दिशोम गुरु की राह पर: हेमंत सोरेन और झारखंड का नया सफ़र
नेमरा दिशोम गुरु शिबू सोरेन को याद कर रहा है। इसी गाँव में हेमंत सोरेन वही रास्ते पकड़ रहे हैं, जिन पर कभी उनके पिता चले थे। गाँव-गाँव जाकर वे लोगों से मिल रहे हैं और भरोसा फिर से कायम करने की कोशिश कर रहे हैं। शोक के साये में उन्होंने वादा किया है कि गाँव की रूह को बचाते हुए उसकी ज़रूरतें पूरी करेंगे। असली कसौटी होगी—जल, जंगल और ज़मीन की लड़ाई को आगे ले जाना

नेमरा, रामगढ़: हर रोज़ नेमरा गाँव, रामगढ़ में लोग अपने अज़ीज़ रहनुमा शिबू सोरेन को याद करते नज़र आते हैं — कोई उनकी तस्वीर पर फूल चढ़ा रहा है, कोई शायरी पढ़ रहा है। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का पुश्तैनी घर रांची से 81 किलोमीटर दूर है, लेकिन 5 अगस्त — जिस दिन दिशोम गुरु की मिट्टी दी गई — से सारा रास्ता इसी हरियाली भरे गाँव की तरफ़ मुड़ गया है। यहाँ मुख्यमंत्री रुके हुए हैं, गाँववालों से मिल रहे हैं और वालिद की रूह के लिए रस्में अदा कर रहे हैं।
पिछले आठ दिन से हेमंत सोरेन उन्हीं तंग गलियों और खेतों से गुज़र रहे हैं, जहाँ उनके वालिद बरसों चला करते थे। किसानों से बातें कर रहे हैं, उनकी मुश्किलें सुन रहे हैं और उस खालीपन को भरने की कोशिश कर रहे हैं, जो झारखंड के ग़रीब और मज़लूम तबक़ों की आवाज़ रहे एक बड़े रहनुमा के जाने से पैदा हुआ है।
नेमरा का बेटा कैसे बना दिशोम गुरु
शिबू सोरेन की कहानी दर्दनाक वाक़िए से शुरू होती है। महज़ 13 साल की उम्र में उन्होंने अपने वालिद सोबरन मांझी को ज़मींदारों की गोलियों में खो दिया। वही लम्हा उन्हें जनता की जद्दोजहद में ले आया, जो आज़ाद हिंदुस्तान की बड़ी सामाजिक हलचल के साथ-साथ चली। धान कटनी आंदोलन उन्होंने नहीं चलाया, लेकिन उसके बाद उन्होंने और बड़ी लड़ाई छेड़ी — अलग झारखंड की तहरीक। 1973 में उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा की बुनियाद रखी, जो आदिवासियों और ग़रीब तबक़ों की तामन्नाओं का सियासी घर बना।
81 साल की उम्र में शिबू सोरेन ने कई ओहदे देखे — तीन बार मुख्यमंत्री, तीन बार यूनियन मिनिस्टर, आठ बार एमपी, राज्यसभा मेम्बर और एमएलए। लेकिन असल पहचान उन्हें कभी ओहदों ने नहीं दी। दिशोम गुरु वो बने, क्योंकि उनका रिश्ता हमेशा उस आख़िरी शख़्स से रहा, जो समाज की लाइन में सबसे पीछे खड़ा था — बेज़मीन किसान, जंगल में रहने वाला, या अपनी इज़्ज़त के लिए लड़ने वाला मज़दूर।
शराब और गोश्त से परहेज़ करने वाले शिबू सोरेन सत्तर के दशक में रात को लालटेन की रौशनी में तालीम देते थे। जो शराब पीता, उसे सज़ा भी देते। उनकी सियासत उतनी ही उसूलों पर खड़ी थी, जितनी इख़्तियार (पावर) पर।
हेमंत की बारी
हेमंत सोरेन की सियासी ज़िंदगी भी नुक़सान के साये में शुरू हुई। 2009 में उनके बड़े भाई दुर्गा सोरेन का इंतिक़ाल महज़ 39 साल की उम्र में किडनी फ़ेल होने से हुआ। उस वक़्त इंजीनियरिंग पढ़ रहे हेमंत ने पढ़ाई छोड़ दी और सियासत में कदम रखा।
आज वो तीसरी बार मुख्यमंत्री हैं और जेएमएम के कारगुज़ार सदर। उनके सामने वही चुनौती है जो उनके वालिद पीछे छोड़ गए — जल, जंगल और ज़मीन की हिफ़ाज़त। शिबू सोरेन को जानने वाले कहते हैं कि नेमरा जैसे हज़ारों गाँव झारखंड में हैं — हुस्न और ख़ूबसूरती से भरे, जिनकी पहचान बचाना ज़रूरी है।
गाँवों में रोज़ाना जाती दफ़्तरियों और लोगों से मिलते वक़्त, हेमंत ने साफ़ कहा: “नेमरा, नेमरा ही रहेगा” — यानी गाँव अपनी असल पहचान संभाले रखेगा, लेकिन उसमें तमाम बुनियादी सहूलतें मौजूद होंगी।
रांची के सहाफ़ी विनोद कुमार, जिन्होंने “समर शेष है” किताब लिखी है, कहते हैं: “शिबू सोरेन ने जल, जंगल, ज़मीन के लिए लड़ाई लड़ी। अब हेमंत सोरेन को सचमुच वालिद के ख़्वाबों और तहरीक को पूरा करना होगा। PESA एक्ट का पूरा निफ़ाज़, जंगलों के हक़ की हिफ़ाज़त, लैंड बैंक को हटाना और मॉब-लिंचिंग ख़िलाफ़ क़ानून लाना उनकी हुकूमत की पहली तर्ज़ीह होनी चाहिए। झारखंड की माइनिंग को बेकाबू नहीं छोड़ा जा सकता।”
‘जब तक सूरज चाँद रहेगा…’
“मैं ब्राह्मण हूँ, मुझे तालीम से दिलचस्पी होनी चाहिए — लेकिन उन्हें मुझसे ज़्यादा थी,” नेमरा आए एक बुज़ुर्ग आगंतुक ने कहा। “वो सबको पढ़ाई की ताक़ीद करते थे। उनका यक़ीन था कि सिर्फ़ तालीम ही ज़िंदगी बदल सकती है, ख़ासकर आदिवासियों के लिए। और उन्होंने कभी किसी को भूखा घर से नहीं लौटाया। उन्होंने हज़ारों ज़िंदगियों को छुआ और बदला। इसलिए मैं कहता हूँ — जब तक सूरज चाँद रहेगा, शिबू तेरा नाम रहेगा।”