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27 महीने बाद भी जलता मणिपुर: पीयूसीएल ट्रिब्यूनल ने कहा—हिंसा नियोजित थी, राज्य और केंद्र जिम्मेदार

ट्रिब्यूनल ने कहा कि मणिपुर की हिंसा स्वतःस्फूर्त नहीं थी, बल्कि नियोजित और जातीय रूप से लक्षित थी. महिलाओं पर यौन हिंसा, राहत शिविरों में अमानवीय हालात और मीडिया की पक्षपातपूर्ण भूमिका ने संकट को और गहरा किया. बीरेन सिंह सरकार और केंद्र, दोनों अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी निभाने में विफल रहे

दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश कुरियन जोसेफ की अध्यक्षता वाले स्वतंत्र ट्रिब्यूनल ने साफ कहा है कि मणिपुर में जारी जातीय हिंसा स्वतःस्फूर्त नहीं थी, बल्कि नियोजित, जातीय रूप से लक्षित और राज्य संस्थाओं की विफलता की देन थी. लोगों के बीच गहरी धारणा बनी रही कि राज्य ने या तो हिंसा को होने दिया या उसमें सक्रिय भागीदारी की. केंद्र सरकार भी मणिपुर में कानून के शासन और संविधान की व्यवस्था बनाए रखने की अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी निभाने में विफल रही.

यह रिपोर्ट पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ (पीयूसीएल) द्वारा गठित स्वतंत्र ट्रिब्यूनल ने बुधवार, 20 अगस्त को पेश की. हिंसा से बचे लोगों और प्रत्यक्षदर्शियों की गवाहियों पर आधारित इस रिपोर्ट में कहा गया कि राज्य की संस्थाओं और प्राधिकृत अधिकारियों ने संरक्षण देने के बजाय स्थानीय लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया.

ऐतिहासिक विभाजन, अविश्वास और राजनीतिक बयानबाज़ी ने भड़काई आग

जूरी ने साक्ष्यों के आधार पर संघर्ष के कई मूल कारणों को चिन्हित किया—ऐतिहासिक जातीय विभाजन, सामाजिक-राजनीतिक हाशिये पर डालना और ज़मीन विवाद जैसे पहले से मौजूद कारक. डिजिटल मीडिया पर चलाए गए घृणा अभियानों और राजनीतिक नेतृत्व के भड़काऊ बयानों ने अविश्वास और शत्रुता को और गहरा किया.

रिपोर्ट ने खासतौर पर 27 मार्च 2023 को मणिपुर हाईकोर्ट के उस आदेश को निर्णायक मोड़ बताया, जिसमें मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा देने की सिफारिश की गई थी. कुकी-ज़ो और नागा समूहों ने इसे अपने संवैधानिक संरक्षणों के लिए खतरे के रूप में देखा, जिससे पहाड़ी जिलों में विरोध शुरू हुआ. 3 मई 2023 को बड़े पैमाने पर विरोध दर्ज हुआ—शुरुआत में शांतिपूर्ण, लेकिन जल्द ही हिंसा में बदल गया, जिसने पूरे राज्य को अपनी चपेट में ले लिया.

पलायन और अफीम की खेती की कथा

मैतेई गवाहियों में लगातार दावा किया गया कि म्यांमार से कुकी-ज़ो समुदाय का पलायन हो रहा है, लेकिन जूरी ने आंकड़ों के अध्ययन के बाद कहा कि इस दावे के ठोस प्रमाण मौजूद नहीं हैं.

इसी तरह, कुकी समुदाय को अफीम (पॉपी) की खेती और ड्रग्स कारोबार से जोड़ने का प्रयास तत्कालीन मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह की “ड्रग्स विरोधी युद्ध” नीति से किया गया. कुकी गवाहों ने इसे षड्यंत्र करार देते हुए कहा कि असली खिलाड़ी विभिन्न समुदायों से थे और उनमें सरकारी तंत्र के लोग भी शामिल थे.

