क्या EVM से वैयक्तिकता और वोटर की गोपनीयता के अधिकार का हनन होता है
कोई भी सरकार या नेता वोटर को इसलिए प्रताड़ित नहीं कर सकता क्योंकि उसने उन्हे वोट नहीं दिया. डॉ रत्नेश कातुलकर ने इस प्रश्न को बेहद संजीदगी से उठाया है क्योंकि दलित आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के साथ उनके वोटिंग पैटर्न को लेकर अक्सर नेता धमकाने वाली बात कहते हैं. इस विषय पर विस्तार से जानने और समस्या को गहराई से समझने के लिये हमने डॉ रत्नेश से बातचीत की. डॉ रत्नेश एक अम्बेडकरवादी चिंतक हैं और पिछले दस साल से अधिक समय से इस बात को उठाते रहे हैं
ईवीएम (EVM) लगभग अपने आरम्भ से ही विवादों के घेरे में रही है. इसको लेकर भिन्न-भिन्न पार्टियां और कार्यकर्ता जिनमें जन सरोकार वाले कार्यकर्ता से लेकर सॉफ्टवेयर प्रोफेशनल तक शामिल रहे हैं. जो बार-बार कहते रहे हैं कि ईवीएम से चुनाव करवाना नुकसानदायक है क्योंकि इससे मतदान के नतीजे प्रभावित किये जा सकते हैं, मशीन में छेड़छाड़ की जा सकती है.
वोटों को रिमोट कंट्रोल या किसी अन्य विधि से बदला जा सकता है और चुनाव के रिजल्ट को मनचाहा लाया जा सकता है. ईवीएम के विरोध में हैदराबाद के सॉफ्टवेयर इंजीनियर वी नरहरि ने गम्भीर रिसर्च भी किया है और अपने एक्स्पेरिमेंट के माध्यम से साबित भी किया है कि ईवीएम में कितने आसानी से छेडछाड की जा सकती है.
अभी तीन राज्यों के विधानसभाचुनाव ने एक बार फिर ईवीएम पर शक को मज़बूत किया है. कुछ प्रभावित पार्टियों ने एक बार फिर ईवीएम के खिलाफ फिर आवाज़ उठाई है. एक बार फिर दिग्विजय सिंह और कुछ नेता ईवीएम के खिलाफ मुखर हुए हैं. और सोशल मीडिया पर भी ईवीएम के खिलाफ एक गुस्सा दिखने लगा है.
लेकिन आज की हमारी चर्चा का विषय है यह नहीं बल्कि हम इस बात पर चर्चा करेंगे कि बिना टेम्परिंग की ईवीएम भी कितनी घातक है. आज हम जिस मुद्दे पर बात करने जा रहे हैं वह ईवीएम के टेक्निकल साईड पर न होते हुए एक अन्य पहलू जो कि उतना ही गम्भीर है जितना कि ईवीएम टेम्परिंग यानी मशीन से छेड्छाड कर उससे मनचाहा रिज़ल्ट निकलवाना. ईवीएम का यह अनदेखा घातक पक्ष क्या है? हम यहाँ ईवीएम की तकनीक वाले प्रश्न पर बात नहीं करेंगे क्योंकि तकनीक विशेषज्ञ और वैज्ञानिक इस पर लगातार अपनी बात रख रहे हैं. हमारा सवाल यहाँ पर वोटर की गोपनीयता का है जो लोकतंत्र मे एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है क्योंकि चुनाव से पहले वोटर किसी भी पार्टी को वोट दे सकता है लेकिन एक बार जब सरकार बनती है तो वह सबकी होती है. कोई भी सरकार या नेता वोटर को इसलिए प्रताड़ित या हरास नहीं कर सकता क्योंकि उसने उन्हे वोट नहीं दिया. डॉ रत्नेश कातुलकर ने इस प्रश्न को बेहद संजीदगी से उठाया है क्योंकि दलित आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के साथ उनके वोटिंग पैटर्न को लेकर अक्सर नेता धमकाने वाली बात कहते हैं.
इस विषय पर विस्तार से जानने और समस्या को गहराई से समझने के लिये आज हम डॉ रत्नेश से बातचीत करेंगे. रत्नेश एक अम्बेडकरवादी चिंतक हैं और पिछले दस साल से अधिक समय से इस बात को उठाते रहे हैं और समाज के सरोकारों से सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं. अभी हाल भी में इनकी एक चर्चित किताब ‘Outcasts on the Margins: Exclusion and Discrimination of Scavenging Communities in Education’ भी आई है.
विद्याभूषण रावत: रत्नेश भाई सबसे पहले हम जानना चाहते हैं कि आखिर ईवीएम टेम्परिंग के अलावा इस मशीन में क्या दोष है?
