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वंचित समूहों को कब मिलेगी घुटन से मुक्ति

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भारत के सैकड़ो मोब लिंचिंग की घटनाएँ हो चुकी है पर इस के खिलाफ वैसा आंदोलन नहीं देखने को मिलता है जैसा जॉर्ज फ्लॉयड के मामले में अमेरिका में हुआ

मेरिका के मिनियापोलिस शहर में जॉर्ज फ्लॉयड नामक एक अश्वेत नागरिक की श्वेत पुलिसकर्मी डेरेक चौविन ने हत्या कर दी। चौविन ने अपना घुटना फ्लॉयड की गर्दन पर रख दिया जिससे उसका दम घुट गया। यह तकनीक इस्राइली पुलिस द्वारा खोजी गई है। श्वेत पुलिसकर्मी नौ मिनट तक अपना घुटना फ्लॉयड की गर्दन का रखे रहा। इस बीच फ्लॉयड लगातार चिल्लाता रहा। ‘मैं साँस नहीं ले पा रहा हूँ’।

इस क्रूर हत्या के विरोध में अमेरिका में जबरदस्त प्रदर्शन हुए। प्रदर्शनकारियों का नारा था ‘ब्लैक लाइव्ज़ मैटर’। इन प्रदर्शनों में अश्वेतों के अलावा बड़ी संख्या में श्वेत भी शामिल हुए। मिनियापोलिस के पुलिस प्रमुख ने फ्लॉयड के परिवार से माफ़ी मांगीं। बड़ी संख्या में अमरीकी पुलिसकर्मियों ने सार्वजनिक स्थानों पर घुटने के बल बैठ कर अपने साथी की हरकत पर प्रतीकात्मक पछतावा व्यक्त किया। फ्लॉयड के साथ हुए व्यवहार पर पूरी दुनिया में लोगों ने अपने रोष, शर्मिंदगी और दुःख को विभिन्न तरीकों से अभिव्यक्त किया।

इस घटना के मूल में है श्वेतों के मन में अश्वेतों के प्रति नस्लीय नफरत। अश्वेतों के बारे में गलत धारणाओं के चलते उनके खिलाफ हिंसा होती है। इस घटनाक्रम से यह भी साफ़ हो गया कि अमेरिका में प्रजातंत्र की जड़ें कितनी गहरी हैं। वहां के कई राज्यों की पुलिस ने इस घटना के लिए क्षमायाचना की और श्वेत और अश्वेत दोनों इसके खिलाफ एक साथ उठ खड़े हुए।

अमेरिका दुनिया का ऐसा इकलौता देश नहीं है जहाँ समाज के हाशियाकृत समुदायों के साथ क्रूरता और हिंसा होती हो। भारत में दलितों, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों को इसी तरह की हिंसा का सामना लम्बे समय से करना पड़ रहा है। परन्तु यहाँ ऐसी घटनाओं पर अलग तरह की प्रतिक्रिया होती है।

तबरेज़ अंसारी को एक खम्बे से बाँध कर एक भीड़ ने बेरहमी से पीटा। उसे पुलिस स्टेशन ले जाया गया परन्तु पुलिस ने उसे अस्पताल पहुँचाने में इतनी देर लगा दी कि उसकी मौत हो गई। पुणे में एक आईटी कर्मचारी की हिन्दू राष्ट्र सेना के कार्यकर्ताओं के समूह ने हत्या कर दी। यह घटना सन 2014 के मई माह में ठीक उसी दिन हुई जिस दिन मोदी सत्ता में आये। अफराजुल को जान से मारते हुए शम्भूलाल रेगर ने अपना वीडियो बनाया और उसे सोशल मीडिया पर डाल दिया। रेगर का मानना था कि मुसलमान लव जिहाद कर रहे हैं और उनके साथ यही होना चाहिए। मोहम्मद अखलाक की इस संदेह में हत्या कर दी गई कि उसके घर में गाय का मांस है। इस तरह की घटनाओं की एक लम्बी सूची है।

हाल में, उत्तरप्रदेश में एक दलित युवा को इसलिए अपनी जान से हाथ धोना पड़ा क्योंकि उसने एक मंदिर में घुसने की हिमाकत की थी। ऊना में चार दलितों को कमर तक नंगा कर हंटरों से मारा गया। इस घटना पर टिप्पणी करते हुए केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने कहा कि यह एक मामूली घटना है। दलितों के विरुद्ध अत्याचार की घटनाओं की सूची भी बहुत लम्बी है। परन्तु सामान्यतः ऐसी घटनाओं पर वही प्रतिक्रिया होती है जो पासवान की थी। फ्लॉयड के साथ अमेरिका में जो कुछ हुआ उससे कहीं अधिक क्रूरता और अत्याचार दलितों, मुसलमानों और आदिवासियों को झेलने पड़ते हैं।

