देश में जातीय जनगणना करवाई जाए- झारखंड जनाधिकार महासभा

यह भी हो सकता है कि अगर जातीय जनगणना के, जातियों की नौकरी, सम्पत्ति, रोजगार, संसाधन में हिस्सेदारी के आँकड़े पूरे आ गये तो पूर्वोक्त प्रभुत्वसम्पन्न सवर्ण जातियों के साथ ही अन्य नवप्रभु पिछड़ी जातियों की दावेदारियों को चुनौती मिलनी शुरू हो जाय। नयी सामाजिक दावेदारियों का दरवाजा खुलता जाय। आरक्षण के ज्यादा प्रभावी और सहभागी पुनर्गठन की समझ बनती जाय

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रांची: राजनीतिक दलों के द्वारा उठ रहे आवाज़ों के बीच अब सामाजिक संगठनों ने भी जातीय जनगणना कराये जाने की मांग की है।

झारखंड जनाधिकार महासभा ने आज एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर बताया के वो जनगणना के तहत जातीय जनगणना को सही और जरूरी कदम मानती है।

महासभा ने लिखा, 1931 के बाद सीमित या कुछ अलग संदर्भों में यह पहली बार 2011 में हुआ, लेकिन होने के बाद भी सार्वजनिक नहीं हुआ। इस स्थिति को महासभा स्वतंत्र भारत के सरकारों की दुखद अदूरदर्शिता तथा सामाजिक संवेदनशून्यता मानती है। 2011 की जनगणना के जातीय विवरणों को सार्वजनिक रूप से जारी करने में अगर कानून का कोई हिस्सा रुकावट बनता है तो उस रुकावट को हटा देना चाहिए था। अब जबकि ऐसी जनगणना की मांग जोर शोर से उठ रही है, तब भी उसे नकारना सीधे-सीधे सरकारी निरंकुशता है। लोकतंत्र का तकाजा तो यह है कि हर अवरोध हटाकर इस अपेक्षा को पूरा किया जाना चाहिए।

महासभा जो कई सामाजिक संगठनों का एक समूह है ने आगे लिखा, जाति एक सामाजिक-आर्थिक सच्चाई है, जिसका असर लोगों के जीवन और शासन के हर आयाम पर होता है। विशेषाधिकार और वर्जना पर आधारित श्रेणीबद्धता की यह संरचना समता, स्वतंत्रता, न्याय और सार्विक खुशहाली की संभावनाओं पर नाकेबंदी किये बैठी है। इस नाकेबंदी को ढहाने के लिए ही आरक्षण और सामाजिक कल्याण की नीतियां और योजनाएं चलायी जाती हैं। जिस तरह आर्थिक लक्ष्यों और योजनाओं को तय करने के लिए आर्थिक परिस्थिति व आर्थिक समूहों की पूरी एवं सूक्ष्म से सूक्ष्म जानकारी होनी चाहिए। उसी तरह सामाजिक सांस्कृतिक लक्ष्यों और योजनाओं के लिए सामाजिक स्थितियों, सामाजिक सांस्कृतिक समूहों की ज्यादा से ज्यादा जानकारी जरूरी है। और इसके लिए जातीय जनगणना भी जरूरी है।

कुछ पार्टियाँ और शक्तियाँ इस माँग के अनौचित्य सिद्धि या अवमूल्यन के लिए बेतुकी चिंतायें जाहिर कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि जाठ, पटेल, मराठा, लिंगायत जैसे प्रभुत्वशाली जातियों को आरक्षण पर वर्चस्व हासिल हो जाएगा। जातीय ध्रुवीकरण और जातीयता बढ़ेगी। यह सवर्णवादी चालाक लोगों की घबराहट की बड़बड़ाहट है। आजकल फैल रही सवर्ण आक्रामकता, आरक्षण कम करने की प्रशासनिक साजिशों, आर्थिक रूप से पिछड़ों की नयी असंवैधानिक श्रेणी बना कर उसे 10% आरक्षण देने के प्रकरणों पर इनकी चुप्पी इनकी शातिर चालाकी का बयान कर जाती है। यह भी हो सकता है कि अगर जातीय जनगणना के, जातियों की नौकरी, सम्पत्ति, रोजगार, संसाधन में हिस्सेदारी के आँकड़े पूरे आ गये तो पूर्वोक्त प्रभुत्वसम्पन्न सवर्ण जातियों के साथ ही अन्य नवप्रभु पिछड़ी जातियों की दावेदारियों को चुनौती मिलनी शुरू हो जाय। नयी सामाजिक दावेदारियों का दरवाजा खुलता जाय। आरक्षण के ज्यादा प्रभावी और सहभागी पुनर्गठन की समझ बनती जाय।

जातीय जनगणना के साथ ही अन्य गैर परंपरागत या अब तक अनदेखे सामाजिक समुदायों की भी गणना होनी चाहिए। थर्ड सेक्स, अंतरजातीय अन्तर्धार्मिक विवाहों से बने समूह अब नजर आने लगे हैं। कई और ऐसे समुदाय होंगे जो अब तक अदृश्य हैं और जिन्हें देखना और दर्ज करना जरूरी हो। यह खुले और सूक्ष्म सर्वेक्षण से ही संभव होगा।