रत्नेश: ईवीएम पर टेम्पर होने का आरोप एक लम्बे समय से लग रहा है, और हम जानते ही हैं कि जिसके चलते अमेरिका और जापान जैसे विकसित देश इस पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा चुके हैं. लेकिन जैसा आपने कहा आज की हमारी चर्चा इस विषय पर नहीं है बल्कि इसके इतने ही घातक एक अन्य पहलू पर हैं.
ईवीएम का एक बडा दोष जो उसमें अंतर्निहित यानी इन्हेरेंट है वह यह है कि यह मशीन मतदाता की वोटिंग को गुप्त नहीं रहने देती. ईवीएम सीधे-सीधे गुप्त मतदान व्यवस्था की विरोधी है.
अब आप कहेंगे कैसे? तो बता दे कि हम यह नहीं कह रहे कि इस मशीन में कोई कैमरा लगा होता है जो हरेक वोटर की फोटो खींचता रहता है. या यह भी नहीं कि यह वोट की बटन दबाते से फिंगर प्रिंट केच कर लेता. या कोई अन्य तकनीक से वोटर की पहचान कर लेता. बिल्कुल नहीं.
इस मशीन में ऐसी किसी तकनीक होने का दावा हम नहीं कर रहे हैं. लेकिन फिर भी कैसे ये एक मतदाता की पहचान उजागर कर देती है इसे समझने के लिये हमें अपनी वोटिंग़ व्यवस्था को समझना होगा. चाहे वह लोकसभा का चुनाव हो या विधानसभा का या कोई और चुनाव. मतदान वोटिंग के लिये एक लोकसभा या विधानसभा… के लिये केवल एक बूथ तो नहीं होता. बल्कि वोटरों की सुविधा के लिये उनके घर के आसपास होते हैं. यानि एक विधान सभा या लोक सभा के लिये अनेक वोटिंग बूथ जो कि कुछ कालोनी और बस्तियों के क्लस्टर में होते हैं.
अब आपको यह भी समझना होगा कि हमारे देश की बसाहट आज भी सिर्फ जाति और धर्म पर ही केंद्रित है. अब देश की राजधानी दिल्ली को देखिये न इसकी बसाहट शुद्ध रूप से जाति केंद्रित है. यहाँ 207 बस्तियां जाट बहुल है। जिनमें शाहपुर जाट, अधचिनी, महरौली प्रमुख हैं. 70 बस्तियां गुर्जरों की है। वाल्मीकि, सैनी, चमार जाति के अपने-अपने इलाके हैं। बात सिर्फ दिल्ली की नहीं बल्कि हर शहरों में तमाम सवर्ण और कथित उच्च जाति की पौश कालोनी के साथ-साथ दलितों के भीम नगर, अम्बेडकर नगर, वाल्मीकि नगर सामान्य रूप से बसे होते हैं. मुस्लिमों की बसाहट तो हिंदुओं से अलग होती ही है। जैसे भोपाल का नया शहर जहाँ हिंदू बहुल हैं वहीं पुराना भोपाल मुसलमानों का इलाका है। कई शहरों में ईसाई, सिख, जैन जैसे धर्म अनुयायी और सिंधी, बंगाली, पंजाबी जैसे समुदाय अलग बस्तियों में रहते हैं. आदिवासी शहरों में ही नहीं बल्कि इनके गांव भी अलग होते हैं.
ऐसे में जब हर पोलिंग बूथ की ईवीएम गिनती के लिये एक एक कर खोली जाती है तो एक अदने से पोलिंग एजेंट के लिये यह जानना बेहद आसान हो जाता है कि किस जाति, सम्प्रदाय समूह के वोटर ने किस पार्टी को वोट दिया. इतना ही नहीं प्रत्येक समूह की महिलाओं ने किसे वोट दिया और पुरुषों ने किसे. क्योंकि हर बूथ पे महिला और पुरुष के लिये अलग अलग मशीन जो होती है. इसका कारण स्पष्ट है कि प्रत्येक ईवीएम की गिनती पोलिंग बूथ के आधार पर ही होती है. जिसे राजनीतिक पार्टी एजेंटों द्वारा आसानी से डिकोड कर लिया जाता है. राजनीतिक दलों के स्थानीय चुनाव एजेंट इतने चतुर होते हैं कि वे किसी विशेष बूथ पर वोटों की गिनती के आधार पर किसी भी समुदाय के मतदान पैटर्न का पता लगा लेते हैं. इनकी ज़मीनी समझ एसी रूम में बैठे विद्वानों से काफी अच्छी होती है. इस तरह ईवीएम से वोटो की गणना सीधे तौर पर गुप्त मतदान के हमारेसंवैधानिक प्रावधान को तोड़ देती है.
विद्याभूषण रावत: निश्चित ही आपने यह एक अनोखी बात उजागर की है. चलिए मान भी लिया कि ईवीएम से वोटर की पहचान नहीं छिप पाती लेकिन इससे लोकतंत्र को क्या नुकसान? इतनी सी बात पर इस पर प्रतिबंध लगाने की बात करना कहाँ तक उचित है?
