अयोध्या की सरयू को उसकी पहचान दिलायी जाए
बेशक, अयोध्या सीधे भगवान राम और उनके राज्य की कहानियों से जुड़ा हुआ है लेकिन अयोध्या सही मायनों में सहिष्णु और विवेकवादी विरासत का केंद्र भी रहा है। बौद्ध परम्परा में अयोध्या को साकेत के नाम से जाना जाता है और यहां ऐसे कई स्थान हैं जिन्हें बौद्ध इतिहास से संबंधित कहा जा सकता है। अयोध्या कई सूफी संतों का भी घर है और कहा जाता है कि पांच महत्वपूर्ण जैन तीर्थंकरों का जन्म अयोध्या में हुआ था। अयोध्या नगरी की सुंदरता सहयोग और सम्मान की परंपरा में निहित है। आज भारत में ऐसे बहुत कम शहर हैं जहां कोई नदी वास्तव में इसकी सुंदरता बढ़ाती है और इसे पवित्रता देती है। भारतीय संदर्भ में नदियों का धार्मिक मूल्यों और हमारी संस्कृति, इतिहास और पौराणिक कथाओं के हिस्से से विशेष संबंध है। वास्तव में, नदियाँ केवल अपने धार्मिक उद्देश्यों के कारण पवित्र नहीं हैं, बल्कि वे हमारी पहचान हैं और निश्चित रूप से एक शहर से गुजरने वाली एक खूबसूरत नदी ही इसकी सुंदरता को और अधिक बढ़ाती है और इसे औरअधिक महत्वपूर्ण बनती है
अयोध्या शहर 22 जनवरी को राम मंदिर के उद्घाटन के लिए तैयार हो रहा है और विद्या स्वाभाविक रूप से भक्तों के बीच उत्साह है। अयोध्या का छोटा सा शहर अपनी विविध बहुल संस्कृति और और महान सांस्कृतिक विरासत के कारण मुझे हमेशा आकर्षित करता रहा है। बेशक, अयोध्या सीधे भगवान राम और उनके राज्य की कहानियों से जुड़ा हुआ है लेकिन अयोध्या सही मायनों में सहिष्णु और विवेकवादी विरासत का केंद्र भी रहा है। बौद्ध परम्परा में अयोध्या को साकेत के नाम से जाना जाता है और यहां ऐसे कई स्थान हैं जिन्हें बौद्ध इतिहास से संबंधित कहा जा सकता है। अयोध्या कई सूफी संतों का भी घर है और कहा जाता है कि पांच महत्वपूर्ण जैन तीर्थंकरों का जन्म अयोध्या में हुआ था। अयोध्या नगरी की सुंदरता सहयोग और सम्मान की परंपरा में निहित है। आज भारत में ऐसे बहुत कम शहर हैं जहां कोई नदी वास्तव में इसकी सुंदरता बढ़ाती है और इसे पवित्रता देती है। भारतीय संदर्भ में नदियों का धार्मिक मूल्यों और हमारी संस्कृति, इतिहास और पौराणिक कथाओं के हिस्से से विशेष संबंध है। वास्तव में, नदियाँ केवल अपने धार्मिक उद्देश्यों के कारण पवित्र नहीं हैं, बल्कि वे हमारी पहचान हैं और निश्चित रूप से एक शहर से गुजरने वाली एक खूबसूरत नदी ही इसकी सुंदरता को और अधिक बढ़ाती है और इसे और अधिक महत्वपूर्ण बनती है। दिल्ली, मथुरा और आगरा में यमुना जिस संकट से जूझ रही है, वह वास्तव में इन शहरों और इसके आसपास के सांस्कृतिक जीवन के लिए भारी क्षति है। वाराणसी को देखिए, क्योंकि यह इस समय उत्तर भारत का एकमात्र शहर है जहां गंगा इसकी महिमा बढ़ाती है। बिना गंगा और उसके घाटों के बनारस अधूरा है या यू कहें उसका कोई वजूद ही नहीं है।