वार्ड सदस्यों, ग्राम सभाओं के जरिये ज्यादा प्रमाणिक तौर पर और ज्यादा तेजी से ऐसी सामाजिक सांस्कृतिक जनगणना हो सकती है। इसे ध्यान में रखते हुए इन्हें जनगणना में शामिल करना चाहिए। हम मांग करते हैं कि जातीय जनगणना करवाई जाए।

जातीय जनगणना की मांग न सिर्फ विपक्षी पार्टियाँ कर रही हैं बल्के मोदी सरकार में शामिल जनता दल यूनाइटेड और अपना दल भी कर रहें है।

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रांची: राजनीतिक दलों के द्वारा उठ रहे आवाज़ों के बीच अब सामाजिक संगठनों ने भी जातीय जनगणना कराये जाने की मांग की है।

झारखंड जनाधिकार महासभा ने आज एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर बताया के वो जनगणना के तहत जातीय जनगणना को सही और जरूरी कदम मानती है।

महासभा ने लिखा, 1931 के बाद सीमित या कुछ अलग संदर्भों में यह पहली बार 2011 में हुआ, लेकिन होने के बाद भी सार्वजनिक नहीं हुआ। इस स्थिति को महासभा स्वतंत्र भारत के सरकारों की दुखद अदूरदर्शिता तथा सामाजिक संवेदनशून्यता मानती है। 2011 की जनगणना के जातीय विवरणों को सार्वजनिक रूप से जारी करने में अगर कानून का कोई हिस्सा रुकावट बनता है तो उस रुकावट को हटा देना चाहिए था। अब जबकि ऐसी जनगणना की मांग जोर शोर से उठ रही है, तब भी उसे नकारना सीधे-सीधे सरकारी निरंकुशता है। लोकतंत्र का तकाजा तो यह है कि हर अवरोध हटाकर इस अपेक्षा को पूरा किया जाना चाहिए।

महासभा जो कई सामाजिक संगठनों का एक समूह है ने आगे लिखा, जाति एक सामाजिक-आर्थिक सच्चाई है, जिसका असर लोगों के जीवन और शासन के हर आयाम पर होता है। विशेषाधिकार और वर्जना पर आधारित श्रेणीबद्धता की यह संरचना समता, स्वतंत्रता, न्याय और सार्विक खुशहाली की संभावनाओं पर नाकेबंदी किये बैठी है। इस नाकेबंदी को ढहाने के लिए ही आरक्षण और सामाजिक कल्याण की नीतियां और योजनाएं चलायी जाती हैं। जिस तरह आर्थिक लक्ष्यों और योजनाओं को तय करने के लिए आर्थिक परिस्थिति व आर्थिक समूहों की पूरी एवं सूक्ष्म से सूक्ष्म जानकारी होनी चाहिए। उसी तरह सामाजिक सांस्कृतिक लक्ष्यों और योजनाओं के लिए सामाजिक स्थितियों, सामाजिक सांस्कृतिक समूहों की ज्यादा से ज्यादा जानकारी जरूरी है। और इसके लिए जातीय जनगणना भी जरूरी है।

कुछ पार्टियाँ और शक्तियाँ इस माँग के अनौचित्य सिद्धि या अवमूल्यन के लिए बेतुकी चिंतायें जाहिर कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि जाठ, पटेल, मराठा, लिंगायत जैसे प्रभुत्वशाली जातियों को आरक्षण पर वर्चस्व हासिल हो जाएगा। जातीय ध्रुवीकरण और जातीयता बढ़ेगी। यह सवर्णवादी चालाक लोगों की घबराहट की बड़बड़ाहट है। आजकल फैल रही सवर्ण आक्रामकता, आरक्षण कम करने की प्रशासनिक साजिशों, आर्थिक रूप से पिछड़ों की नयी असंवैधानिक श्रेणी बना कर उसे 10% आरक्षण देने के प्रकरणों पर इनकी चुप्पी इनकी शातिर चालाकी का बयान कर जाती है। यह भी हो सकता है कि अगर जातीय जनगणना के, जातियों की नौकरी, सम्पत्ति, रोजगार, संसाधन में हिस्सेदारी के आँकड़े पूरे आ गये तो पूर्वोक्त प्रभुत्वसम्पन्न सवर्ण जातियों के साथ ही अन्य नवप्रभु पिछड़ी जातियों की दावेदारियों को चुनौती मिलनी शुरू हो जाय। नयी सामाजिक दावेदारियों का दरवाजा खुलता जाय। आरक्षण के ज्यादा प्रभावी और सहभागी पुनर्गठन की समझ बनती जाय।

जातीय जनगणना के साथ ही अन्य गैर परंपरागत या अब तक अनदेखे सामाजिक समुदायों की भी गणना होनी चाहिए। थर्ड सेक्स, अंतरजातीय अन्तर्धार्मिक विवाहों से बने समूह अब नजर आने लगे हैं। कई और ऐसे समुदाय होंगे जो अब तक अदृश्य हैं और जिन्हें देखना और दर्ज करना जरूरी हो। यह खुले और सूक्ष्म सर्वेक्षण से ही संभव होगा।