रत्नेश: अगर आप ऐसा सोच रहे हैं तो भारी भूल कर रहे हैं. मतदाता की पहचान से एक नहीं बल्कि कई किस्म के खतरे हैं. इनमें दो प्रमुख खतरों की बात करें तो सबसे पहली बात यह कि किसी पार्टी विशेष को वोट नहीं देने पर एक बस्ती विशेष का जाति समूह उस पार्टी के गुंडों के सीधे निशाने पर आ जाता है. ऐसे समूह पर हमला जिसमें गंभीर मारपीट से लेकर जानलेवा हिंसा तक हो सकती है. लोकतंत्र के लिये ऐसी घटनाएं शर्मनाक है. लेकिन बात यहीं नहीं रुकती. इस डर से कि वोट पोलिंग़ एजेंट को पता चल जाएगा कमज़ोर तबके के लोग जिनमें दलित, आदिवासी, मज़दूर, मुसलमान और महिलाएं होती है अपनी मर्जी से अपने पसंद के उम्मीदवार को वोट नहीं दे पाते हैं. इस तरह ईवीएम चुनावों को निष्पक्ष नहीं रहने देती. ये सिर्फ दबंग जाति और पार्टी के वोटों को प्रभावित करने का यंत्र बन गई है.
दूसरा कि जीता हुआ जनप्रतिनिधि जब यह जान चुका होता है कि अमूक समूह ने उसे वोट नहीं दिया है तो वह उस समूह के साथ सौतेला व्यवहार करने से नहीं चूकता। जबकि एक विधायक या सांसद अपने वोटरों का नहीं बल्कि अपनी पूरी कान्सटीट्युसी का प्रतिनिधि होता है.
विद्याभूषण रावत: मतदाता की गोपनीयता का सवाल बहुत महत्वपूर्ण है। इससे दलित आदिवासी और अल्पसंख्यक कैसे प्रभावित होते हैं. थोडा और विस्तार से बताएं?
रत्नेश: देखिये आप जानते ही हैं कि दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक शोषण और ज्यादती का शिकार होते रहे हैं. इन तबकों को डरा धमका कर और कभी कभी पैसे देकर भी ताकतवर पार्टियां अपने पक्ष में वोट करवाती रही हैं. अगर मतदान शेषन विधि के अनुसार गुप्त हो तो ये तबके बिना डर और लालच के अपना वोट कर पाएंगे. लेकिन इनके वोट को ईवीएम आसानी से डिकोड कर लेती है इसलिये ये अपने विवेक से वोट नहीं दे पा रहे हैं. अगर आप फैक्ट चाहे तो मैं गुजरात का उदाहरण दे सकता हूँ जहाँ दंगों के बाद कैम्पों में रह रहे मुस्लिमों के एकमुश्त वोट बीजेपी को गये थे. ऐसा क्यों? क्या जिस पार्टी से वे पीड़ित थे उसे उन्होंने मर्जी से वोट दिया होगा! नहीं बिल्कुल नहीं बल्कि ईवीएम की वजह से उनका वोट आसानी से डिकोड होना तय था इसलिए उन्होंने मुसीबत से बचने के लिये ये वोट दिये. यही पैटर्न आप उत्तरप्रदेश और हरियाणा में देख सकते हैं, अल्पसंख्यक समुदाय हमले से बचने के लिये अपने विरोधी पार्टी को ही वोट देने पर मज़बूर होता रहा है.
आदिवासियों के लिये परेशानी यह है कि सत्ताधारी दल का विरोध करने पर उन्हें नक्सलवादी करार दिया जा सकता है. ऐसे में गुप्त मतदान का नहीं होना उन्हें अपने विरोधियों को वोट देने पर विवश करता है. दलितों का भी यही हाल है. लेकिन मामला यहीं नहीं रुकता. अगर ये तबके अपने वोट देने से भले भी मारपीट का शिकार न बने लेकिन जीता हुआ प्रत्याशी जब ईवीएम की कृपा से यह जान जाता है कि फलां समुदाय ने उसे वोट नहीं दिया तो वह अगले पांच साल तक इस समुदाय के साथ सौतेला व्यवहार करने से नहीं चुकेगा. मध्य प्रदेश के एक वार्ड में एक पार्षद ने खुले तौर पर एक बस्ती के दलितों को यह कहकर अपने घर से भगा दिया था कि जब उन्होने उसे वोट नहीं दिया तो अब अपने काम लेकर क्यों आये हैं? यह सब खुलेआम हो रहा है. लेकिन एसी रूम में बैठने वाले हमारे पत्रकार और बुद्धिजीवी इससे अब तक अनजान है. हर दलित, आदिवासी और मुस्लिम जो एक बस्ती विशेष में रहता है न सिर्फ इस सच को जानता है बल्कि वह इससे पीड़ित भी है. दु:ख की बात है कि वह अपनी इस पीड़ा को किसे बताए?
