इस तरह से किया गया कि देश के नागरिक धर्म और जाति की सीमाओं के ऊपर उठकर अपनी पहचान को भारतीय पहचान में समाहित करें.

अम्बेडकर के महाड तालाब और कालाराम मंदिर आंदोलनों, जिनका उद्देश्य सामाजिक न्याय की स्थापना थी, के बाद गांधीजी ने जाति और अछूत प्रथा के खिलाफ संघर्ष शुरू किया. वे इस मामले में इतने गंभीर थे कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध अपने आन्दोलन को विराम देते हुए, 1933 के बाद से अनेक यात्राएं निकलीं. इनका उद्देश्य जातिगत पदक्रम और अछूत प्रथा का उन्मूलन था. इन यात्राओं से भी भारत को एक करने में मदद मिली.

इनके अतिरिक्त जगन मोहन रेड्डी ने चुनावी लाभ के लिए, एनटीआर ने सत्ता हासिल करने के लिए और चंद्रशेखर ने मुख्यतः भारत को एक करने के उद्देश्य से यात्राएं निकलीं. परन्तु जिस यात्रा ने भारत को सबसे ज्यादा विभाजित किया वह थी भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी द्वारा निकली गई रथयात्रा. इस यात्रा को मंडल आयोग की सिफारिशों को अमल में लाने के सरकार के निर्णय के परिप्रेक्ष्य में निकाला गया था. आडवाणी की यात्रा का एक लक्ष्य देश को धार्मिक आधार पर विभाजित करने भी था. इसके नतीजे में सांप्रदायिक हिंसा बढी और अंततः बाबरी मस्जिद को गिरा दिया गया. पिछले आठ वर्षों में विघटनकारी राजनीति का बोलबाला तेजी से बढ़ा है और देश की एकता और बंधुत्व के भाव पर गंभीर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है.

यद्यपि भारत जोड़ो यात्रा एक राजनैतिक दल द्वारा निकाली जा रही है तथापि राष्ट्रीय एकता के व्यापक लक्ष्य को हासिल करने के लिए सामाजिक संगठन उससे जुड़ रहे हैं. यहाँ तक कि ऐसे संगठन भी इसका समर्थन कर रहे हैं जो कई मुद्दों पर कांग्रेस की राजनीति से सहमत नहीं है. उन सबको यह अहसास है कि सांप्रदायिक राजनीति और देश की एकता पर उसके कुप्रभाव का मुकाबला करना आवश्यक है. हमें यह आशा है कि गैर-भाजपा दल, क्षेत्रीय दल और सामाजिक कार्यकर्ता व संगठन, जो स्वाधीनता आन्दोलन से उपजे भारत के विचार में आस्था रखते हैं और उन मूल्यों में विश्वास करते हैं जो हमारे संविधान का हिस्सा हैं, यह समझते हैं कि इस समय आवश्यकता इस बात की है कि हम गाँधी और पटेल, मौलाना आज़ाद और नेहरु, सुभाष बोस और अम्बेडकर की सपनों को भारत को नष्ट होने से बचाएँ

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

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