इसमे कोई संदेह नहीं कि जब गंगा, यमुना, सरयू, काली नदियां उत्तराखंड से उतरती है तो बिल्कुल आश्चर्यजनक और भव्य रहती हैं। कोई भी पर्यटक या नदी प्रेमी जो ऋषिकेश आता है तो यह अनुभव कर सकता है कि स्वर्ग आश्रम के सामने, मुनिकीरेती में गंगा कितनी शानदार और मंत्रमुग्ध कर देने वाली है। उत्तर प्रदेश में, वाराणसी के अलावा, अयोध्या एक और शहर है जहां नदी आश्चर्यजनक दिखती है, उसका तट विशालकाय है लेकिन किसी कारण से इसे उतना महत्व नहीं मिला जितना मिलना चाहिए था और ये है अयोध्या से गुजरने वाली सरयू नदी। सरयू के बिना अयोध्या अधूरी है और नदी का तट सुंदर है, लेकिन सरयू की ऐसी स्थिति बना दी गई मानो वो कोई नदी थी ही नहीं और केवल धर्मग्रंथों मे ही थी। लोगों को लगा कि घाघरा को सरयू बताया जा रहा है हालांकि ऐसा कहने वाले खुद ही नहीं जानते कि जिसे घाघरा कहा जाता है वो बहराइच के घाघरा बैराज से ही बनती है और असल नदी जो नेपाल से आती है वो कर्णाली है जो भारत प्रवेश मे दो हिस्सों मे होती है जिन्हे गिरुआ और कुड़ियाला कहा जाता है।
क्या सरयू को जानबूझकर उसका ऐतिहासिक पौराणिक हक नहीं मिला जिसकी वो हकदार दी और क्या यह इसलिए किया गया क्योंकि उसका दोहन करना था।
सरयू बिना अयोध्या का अस्तित्व नहीं
ये समझना जरूरी है कि सरयू के बिना अयोध्या का कोई अस्तित्व नहीं और उसके लिए यहा काल्पनिक सरयू नहीं अपितु असल सरयू को पुनः प्राप्त करना ऐ जो उत्तराखंड में कुमाऊं क्षेत्र के खूबसूरत जंगलों से निकलती हैऔर एक मिथ नहीं हकीकत है। उसके अस्तित्व को मिटाने की ऐतिहासिक भूल का सुधार करना जरूरी है। ऐतिहासिक गलती मूल रूप से इस तथ्य में है कि कुछ साल पहले तक कई लोग सरयू नदी को एक मिथक मानते थे और जो कुछ भी अयोध्या शहर में दिखाई देता था वह मूल रूप से धार्मिक उद्देश्यों के लिए घाघरा नदी को अयोध्या से गुजरते समय सरयू कहा जाता था। लेकिन ये समझना ही भूल है कि सरयू केवल अयोध्या मे पैदा कर दी गई और ऐसी कोई नदी नहीं है। इस तथ्य को भौगोलिक दृष्टि से समझना महत्वपूर्ण है जो स्पष्ट रूप से इंगित करता है कि नदी एक मिथक नहीं बल्कि एक वास्तविकता है हालांकि जमीनी स्तर पर काम के अभाव में या अज्ञानता के कारण शायद यह पता लगाने का प्रयास नहीं किया गया कि सरयू कहां से निकल रही है, या उसे उत्तराखंड के एक क्षेत्र की स्थानीयता मे ढाल दिया गया। अक्सर लोग पूछते हैं कि क्यों एक नदी जो अयोध्या पहुंचने से पहले घाघरा थी, अयोध्या में सरयू बन जाती है और फिर ‘वापसी’ करके अपनी शेष यात्रा में घाघरा कहलाती है, जब तक कि यह बिहार के सारण जिले के ऐतिहासिक शहर चिरांद के पास तीन धारा में गंगा से मिल नहीं जाती। आइए इस हकीकत को समझें कि सरयू एक बेहद खूबसूरत नदी है और जो पानी अयोध्या से होकर गुजर रहा है, वह उत्तराखंड के बागेश्वर जिले की पहाड़ियों से निकलने वाली सरयू नदी का है और गंगा की तरह उसमे भी बहुत सी छोटी बड़ी नदिया मिलकर उसे विशालकाय बना देती हैं।
जनवरी 2020 में, उत्तर प्रदेश कैबिनेट ने गोंडा से उत्तर प्रदेश की बिहार से लगने वाली सीमा तक बहने वाली घाघरा का नाम बदलकर सरयू नदी करने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। अखबारों की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 2016 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन सिंचाई मंत्री शिवपाल सिंह यादव ने भी विभाग के अधिकारियों से बदलाव के लिए कहा था क्योंकि अधिकांश स्थानों पर लोग इस नदी को सरयू ही कहते हैं।