विद्याभूषण रावत: लेकिन यहाँ सवाल है कि क्या पुराने बैलेट पेपर (मतपत्र) से क्या एक मतदाता वोटर की पहचान छिपी रहती थी? उस समय भी तो पोलिंग बूथ वैसे ही होते थे जैसे कि आज फिर आप ईवीएम पर इसका दोष क्यों मढ रहे हैं? और यह शेषन विधि क्या है जिसका अपने ऊपर उल्लेख किया.
रत्नेश: इसमें कोई शक नहीं कि बैलेट पेपर की गिनती भी अगर सीधे बूथ आधार पर हो तो वोटरों की पहचान जाहिर होगी ही. दु:ख की बात है कि एक लम्बे समय तक मतपत्रों की गिनती भी बूथ आधार पर ही होती रही थी. लेकिन इससे मतदाता की पहचान के खतरे को भांपते हुए इस प्रणाली में क्रांतिकारी बदलाव तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने किया था. उन्होंने प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र के संपूर्ण बूथ से प्राप्त मतपत्रों को अलग अलग गिनने की प्रथा पर अंकुश लगाते हुए हर कांस्टीट्यूएंसी के सारे बूथों से प्राप्त बैलेट पेपर को एक ड्रम में मिलाना शुरू करवाया.
उनकी इज़ाद की गई यह तकनीक में एसा ड्र्म डिज़ाईन किया गया था जिसमें एक और बीचो बीच एक संलग्न हैंडल लगा हुआ करता था. इस ड्र्म के भीतर समस्त पोलिंग बूथों के मतपत्रों को डाल दिया जाता था. फिर इसे बंद कर इसके हैंडल को कई बार घुमाया जाता था. नतीजतन दलित बस्ती, मुस्लिम बस्ती, पोश कालोनी के बेलट पेपर अपने-अपने बूथ की पहचान मिटा कर केवल एक कांस्टिट्युएंसी विशेष के मतपत्र बन जाते थे. अब चुनाव परिणाम आने पर लाख कोशिशों के बावज़ूद भी पार्टी के पोलिंग एजेन्ट और अन्य कार्यकर्ता इन्हें समुदाय के आधार पर डीकोड नहीं कर पाते थे। नतीजतन वोटरो पर कोई दबाव नहीं होता था और वे निश्चिंत होकर अपना वोट दिया करते थे। साथ ही चुने हुए प्रतिनिधि भी वोटिंग से अनजान रहने के कारण किसी समुदाय से भेदभाव नहीं किया करते थे.
किंतु ईवीएम की शुरुआत के साथ, हमारे चुनाव आयोग ने फिर बेशर्मी से वही बूथ-वार गिनती के पुराने मॉडल का पालन करना शुरू कर दिया जिससे मतदाताओं की पहचान आसानी से उजागर होने लग गई. इस प्रकार ईवीएम देश के संविधान के खिलाफ एक उपकरण साबित हुआ जो लोकतंत्र का सीधा विरोधी है। इसलिये बिना देरी किये हर कीमत पर ईवीएम पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाना बेहद ज़रूरी है.
विद्याभूषण रावत: क्या हमारे संविधान में गुप्त मतदान का प्रावधान है? खुद डॉ. आम्बेडकर के इस पर क्या विचार थे?
रत्नेश: भारत के संविधान निर्माता खुले मतदान की जमीनी हकीकत से भली-भांति परिचित थे; इसलिए, उन्होंने हमारे देश में गुप्त मतदान की अवधारणा पेश की थी. वे जानते थे कि यदि मतदान के दौरान मतदाताओं की पसंद को छिपाया नहीं जाएगा तो जबरन मतदान की संभावना हमेशा बनी रहेगी. दबंग समुदाय आसानी से कमजोर समुदायों को अपने दबाव में वोट डालने के लिए मजबूर कर सकता है. इसलिये इसके पक्ष में डॉ अम्बेडकर ने संविधान सभा में बहस के दौरान गुप्त मतदान की प्राचीन बौद्ध परंपरा का उल्लेख किया था और सभा में एक बहस के दौरान आर के सिधवा ने स्पष्ट शब्दों में कहा:
चुनाव में गुप्त मतपेटी की भी व्यवस्था की जानी चाहिए… यदि हम संविधान में यह प्रावधान नहीं करते हैं और इसे संसद पर छोड़ देते हैं, तो यह एक बड़ा जोखिम होगा.
अंतत: हमारी संसद ने सैद्धांतिक रूप से गुप्त मतदान प्रणाली को अपनाया। किंतु ईवीएम के उपयोग ने हमें इस महत्वपूर्ण अधिकार से वंचित कर दिया.