अमेरिका में एक अश्वेत की जान जाने की घटना ने देश और दुनिया को हिला कर रख दिया। भारत में इस तरह की घटनाओं पर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। हां, कभी-कभी एक लम्बी चुप्पी के बाद प्रधानमंत्री हमें इस तथ्य से वाकिफ कराते हैं कि मां भारती ने अपना एक पुत्र खो दिया है। अधिकांश मामलों में पीड़ित को ही दोषी ठहराया जाता है। कुछ संगठन अलग-अलग मंचों से इसके विरोध में बोलते हैं परन्तु उनकी आवाज़ नक्कारखाने में तूती की आवाज़ साबित होती है।

भारत को दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातंत्र कहा जाता है। प्रजातन्त्र में कानून का शासन होना ही चाहिए। इसी कानून के आधार पर अन्यायों को चुनौती दी जाती है। अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति भले ही एक असंवेदनशील व्यक्ति हों परन्तु उस देश की प्रजातान्त्रिक प्रक्रियाएं और संस्थाएं बहुत मज़बूत हैं। इन संस्थाओं की जडें गहरी हैं। यद्यपि कुछ पुलिस अधिकारी पूर्वाग्रहग्रस्त हो सकते हैं, जैसा कि फ्लॉयड के हत्या के मामले में हुआ, परन्तु वहां ऐसे पुलिस अधिकारी भी हैं जो अपने राष्ट्रपति से सार्वजनिक तौर पर यह कह सकते हैं कि अगर उनके पास बोलने के लिए कोई काम की बात नहीं है तो उन्हें अपनी जुबान बंद रखनी चाहिए। समाज में अश्वेतों के बारे में गलत धारणाएं आम हो सकती हैं परन्तु अमरीकियों का एक बड़ा तबका मानता है कि ‘ब्लैक लाइव्ज़ मैटर’ और जब भी देश में प्रजातंत्र और मानवता के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन होता है तब यह तबका खुलकर उसका विरोध करता है।

इसके विपरीत भारत में कई कारणों से तबरेज अंसारी, मोहम्मद अखलाक और ऊना के दलितों और उनके जैसे अन्यों के जान की कोई कीमत ही नहीं है। यद्यपि हम यह दावा करते हैं कि हम एक प्रजातंत्र हैं तथापि अन्याय के प्रति हमारी असंवेदनशीलता बढ़ती जा रही है।

पिछले कुछ दशकों में हाशियाकृत समुदायों के विरुद्ध दुष्प्रचार इस हद तक बढ़ गया है कि उनके विरुद्ध हिंसा सामान्य मानी जाने लगी है। आम लोग इन समुदायों के सदस्यों के साथ हो रहे अत्याचारों से विक्षुब्ध तो होते हैं परन्तु वे इन वर्गों के खिलाफ पूर्वाग्रहों से भी भरे होते हैं। सांप्रदायिक ताकतों का पारम्परिक और सोशल दोनों मीडिया में जबरदस्त दबदबा हैं और वे इन वंचित समूहों के बारे में इस हद तक गलत धारणाएं प्रचारित करती हैं कि आमजन उससे प्रभावित हो जाते हैं।

वैसे भी, हमारे देश में प्रजातंत्र के जड़ पकड़ने की गति बहुत धीमी रही है। प्रजातंत्र एक गतिशील व्यवस्था है। यह कोई स्थिर चीज़ नहीं। दशकों पहले श्रमिक और दलित अपने अधिकारों के लिए बिना किसी समस्या के लडाई लड़ते थे परन्तु आज यदि किसान विरोध प्रदर्शन करते हैं तो उसे ‘ट्रैफिक में बाधा डालना’ बताया जाता है। प्रजातंत्र की जडें इस हद तक कमज़ोर हो गयीं हैं कि सरकार की नीतियों का विरोध करने वालों पर राष्ट्रविरोधी का लेबल चस्पा कर दिया जाता है।

हमारी प्रजातान्त्रिक संस्थाएं धीरे-धीरे कमज़ोर हो गई हैं और अब तो कोई यह सोच भी नहीं सकता कि वे हाशियाकृत समुदायों की रक्षा में आगे आएंगीं। विघटनकारी और सांप्रदायिक विचारधारा – जो अल्पसंख्यकों, दलितों और आदिवासियों को नीची निगाहों से देखती है – का प्रभाव बहुत तेज़ी से बढ़ा है।

भारत में प्रजातन्त्र खोखला होता जा रहा है। कानून के राज को एक विचारधारा के राज में बदल दिया गया है। यह वह विचारधारा है जिसकी भारतीय संविधान में आस्था नहीं है, जो इस देश के बहुवादी और विविधवर्णी चरित्र को पसंद नहीं करती और जिसकी रूचि ऊंची जातियों और संपन्न वर्गों के विशेषाधिकारों की रक्षा में है। हमारे देश में प्रजातंत्र को मज़बूत होना चाहिए था। परन्तु सन 1980 के दशक के बाद से, भावनात्मक मुद्दों को उछालने के कारण, यह कमज़ोर हुआ है। यहाँ किसी फ्लॉयड की हत्या पर शोर नहीं मचता। जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या पर वहां जिस तरह का विरोध का ज्वार उठा, उसकी हम भारत में कल्पना तक नहीं का सकते। हमें अमरीकी प्रजातंत्र से कुछ सीखना चाहिए।

(हिंदी रूपांतरणः अमरीश हरदेनिया)

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