हमें नहीं पता कि उत्तर प्रदेश सरकार के प्रस्ताव का क्या हुआ लेकिन इसमें संशोधन की आवश्यकता है क्योंकि उस सुझाव के आधार पर कई स्थानीय समाचार पत्रों ने यह जानकारी दी थी कि सरयू नदी का उद्गम गोंडा जिले में त्रिमुहानी घाट के पास पसका सुकरखेत नामक स्थान पर होता है। जो सही नहीं है। हमें यह साबित करने के लिएकि सरयू का अस्तित्व था या ही, कोई जादू या मिथक बुनने की जरूरत नहीं है क्योंकि यह वास्तव उत्तराखंड के बागेश्वर जिले के पहाड़ों से निकलने वाली खूबसूरत नदी है जिसे उस क्षेत्र की अन्य सभी नदियों की तुलना में पवित्र माना जाताहै। इसमें कोई संदेह नहीं है कि हमारे धर्मग्रंथों में सरयू नदी को अत्यंत पवित्र माना गया है और इसका नाम बदलने के लिए नदी के किनारे रहने वाले लोगों की भावना भी है, इसलिए इसे भारत सरकार द्वारा किया जाना चाहिए। यह केवल उत्तर प्रदेश के मुद्दे तक ही सीमित नहीं है, लेकिन उत्तराखंड और बिहार को भी इस प्रक्रिया में शामिल करने की जरूरत है। मैं इसे यहां आगे समझाऊंगा कि क्यों सरयू एक मिथक नहीं बल्कि एक खूबसूरत नदी है और इसे सुरक्षित, संरक्षित और सेलिब्रेट किए जाने की आवश्यकता है।
सरयू की उत्पत्ति
सरयू उत्तराखंड के बागेश्वर जिले के कपकोट ब्लॉक में झूली गांव से पांच किलोमीटर दूर सहश्रधारा (कई लोग इसे एस औधारा (सौ धाराएं) कहते हैं) के पास सरमूल जंगलों के पहाड़ों और झरनों से निकलने वाली एक बहुत ही शानदार नदी है। यह एक ग्लेशियरसे निकली नदीनहीं है लेकिन खूबसूरत पहाड़ों के बीच सेनिकलरहे झरनों से बनती हैऔर फिर कपकोट, सेराघाट और अन्य स्थानों से होकर गुजरती है और इसका पहला बड़ा संगम बागेश्वर मेंगोमती नदी के साथ होता है, जो ऐतिहासिक और पौराणिक रूप से महत्वपूर्ण स्थान है। इसलिए, यह कहा जा सकता है कि सरयू बागेश्वर जिले में मध्य हिमालयी क्षेत्र से निकलती हैजो दो महत्वपूर्ण नदी बेसिन का स्रोत है। यह है, पहला पिंडर बेसिन और दूसरा सरयू बेसिन। पिंडर एक हिमालयी नदी है और कुमाऊं और गढ़वाल के बीच एक कड़ी है क्योंकि यह नदी पिंडारी चोटियों से बहने के बाद यह विभिन्न छोटे और बड़े गांवों और कस्बों से होकर गुजरती हुई उत्तराखंड के चमोली जिले के कर्णप्रयाग शहर में पवित्र अलकनंदा से मिल जाती हैं। वहां से अलकनंदा नीचे की ओर बढ़ती है और अंततः देवप्रयाग में भागीरथी से मिलती है और उनके संगम से गंगा नदी का उदय होता है। पिंडर के दूसरी दिशा मे सरयू बागेश्वर शहर में गोमती नदी के साथ एक ऐतिहासिक संगम बनाते हुए नीचे की ओर अपनी यात्रा जारी रखती है। बागेश्वर जिले का सुदूर उत्तरी भाग अधिकतर बर्फ से ढका हुआ सघन वन क्षेत्र हैऔर विशाल हिमालय क्षेत्र के बीच पिंडर बेसिन मे अधिकांश जगहों की औसत ऊंचाई समुद्र तल से 4000 मीटर से ऊपर है और सरयू बेसिन में संकीर्ण और गहरी नदी घाटियों के लिएऐल्टिटूड 2000 से 4000 मीटर के बीच है। पिथौरागढ़ जिले के पनार पहुँचने से पहले गोमती नदी के अलावा भ्रापदीगाड़, जालौरगढ़, भौर्गाड़, अलकनंदी, सनियांगाड़ नदी सरयू में गिरती हैं और इसे मजबूत करती हैं। अपने उद्गम से लगभग 130 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद, सरयू का चंपावत जिले में पंचेश्वर महादेव में एक भव्य संगम होता है। हालाँकि यहाँ मुख्य रूप से दो नदियाँ मिलती हैं फिर भी परंपरा अनुसार लोग इसे पवित्र इसलिए मानते हैं क्योंकि दोनों नदियों मे सरयू, राम गंगा, गौरी, धौली और काली का पानी मिला हुआ है इसलिए लोग इसे पाँच नदियों का संयम भी कहते ऐन और ये पूरा क्षेत्र बेहद खूबसूरत प्राकृतिक छटा बिखेरता हुआ हैऔर संगम के मध्य पन्चेश्वर महादेव का मंदिर इसकी महत्ता साफ दिखाता है। आज भी सैलानी यहा पर