विद्याभूषण रावत: इस बातचीत से दो बातें तो एकदम साफ होती है पहली कि ईवीएम वाकई हमारे मतदान को गुप्त नहीं रहने देता. दूसरा कि गुप्त मतदान किसी भी लोकतंत्र के लिये क्यों ज़रूरी है. इन दोनो ही बातों में हल्का सा भी संदेह नहीं बचा है. अपनी इस बात को आपने कब से और किन किन मंचों पर उठाया है. और क्यों इतनी शानदार तकरीर मेनस्ट्रीम के मीडिया डिबेट में नहीं आई?
रत्नेश: देखिये मैं उन गिने-चुने लोगों में हूँ जिन्होने भारत में सबसे पहले ईवीएम को देखा और उसमें वोट डाले. क्योंकि भारत में इसका सबसे पहला उपयोग मध्य प्रदेश के चुनाव में हुआ था तब मैं भोपाल में था. इसके इंट्रोडक्शन के समय ही इसकी इतनी तारीफ कर दी गई थी कि कोई इसका विरोध नहीं कर पाया था . कि इससे कागज़ की बचत और समय की बचत होती है… लेकिन चुंकि इसके उपयोग के साथ ही शेषन माडल का अंत हो गया था. इसलिये मैं व्यक्तिगत रूप से खुश नहीं था. उन दिनों में कालेज में पढता था और कुछ खास लिखना शुरू नहीं किया था. तब वेबसाईट्स और फेसबुक आदि भी नहीं थे कि कोई आम इंसान अपनी बात लोगों तक पहुंचा सके. इसलिये मेरा यह विरोध अपने परिवार और कुछ खास दोस्तों को ही जता पाया. और बात मन ही में रह गई.
लेकिन 2013 में मैंने अपना यह तर्क ईपीड्व्लु और तहलका में छपने के लिए भेजा. यहां आप को बता दू कि इतने सालों बाद यह तर्क दोबारा मन में जीवित होने का कारण यह था कि उन दिनों सरकार ने एक नया ऑप्शन नोटा भी इंट्रोड्यूस किया. जिसका मतलब यह है कि वोटर को यदि कोई भी उम्मेदवार अपने वोट के लायक नहीं लग रहा. हालांकि यह बटन वोटरो का मज़ाक बनाने के अलावा कुछ नहीं है क्योंकि भले ही नोटा को सबसे अधिक वोट मिल जाए उसकी कोई अहमियत नहीं … इसके बाद मिले वोट वाला उम्मीदवार को ही जीता माना जाएगा.
खैर इससे मुझे यह फायदा हुआ कि अंग्रेज़ी के कुछ अखबारों ने छापा कि नोटा को नक्सल प्रभावित इलाके में मिले भारी वोटो से जाहिर होता है कि वहाँ के आदिवासी माओवाद के समर्थक हैं!
इस न्यूज़ ने मुझे झकझोर दिया कि ईवीएम कितनी आसानी से आदिवासियों के वोट को डिकोड करने में कामयाब हुई जो कि शेषन माडल की काउंटींग में असम्भव था. और फिर मुझे अपना वह पुराना तर्क याद आ गया और मैंने बिना समय गंवाए तुरंत ही एक छोटा सा आलेख लिख डाला कि ईवीएम लोकतंत्र के लिये कितनी घातक है.
मैंने तुरंत यह आलेख ईपीड्व्लु और तरूण तेजपाल की तहलका में भेज दिया. ये दोनों ही पत्रिकाएं नामी गिरामी थी. इसलिये मुझे बहुत उम्मीद नहीं थी.. फिर भी मुझे अपने तर्क पर भरोसा था. दूसरे ही दिन मुझे तहलका के आफिस से मेल आया कि हम इसे छाप रहे हैं आप अपना फोटो भी भेज दीजिए. मैं खुश हुआ और तत्काल अपना फोटो मेल कर दिया. लेकिन थोड़ी ही देर बाद उनका अगला मेल आया कि आपका यह आलेख तो ईपीड्व्लु में पहले ही छप चुका है इसलिये हम इसे नहीं छाप सकते. इस मेल के बाद मैंने तुरंत ईपीड्व्लु देखी तब वाकई खुशी हुई कि उन्होंने इसे वाकई छापा था. मुझे लगा था कि ईपीड्व्लु में छपने से यह मुद्दा गंभीर विमर्श में तब्दील हो जाएगा. इसे पढकर मुझसे कई लोगो ने सम्पर्क किया. बधाई दी. इसे अद्भुत बताया. लेकिन दुख की बात है कि इतने बड़े प्लेटफार्म पर छपने के बाद भी बुद्धिजीवी तबके में विमर्श नहीं बन पाया.
