विकास को तरसता सर जेसी बोस और पीसी महालनोबिस की कर्मस्थली

गिरिडीह: एक वक़्त था जब गिरिडीह शहर का रास्ता देश के सभी महान लोग जानते थे। कई आए, कई रुके और कई बस गए। दुनिया के महान वैज्ञानिको में से एक, सर जगदीश चन्द्र बोस ने यहाँ रह कर अपनी ज़िंदगी की सबसे बड़ी खोज, क्रेस्कोग्राफ मशीन ईज़ाद की। भारत के सबसे बड़े सांख्यिकीविद और वैज्ञानिक प्रशांत चन्द्र महालनोबिस न सिर्फ यहाँ रहे बल्कि कोलकाता के बाद देश के दूसरे इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट (आईएसआई) की स्थापना यहाँ की। रवीन्द्र नाथ टैगोर आए, गीतांजलि का बड़ा हिस्सा यहीं रह कर लिखा। आज़ादी के दौरान, अरुणा आसफ अली भी यहाँ रहीं और महान फ़िल्मकार सत्यजीत रे भी आए।

अभ्रख के कारोबार की वजह से भी दुनिया भर से कई बड़े कारोबारी यहाँ आए।

ये सिलसिला 80 के दशक तक चला, पर जो महान लोग गिरिडीह आते थे, वो इसलिए क्योंकि गिरिडीह का वातावरण (आबो-हवा) शानदार हुआ करता था। 1871 में ही यहाँ रेलवे स्टेशन की स्थापना हो चुकी थी। और गिरिडीह को हैल्थ रिज़ॉर्ट भी कहा जाता था।

विकास के निचले स्तर पर

1972 में गिरिडीह ज़िला हजारीबाग से अलग हुआ, और आज झारखंड विधान सभा चुनाव 2019 के दौरान, दिसम्बर 4 को ये 47 साल का हो गया।

पर इस आधे दशक में गिरिडीह ने कभी सामूहिक तरक्की की रफ्तार नहीं पकड़ी, या यूं कहें कि यहाँ के आम लोगों का जीवन स्तर बेहतर नहीं हुआ।

अभ्रख की चमक धीमी पढ़ चुकी है, और ये कुछ लोगों के निजी कारोबार तक सिमट गया। गिरिडीह की कोलियरी में भी नौकरी मिलना बहुत पहले बंद हो चुकी है।

गिरिडीह अब हैल्थ रिज़ॉर्ट तो दूर, अपने प्रदूषण के लिए जाना जाता है। लौह उद्योग ने कुछ रोजगार दिया, पर हवा-पानी-मिट्टी को जान लेवा बनाकर।

उसरी झरना, जहाँ सत्यजीत रे ने अपने फिल्म कि शूटिंग की, अब न वहाँ बाहर से ज्यादा पर्यटक आते हैं और न आईएसआई के खाली पड़े पदों को भरने बाहर से लोग आना चाहते हैं।

राजनीति ने नहीं तय की दशा और दिशा

अब आइए गिरिडीह के राजनीतिक हालात पर। विधान सभा का चुनाव है, मतलब प्रदेश की सरकार को चुनना है इसलिए बात करते हैं गिरिडीह विधान सभा की।

गिरिडीह विधान सभा का बड़ा हिस्सा शहरी इलाका है, और जब आप यहाँ होंगे तो दो तरह आवाज़ें सुनाई देंगी, एक एम्बुलेंस के सायरन की आवाज़ और दूसरी जेनेरेटर की। जेनेरेटर की आवाज़ तो साइलेंसर लगने से थोड़ी कम हुई है, पर हर दिन कम से कम एक दर्जन एम्बुलेंस यहाँ के मरीजों को धनबाद, बोकारो, रांची, दुर्गापुर और कोलकाता ले जाते हैं। ये बताने को काफी है कि गिरिडीह में सबसे खराब हालत यहाँ की स्वास्थ्य व्यवस्था की है। कुछ निजी हाथों में नर्सिंग होम्स चल रहे हैं, बाकी ज्यादातर इलाज़ के लिए लोगों को बाहर जाना पड़ता है।

एम्बुलेंस वैसे तो विधायक-एमपी ही देते हैं अपने कोटे से, और चलाने वाले लोग या संगठन सिर्फ मैंटेनेंस के नाम पर पैसा लेते हैं, पर ये चार्ज किसी भी प्राइवेट वाहन से कम नहीं होता। लगता है विधायक-एमपी को ये पूछने की फुर्सत नहीं रहती के इतना पैसा क्यू लेते हो जब गाड़ी उनके कोटे की होती है।