मीडिया और राज्य की भूमिका

जूरी ने मीडिया की भूमिका को भी कठघरे में खड़ा किया. प्रिंट मीडिया पक्षपाती रहा, जबकि डिजिटल और सोशल मीडिया ने अप्रमाणित व भड़काऊ सामग्री फैलाकर स्थिति को और बिगाड़ा.

रिपोर्ट में कहा गया कि बीरेन सिंह सरकार के कुछ निर्णय और प्रशासनिक कार्रवाइयाँ हिंसा की चिंगारी बने. उग्रवादी संगठनों अरामबाई तेंगगोल और मैतेई लीपुन के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई. सार्वजनिक विरोध लंबे समय तक जारी रहा, लेकिन बीरेन सिंह ने फरवरी 2025 तक पद नहीं छोड़ा.

यौन हिंसा और मानवीय संकट

ट्रिब्यूनल ने गहरी व्यथा जताते हुए कहा कि हिंसा के दौरान लोगों की हत्या, अंग-भंग, निर्वस्त्र करना और सामूहिक यौन हिंसा तक हुई. इन अत्याचारों को सोशल मीडिया पर प्रसारित किया गया. कई मामलों में पीड़ित महिलाएं भय और संस्थागत सहयोग की कमी के कारण शिकायत दर्ज ही नहीं करा सकीं. गवाहियों के अनुसार पुलिस और सुरक्षा बलों ने न केवल मदद से इनकार किया, बल्कि कई बार महिलाओं को भीड़ के हवाले तक कर दिया.

राहत और पुनर्वास में विफलता

रिपोर्ट में कहा गया कि राहत और पुनर्वास के प्रयास बेहद अपर्याप्त, विलंबित और असमान रहे. राहत शिविरों में स्वच्छता, स्वास्थ्य सेवाएं, मानसिक स्वास्थ्य सहयोग और आजीविका-शिक्षा की पुनर्स्थापना लगभग न के बराबर रही. संयुक्त त्वरित आवश्यकता मूल्यांकन (जेआरएनए) और गीता मित्तल समिति की सिफारिशें भी ज्यादातर लागू नहीं हुईं.

स्वास्थ्य और न्यायिक तंत्र का पतन

हिंसा के दौरान स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त हो गई. अस्पतालों और एम्बुलेंसों पर हमले हुए, उपकरण लूट लिए गए और डॉक्टर-स्टाफ सुरक्षा संकट के कारण भाग खड़े हुए. राहत शिविरों में महिलाओं, बच्चों, बुजुर्गों और दिव्यांगों की हालत सबसे खराब रही. मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं भी बड़ी संख्या में दर्ज की गईं.

न्यायपालिका और विधि-व्यवस्था भी पूरी तरह विफल रही. अदालतों से त्वरित निर्देशों का अभाव, चयनित एफआईआर, गंभीर अपराधों की जांच का न होना और पुलिस की संलिप्तता रिपोर्ट में साफ दर्ज है.

जूरी की सिफारिशें

• मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में हाईकोर्ट की स्थायी बेंच की स्थापना
• एक स्वतंत्र विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन, जो हजारों मामलों की जांच करे और सुरक्षा बलों की भूमिका पर भी पूछताछ करे
• घृणा प्रचार और भड़काऊ भाषण देने वालों व उन्हें रोकने में विफल अधिकारियों पर कार्रवाई
• स्थायी शांति के लिए ढांचागत बदलाव, समुदायों के बीच संवाद, कानूनी जवाबदेही और नैतिक नेतृत्व

27 महीने बाद भी मणिपुर अशांत है. पीयूसीएल ट्रिब्यूनल की रिपोर्ट ने साफ कर दिया है कि यह केवल जातीय संघर्ष नहीं, बल्कि सामूहिक विफलता है—केंद्र से लेकर राज्य तक, मीडिया से लेकर न्यायपालिका तक. और इस विफलता को अब और नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता.

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