मैं थोड़ा दुखी हुआ. लेकिन हार नहीं मानी मैंने इसे और संशोधित करके राउंड टेबल इंडिया में छपवाया, फिर काउंटरकरेंट में और अन्य जगह भी… लोगों ने इसे सराहा… मैने उन दिनों इंडीयन सोशल इन्सटीट्यूट मे रिसर्चर था इसलिये मैंने लीगल न्यूज़ एंड व्यूज़ में भी छपवाया. चूंकि यह वकीलों के द्वारा सम्पादित होता है इसलिये सुप्रीम कोर्ट के वकीलों ने इसे पढकर मुझ्से गंभीर सवाल किए जिसका मैंने उन्हें सफलता से उत्तर भी दिया. मैंने उनसे अनुरोध भी किया कि इस बिल पर वे ईवीईम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में पीआईएल डाले. उन्होने हामी भी भरी लेकिन कोई कदम नहीं उठाया. कुल मिला कर इतना जायज़ मुद्दा अपना कोई असर नहीं छोड पाया और सबके द्वारा भुला दिया गया. मैं खुद भी समय के साथ इसे भूल गया या सच कहू तो मुझे भूलना पडा.
विद्याभूषण रावत: अब सवाल है कि यदि ऐसा है तो हमारे देश की पार्टियां इस मुद्दे पर क्यों खामोश है? क्यों मानवाधिकार कार्यकर्ता चुप हैं?
रत्नेश: जाहिर है कि वे सब लोकतंत्र की रक्षा का ढोंग कर रहे हैं वर्ना क्या कारण है कि मतदान के गुप्त नहीं रह पाने की इतनी घिनौनी साज़िश पर वे चुप क्यों है? उनकी नीयत पर सवाल उठाना जायज़ है. खासकर दलित, आदिवासी और सेक्युलर कही जाने वाली पार्टियों की चुप्पी वाकई खतरनाक है.
विद्याभूषण रावत: यह निश्चित ही बेहद गंभीर बात है? वाकई इससे समझ आता है कि न सिर्फ मुख्यधारा के बुद्धिजीवी बल्कि दलित, बहुजन, मूलनिवासी नेता और बुद्धिजीवी तक चुप्पी साधे हुए हैं? चलते-चलते… क्या आप भी मानते हैं कि ईवीएम से छेड़छाड़ होती है? इस पर आपके क्या विचार हैं?
रत्नेश: इस विषय पर मैं सिर्फ इतना ही कहूंगा कि विश्व के सबसे विकसित राष्ट्र ईवीएम पर विश्वास नहीं रखते. अमेरिका और जापान जैसे देश इसे गलत मानते हैं. दिग्विजय सिंह जैसे वरिष्ठ नेता और सैम पिट्रोदा और गौहर रज़ा जैसे वैज्ञानिक भी ईवीएम को टेम्पर प्रूफ नहीं मानते. वे कहते हैं कि इससे छेडछाड कर वोटो की अदला बदली की जा सकती है.
लेकिन वे ब्यूरोक्रेट और लोग जो ढंग से कंप्यूटर और मोबाईल तक भी चलाना नहीं जानते ईवीएम को सही मानते हैं. इससे बडा मज़ाक और कुछ नहीं हो सकता.
विद्याभूषण रावत: आज पूर्व चुनाव आयुक्त श्री एस वाई कुरैशी को एक कार्यक्रम मे सुना और उन्होंने कहा कि ईवीएम फूल प्रूफ. उनका कहना था कि आखिर कर्नाटक का इलेक्शन बीजेपी इतनी बुरी तरह से कैसे हार गई क्योंकि वहाँ तो प्रधानमंत्री ने बहुत कैंपेन किया है. अभी भी लोग ये बात कह रहे हैं कि तेलंगाना में कांग्रेस कैसे जीती.