राफ्टिंग और फ़िशिग के लिए आते हैं। यहा तक आते आते सरयू नदी बेह फिर भी लोगों को लगता है कि यह हिमालय की पाँच पवित्र नदियों धौली, गौरी या गोरी, काली, राम (पूर्वी राम गंगा) और सरयू का संगम है। विडंबना यह है किया से गुजर जाने के बाद नदी को बाद में सारदा या शारदा के नाम से जाना जाता है, जिसका नदी की भावना या भौगोलिक वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है, हालांकि नीचे की ओर, नदी पूर्णागिरि पहाड़ियों से होकर गुजरती है और शायद उसी के नाम पर इसका नाम रखा गया है, लेकिन यह नदी की वास्तविकता को प्रतिबिंबित नहीं करती है। तथ्य यह है कि यह वास्तव में सरयू नदी है।
सरयू और इसके आसपास के इतिहास और पौराणिक कथाओं को समझना जरूरी है। ऐतिहासिक रूप से बागेश्वर 7वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी तक कत्यूरी शासकों द्वारा शासितरहा। बागेश्वर भगवान शिव की भूमि है और शैव मत यहा का मुख्य धर्म रहा है जो बैजनाथ, बागेश्वर, जागेश्वर और अन्य स्थानों के ऐतिहासिक मंदिरों में पाई जा सकती है। उत्तराखंड के कत्यूरी शासक शैव थे और भगवान शिव के समर्पित अनुयायी होने के साथ-साथ शक्ति के भी उपासक थे। इनमें से कुछ बौद्ध धर्म से भी प्रभावित थे। नेपाल की सीमा से लगे संपूर्ण बागेश्वर, चंपावत, पिथौरागढ़ क्षेत्रों की हरी-भरी घाटियो, घास के मैदानो के बीच लोगों के दैनिक जीवन में भगवान शिव का व्यापक प्रभाव है। आपको हर पर्वत शिखर से लेकर नदी घाटियों तक भगवान शिव को समर्पित मंदिर मिल जाएंगे। यहां बागनाथ मंदिर के सामने सरयू और गोमती के संगम का इतिहास पौराणिक कथाओं के रूप में है जोइन दो नदियों को गंगा और यमुना के प्रतीक के रूप में बताता है और इसलिए संगम के रूप में इस स्थान का महत्व है। यह स्थान जनवरी में मकर सक्रांति के दिन आयोजित होने वाले उत्तरायणी मेले’ के लिए प्रसिद्ध है। पौराणिक कथा के अनुसार, सरयू नदी उनके आश्रम के पास फंस गई थी जहां ऋषि मार्कंडेय गहरी समाधि में थे और उनके शिष्य ऋषि वशिष्ठ चिंतित थे कि सरयू का प्रवाह ऋषि मार्कंडेय की प्रार्थना को प्रभावित कर सकता है और इसलिए उन्होंने भगवान शिव से प्रार्थना की। तब शिव ने अपने भक्त मार्कंडेय के विश्वास की परीक्षा लेने के लिए व्याघ्र या व्याघ्र या बाघ का और देवी पार्वती ने गाय का रूप धारण किया। अपने गहन ध्यान में भी जब ऋषि मार्कंडेय ने गाय की रंभाने की आवाज सुनी, तो वे तुरंत उठे और देखा कि उसके साथ क्या हुआ और फिर उसे खाना खिलाया। यह देखकर भगवान शिव अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने ऋषि मार्कंडेय और ऋषि वशिष्ठ को आशीर्वाद दिया। उसके बाद, भगवान शिव ने सभी बाधाओं को दूर कर दिया और सरयू नदी फिर इस स्थान से अपनी प्राकृतिक दिशा में आगे बढ़ गई। यहां सरयू और गोमती के संगम पर भगवान शिव और पार्वती को समर्पित एक मंदिर स्थित है जिसका नाम बागनाथ मंदिर है। ऐसा कहा जाता है, बागेश्वर का नाम भगवान बागनाथ या भगवान शिव के नाम पर रखा गया है। गंगा और यमुना की तरह, सरयू नदी का भी भगवान शिव से पवित्र संबंध था और इसलिए इसे कुमाऊं क्षेत्र में सबसे पवित्र नदी माना जाता है। ये बात भी साफ है कि हिमालय से निकलने वाली सभी नदियों का सीधा संबंध भगवान शिव से है क्योंकि हिमालय क्षेत्र शिव का घर है और शिव के अलावा यदि कोई अन्य इस क्षेत्र में प्रचलित रहे हैं तो वो हैं शक्ति और बुद्ध।