वार्ड सदस्यों, ग्राम सभाओं के जरिये ज्यादा प्रमाणिक तौर पर और ज्यादा तेजी से ऐसी सामाजिक सांस्कृतिक जनगणना हो सकती है। इसे ध्यान में रखते हुए इन्हें जनगणना में शामिल करना चाहिए। हम मांग करते हैं कि जातीय जनगणना करवाई जाए।

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महासभा ने लिखा, 1931 के बाद सीमित या कुछ अलग संदर्भों में यह पहली बार 2011 में हुआ, लेकिन होने के बाद भी सार्वजनिक नहीं हुआ। इस स्थिति को महासभा स्वतंत्र भारत के सरकारों की दुखद अदूरदर्शिता तथा सामाजिक संवेदनशून्यता मानती है। 2011 की जनगणना के जातीय विवरणों को सार्वजनिक रूप से जारी करने में अगर कानून का कोई हिस्सा रुकावट बनता है तो उस रुकावट को हटा देना चाहिए था। अब जबकि ऐसी जनगणना की मांग जोर शोर से उठ रही है, तब भी उसे नकारना सीधे-सीधे सरकारी निरंकुशता है। लोकतंत्र का तकाजा तो यह है कि हर अवरोध हटाकर इस अपेक्षा को पूरा किया जाना चाहिए।

महासभा जो कई सामाजिक संगठनों का एक समूह है ने आगे लिखा, जाति एक सामाजिक-आर्थिक सच्चाई है, जिसका असर लोगों के जीवन और शासन के हर आयाम पर होता है। विशेषाधिकार और वर्जना पर आधारित श्रेणीबद्धता की यह संरचना समता, स्वतंत्रता, न्याय और सार्विक खुशहाली की संभावनाओं पर नाकेबंदी किये बैठी है। इस नाकेबंदी को ढहाने के लिए ही आरक्षण और सामाजिक कल्याण की नीतियां और योजनाएं चलायी जाती हैं। जिस तरह आर्थिक लक्ष्यों और योजनाओं को तय करने के लिए आर्थिक परिस्थिति व आर्थिक समूहों की पूरी एवं सूक्ष्म से सूक्ष्म जानकारी होनी चाहिए। उसी तरह सामाजिक सांस्कृतिक लक्ष्यों और योजनाओं के लिए सामाजिक स्थितियों, सामाजिक सांस्कृतिक समूहों की ज्यादा से ज्यादा जानकारी जरूरी है। और इसके लिए जातीय जनगणना भी जरूरी है।

कुछ पार्टियाँ और शक्तियाँ इस माँग के अनौचित्य सिद्धि या अवमूल्यन के लिए बेतुकी चिंतायें जाहिर कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि जाठ, पटेल, मराठा, लिंगायत जैसे प्रभुत्वशाली जातियों को आरक्षण पर वर्चस्व हासिल हो जाएगा। जातीय ध्रुवीकरण और जातीयता बढ़ेगी। यह सवर्णवादी चालाक लोगों की घबराहट की बड़बड़ाहट है। आजकल फैल रही सवर्ण आक्रामकता, आरक्षण कम करने की प्रशासनिक साजिशों, आर्थिक रूप से पिछड़ों की नयी असंवैधानिक श्रेणी बना कर उसे 10% आरक्षण देने के प्रकरणों पर इनकी चुप्पी इनकी शातिर चालाकी का बयान कर जाती है। यह भी हो सकता है कि अगर जातीय जनगणना के, जातियों की नौकरी, सम्पत्ति, रोजगार, संसाधन में हिस्सेदारी के आँकड़े पूरे आ गये तो पूर्वोक्त प्रभुत्वसम्पन्न सवर्ण जातियों के साथ ही अन्य नवप्रभु पिछड़ी जातियों की दावेदारियों को चुनौती मिलनी शुरू हो जाय। नयी सामाजिक दावेदारियों का दरवाजा खुलता जाय। आरक्षण के ज्यादा प्रभावी और सहभागी पुनर्गठन की समझ बनती जाय।

जातीय जनगणना के साथ ही अन्य गैर परंपरागत या अब तक अनदेखे सामाजिक समुदायों की भी गणना होनी चाहिए। थर्ड सेक्स, अंतरजातीय अन्तर्धार्मिक विवाहों से बने समूह अब नजर आने लगे हैं। कई और ऐसे समुदाय होंगे जो अब तक अदृश्य हैं और जिन्हें देखना और दर्ज करना जरूरी हो। यह खुले और सूक्ष्म सर्वेक्षण से ही संभव होगा।

वार्ड सदस्यों, ग्राम सभाओं के जरिये ज्यादा प्रमाणिक तौर पर और ज्यादा तेजी से ऐसी सामाजिक सांस्कृतिक जनगणना हो सकती है। इसे ध्यान में रखते हुए इन्हें जनगणना में शामिल करना चाहिए। हम मांग करते हैं कि जातीय जनगणना करवाई जाए।

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