रत्नेश: देखिये. मेरा फोकस इस बात पर नहीं है कि ईवीएम टेम्पर प्रूफ नहीं है, बल्कि मैं इस बात पर ही जोर देना चाह रहा हूँ कि ईवीएम अपने आप में लोकतंत्र के लिये घातक है क्योंकि इससे मतदाता की पहचान उजागर होती है. रही बात टेम्परिंग के आरोप की और उस पर पूर्व चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी की टिप्पणी की तो इसका तार्किक जवाब यह है कि अगर तेलंगाना में भी बीजेपी बहुमत क्यों नहीं पा सकी तो इसका जवाब साफ है कि कोई मूर्ख ठग ही ऐसी ऐसी ठगी करेगा कि वह उसकी किसी टुच्ची हरकत से पकड़ा जाए. अगर कर्नाटक और तेलंगाना आदि सहित सभी प्रदेशों में ईवीएम से गड़बड़ी की जाएगी तो साफ है कि फिर बेवकूफ से बेवकूफ व्यक्ति भी ईवीएम की असलियत को जान जाएंगे. वैसे हम यह क्यों भूलते हैं कि ईवीएम पर सबसे पहला इल्ज़ाम खुद बीजेपी ने ही लगाया था. उनके एक कार्यकर्ता ने एक किताब लिखी थी जिसका विमोचन लालकृष्ण आडवाणी जी ने किया था. ईवीएम की टेम्परिंग को लेकर यह कहना सही नहीं कि इसे सिर्फ बीजेपी ही करती है बल्कि इस पर यह संदेह है कि इसे कोई भी दल जो उपर तक पकड रखता हो इसके साथ ग़डबड कर सकता है. चुंकि मैं तकनीकी विशेषज्ञ नहीं हूँ इसलिए मैं इस मामले पर अपना निजी मत नहीं देते हुए वैज्ञानिक गौहर रज़ा को कोट करना चाहता हूं कि ईवीएम की टेम्परिंग कोई एक पार्टी नहीं बल्कि किसी और बाहरी ताकत के द्वारा की जा रही होगी. उनका कहना है पंजाब विधानसभा जहाँ आम आदमी पार्टी का कोई संगठन तक नहीं था. वहाँ उसे बहुमत मिल जाने पर वे सवाल उठाते हैं. उनके इस तर्क में दम है. इस विषय मैं उस ताकत के बारे में सोचता हूँ तो लगता है कि हाँ निश्चित ही कोई कॉर्पोरेट समूह या अंतरराष्ट्रीय ग्रुप इस टेक्निकल तरीके से भारत के लोकतंत्र को खोखला कर सकता है.
विद्याभूषण रावत: ईवीएम मे आपके प्रश्न क्या केवल मतदाता की गोपनीयता को लेकर ही है या आप भी ये कह रहे हैं कि ये हैक की जा सकती है. क्या आप इस बात से सहमति रखते हैं के यदि वी वी पेट पर्चियों की गिनती होनी चाहिए ताकि किसी प्रकार की शंका की कोई गुंजाइश ना रहे। इस संबंध में पूर्व चुनाव आयुक्त कुरैशी कह रहे हैं कि सवाल टेक्नॉलजी का नहीं लोगों की नियत का है और प्रशासन की निष्पक्षता का है और उसके लिए वी वी पेट पर्चियों की गणना होनी चाहिए.
रत्नेश: मैं कोई टेक्निकल एक्स्पर्ट नहीं कि दावे के साथ टेम्परिंग पर कुछ कह सकूं लेकिन मेरी ही तरह पूर्व चुनाव आयुक्त और वर्तमान भी टेक्निकल एक्स्पर्ट नहीं हैं अंतर इतना है कि वे दावा करते हैं कि ईवीएम टेम्पर प्रूफ हैं! यह वाकई हास्यास्पद है. इस विषय पर अधिकार पूर्वक कोई साफ़्ट वेयर इंजीनियर या हैकर ही बोल सकता है और वे बोल भी रहे हैं लेकिन उनकी बातों को कोई गम्भीरता से नहीं लेता जबकि तकनीक के मामले में अनपढ अधिकारियों के मत लोगों को ईश वचन लगते हैं!
असल सवाल न टेक्नालाजी का है न प्रशासन की निष्पक्षता का. मुद्दा यह है कि ईवीएम अपने आप में ही घातक है क्योंकि इससे मतदाता की पहचान उजागर होती है. वीवीपैट की गिनती से इस समस्या का कोई हल नहीं हो सकता. इसलिये ईवीएम पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना ही समस्या का एकमात्र हल है.
विद्याभूषण रावत: इसमे कोई संदेह नहीं कि ईवीएम पर लोगों में अब बहुत संदेह है लेकिन क्या ये बात सही नहीं है कि विपक्ष के चुनावों मे बुरे प्रदर्शन के पीछे उनकी अपनी अकर्मण्यता भी है और समाज में धर्म के नाम पर हुए ध्रुवीकरण ने इसमें और योगदान दिया है. हमारी पार्टी धार्मिक ध्रुवीकरण के उत्तर नहीं ढूंढ पाई है.