बिजली आपूर्ति में भी हालत ये है कि बिना इनवर्टर, बैटरी और जेनेरेटर के न आप घर में आराम से रह पाएंगे न अपना कारोबार सही से कर पाएंगे। भाजपा के मुख्यमंत्री रघुबर दास ने कई बार राज्य की जनता से वादा किया था कि दिसम्बर 2018 तक अगर 24 घंटे बिज़ली नहीं दी तो वो वोट मांगने नहीं आएंगे, अब जब मुखिया वादा नहीं निभा पा रहे तो इस बारे में विधायक से क्या उम्मीद कर सकते हैं।

बिजली की खराब व्यवस्था को लेकर झारखंड चेम्बर ऑफ कॉमर्स ने भी बहुत आवाज़ उठाई, पर हालात नहीं बदले।

स्कूल की हालत पर चर्चा ज्यादा करना इसलिए सही नहीं होगा कि रघुबर दास सरकार में पूरे  झारखंड में स्कूल्स कि दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है तो फिर विधायक क्या करेंगे।

जल संकट विकराल रूप ले चुका है और नागार्जुना जल आपूर्ति भी नाकाफी साबित हो रही शहरी इलाके में।

विधायक से उम्मीद 

इन सबके बीच, सही मायने में उम्मीद जागी थी गिरिडीह के लोगों कि 2014-2019 के दौरान। पहली बार ऐसा हुआ कि उप मेयर, मेयर, एमपी, मुख्यमंत्री और यहाँ तक कि प्रधानमंत्री भी यहाँ के विधायक निर्भय शाहबादी की पार्टी भाजपा के रहे।
पर गिरिडीह में कोई बड़ा काम हुआ हो जो इस शहर को राष्ट्रीय पटल पे ला दे ऐसा कुछ नहीं हुआ।

गिरिडीह अब नगर निगम जरूर है, पर जब तक ड्रैनेज सिस्टम और रिंग रोड नहीं बनते है तब तक नगर निगम सिर्फ कागजों और होर्डिंग्स में लिखने में अच्छा है।

गिरिडीह विधानसभा का हिस्सा है पीरटांड़ ब्लॉक, ये ज़िले का सबसे पुराना ब्लॉक है, पर अति नक्सल प्रभावित है। यहाँ का वोट सभी पार्टियो को चाहिए, पर विकास में ये गिरिडीह का सबसे पिछड़ा इलाका है।

एक गिरिडीह-कोडरमा रेल्वे लाइन 21 सालो में अभी तक पूरी तरह चालू नहीं हुई और गिरिडीह-कोलकाता को लगने वाले दो कोच कभी भी बंद हो जाते हैं।

गिरिडीह शहर को कई बार अच्छे अधिकारी भी मिले और लोगों को लगा, नेता नहीं तो अधिकारी शहर को बेहतर कर देंगे, पर न यहाँ केके पाठक को रहने दिया गया, न तदाशा मिश्रा को और न विजया जाधव को। आईएएस जाधव के ट्रान्सफर कराने का इल्ज़ाम तो विधायक शाहबादी और मेयर सुनील पासवान पर ही लगा।

गिरिडीह का भविष्य

आज हाल ये है के गिरिडीह में रहने वाले सभी लोग ये मानते हैं कि उन्हें इलाज़, शिक्षा और रोज़गार सभी के लिए बाहर जाना होगा।

हाँ, जिस शहर में पानी की किल्लत हो, बिज़ली सही नहीं मिले, इलाज़ के लिए बाहर जाना हो, पढ़ाई में प्राइवेट स्कूल्स के भरोसे रहना पड़े, शहर की सड़कें भी सही न हों, वहाँ ज़मीन की क़ीमत आसमान छूती रहती है हमेशा।

ऐसा इसलिए कि ज्यादातर नेता या तो ज़मीन खरीद-फ़रोख्त बैक्ग्राउण्ड के होते हैं या जीतने के बाद इस काम में लग जाते हैं।

और ऐसा नेता चुनने का श्रेय जरूर मतदाता को जाता है जो बार-बार वोट काम और अच्छा कैंडिडैट देख कर नहीं बल्कि जाति या धर्म के आधार पर करते हैं।

अब 2019 के विधान सभा चुनाव के बाद ये देखना दिलचस्प होगा कि गिरिडीह बोस और महालनोबिस के ऐतिहासिक दौर को वापस देख पाता है या विकास की बाट जोहता रह जाएगा फिर एक बार।

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