रत्नेश: आप बिल्कुल सच कह रहे हैं. ऐसा कुछ पार्टियों के मामले में साफ दिखता है. उनके नेताओं ने अपने आप को महलों में कैद कर लिया है और संगठन पर कोई ध्यान नहीं है. वे बिना मेहनत के फल खाना चाहती हैं. सच तो यह है कि बीजेपी के अलावा आज कोई भी ऐसा दल नहीं हैं जो बिना चुनाव के भी अपना प्रचार कार्य करता हो. लेकिन यहाँ हम उनकी इस अकर्मण्यता से ज्यादा पीड़ित इस बात से हैं कि चुनाव हारने के बाद वे कुछ दिनों तो ईवीएम को खूब गाली देती है लेकिन इसके खिलाफ चुनाव आयोग और संसद में अपना मुंह तक नहीं खोलते. इनकी इस हरकत से हो ऐसा लगता है कि शायद ये सभी पार्टियां ईवीएम की समर्थक हैं उनका विरोध सिर्फ दिखावटी है. आखिर हम कैसे भूल सकते हैं कि ईवीएम के बाद क्या कांग्रेस, आप, बीएसपी, सपा, आरजेडी, जेडीयू, डीएम के सभी को तो अपने अपने राज्यों में बहुमत मिला है. ऐसे में यह कहना कि ईवीएम सिर्फ बीजेपी की ही मददगार है सही नहीं होगा, इसने हर पार्टी को मौका दिया है. इसलिये हमें गौहर रज़ा का शक ज्यादा मज़बूत लगता है कि ईवीएम को बाहरी ताकत नियंत्रित कर रही है, जो शायद कार्पोरेट लाबी हो या कोई और. लेकिन हमारा आरोप तो इससे बढकर है कि ईवीएम से वोटों की पहचान उजागर होती है. इस विषय पर सब चुप हैं. यह एक रहस्य है.
यह वाकई एक बडी सच्चाई है कि अब तक ईवीएम का विरोध संसद और चुनाव आयोग के सामने ढंग से किसी भी पार्टी ने नहीं किया है नहीं किसी ने यह शर्त रखी कि वह ईवीएम वाले चुनाव का बहिष्कार करेंगी. उनका विरोध बहुत हल्का और दिखावटी रहा है.
विद्याभूषण रावत: आप राजनीतिक दलों से क्या उम्मीद करते हैं?
रत्नेश: इनसे हल्की सी भी उम्मीद रखना बेमानी है. जैसा मैंने कहा ये सभी कभी न कभी इससे फायदा ले चुके हैं इसलिये वे सच्चाई को जानते हुए भी चुप रहने के लिये मजबूर हैं. लेकिन इससे बड़ी जिम्मेदारी आम नागरिक की है उसे लोकतंत्र की रक्षा के लिये आगे आना होगा.
विद्याभूषण रावत: अम्बेडकरवादी बहुजन सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी इस विषय में क्या करें। ईवीएम एक हकीकत है.
रत्नेश: आप देख ही रहे हैं आज के अम्बेडकरी बहुजन सामाजिक कार्यकर्ता गडे मुर्दे उखाडने में ताकत लगा रहे हैं उनके लिये मुख्य मुद्दा आर्य और अनार्य संघर्ष का है. कोई बीएसपी की भक्ति में तल्लीन है और उसे लग रहा है कि बस अब बहनजी प्रधानमंत्री बनने वाली है. कोई पूना पैक्ट के पीछे पडा है. मैंने खुद कितने ही आम्बेडकरवादी वकीलों से सम्पर्क किया कि वे ईवीएम के इस दोष पर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करें लेकिन किसी ने भी इस बात को तवज्जो नहीं दी. मैंने तो फेसबुक पर मुखर रहने वाले बहुजनों को भी मैसेज किया लेकिन उनका कोई रिस्पांस नहीं आया. ऐसे में इनसे क्या उम्मीद की जाए. हाँ मेरी ओर से कमी यह रही कि मैंने ईवीएम की इस समस्या के विरोध पर मेरा आलेख अंग्रेज़ी में था, शायद इस वजह से व्यापक अम्बेडकरी बहुजन सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी इसे नहीं पढ पाए हो. लेकिन आपका यह इन्टर्व्यू इस कमी को पूरा करने में कामयाब होगा. मुझे ऐसी उम्मीद है.
विद्याभूषण रावत: सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग इस पर कोई विशेष कुछ करने वाले नहीं हैं. सरकार के पास भी अपने तर्क हैं. ऐसी स्थिति मे क्या किया जाना चाहिए ताकि लोगों के वोट की गोपनीयता का अधिकार और उसकी स्वायत्तता बनी रहे ताकि लोकतंत्र बचा रहे.
रत्नेश: उनके सारे तर्क इसी बात पर केंद्रित हैं कि ईवीएम टेम्पर प्रूफ है. उन्होने इस चैलेंज को स्वीकारा भी था कि आओ और इसे बिना छुए छेडछाड कर दिखाओ! लेकिन जैसा मैंने कहा कि ये सब काम हैकरों का है हमारे जैसे एक्टिविस्ट का नहीं. हमारा विरोध तो सिर्फ इसी बात को लेकर है कि इससे मतदाता की पहचान उजागर होती है. इस विषय पर अगर चाहे तो हम किसी से भी बहस के लिए तैयार हैं. कम से कम इस इंटरव्यू के बाद सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेते हुए ईवीएम पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की दिशा में काम करना चाहिये. लोकतंत्र की रक्षा का सबसे अहम दायित्व तो सुप्रीम कोर्ट का है या फिर नागरिकों का. शायद आम नागरिकों को ही सामने आना होगा. हमें उम्मीद रखनी चाहिये.