बागेश्वर के बाद सरयू नदी जिला अल्मोड़ा और पिथौड़ागढ़ की सीमा बनाती है और पिथौरागढ गंगोलीहाट मार्ग पर पनार नामक स्थान पनार नदी सेमिलती है। पनार नदी असल मे एक छोटी गाड़ है जो सरयू को उसके दाई ओर से मिलती हैऔर साधारण दिनों मे भले ही छोटी नजर आती हो लेकिन स्थानीय लोग बताते है कि मॉनसून मे ये बहुत आक्रामक रहती है। पनार से संगम के बाद सरयू नदी पांच किलोमीटर आगे चलकर अपने बायी ओर सेमुनस्यारी के पास नमिक पर्वत श्रृंखला सेबहती हुई एक सुंदर पूर्वी रामगंगा, रामेश्वर नामक स्थान पर सरयू में आ मिलती है। पूर्वी राम गंगा भी एक हिमालयी नदी है और व्यावहारिक रूप से पूर्वी राम गंगा सरयू से तीन गुना बड़ी बताई जाती हैफिर भी जो नदी आगे बढ़ती है उसका नाम सरयू है। सरयू के तट पर स्थित रामेश्वर के सुंदर स्थान में एक असाधारण प्राकृतिक सौन्दर्य है और संगम स्थल पर ही रामेश्वर मंदिर है। सरयू और राम गंगा का मिलन होने के वाद सरयू नदी आगे बढ़ती है और लगभग 90 किलोमीटर दूर पंचेश्वर में काली नदी से मिलने के लिए हरी भरी दुर्गम घाटियों से गुजरती है। पंचेश्वर सरयू और काली नदी के संगम बिंदु पर पंचेश्वर महादेव के प्राचीन मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। असल मे ये प्राचीन मंदिर चौखमा या चमू देवता को समर्पित है जो भगवान शिव का ही एक स्वरूप माने जाते हैं। यह पर काली नदी जो काला पानी से आती है और सरयू का संगम होता है। काली नदी पंचेश्वर आने से पहले धारचूला, जौलजीबी और झूलाघाट कस्बों से होकर गुजरती है और भारत और नेपाल के बीच सीमा रेखा के रूप में काम करती है और सरयू से मिलने से पहले इसमें भारतीय पक्ष से धौली, गौरी गंगा और नेपाल की ओर से चोलिया नदिया मिलती हैं। यहाँ हम भारत और नेपाल के बीच काली और उसकी उत्पत्ति को लेकर विवाद के प्रश्न पर बात नहीं रख रहे है क्योंकि वो एक अलग मुद्दा है, लेकिन सच्चाई यह है कि पूरे क्षेत्र में काली नदी को पवित्र नहीं माना जाता है। यहां तक कि पंचेश्वर के संगम पर भी, यह सरयू नदी ही है जिसमें दाह संस्कार सहित अधिकांश पूजाएं होती हैं, काली नदी पर स्नान करने की भी परंपरा नहीं।
सरयू में विलय के बादआगे बढ़ने वाली नदी को भारत मे शारदा या सारदा के नाम से क्यों जाना जाता है और इसके लिए कौन जिम्मेदार थाये बात भी एक प्रकार से रहस्य है लेकिन ये सब भारत की स्वतंत्रता से पहले की बाते हैं। हम सभी जानते हैं कि टनकपुर बैराज तक यह नदी नेपाल में महाकाली के नाम से जानी जाती है लेकिन भारत ने इसे सारदा या शारदा नाम दिया, जिससे सरयू का ऐतिहासिक पौराणिक महत्व नकार दिया गया। इसके बारे में स्थानीय लोगों के अपने मिथक हैं क्योंकि यह पूर्णागिरि पहाड़ियों से होकर गुजरती है, जो देवी काली की बहन देवी शारदा को समर्पित शक्तिपीठों में से एक है। जबकि हर जगह स्थानीय लोग नदियों को एक स्थानीय नाम देते हैं, यह भी तथ्य है कि यह पानी जो अयोध्या और उसके आगे तक जाता है और ऐतिहासिक रूप से अयोध्या में नदी का नाम सरयू है और यह अचानक नहीं हुआ है। वास्तविकता यह है कि नाम परिवर्तन भौगोलिक और सांस्कृतिक वास्तविकताओं की अनदेखी करते हुए एक निश्चित समय पर हुआ होगा क्योंकि सरयू नदी का नाम है जब वह अयोध्या से होकर गुजरती है। यह कैसे संभव है कि पंचेश्वर के बाद सरयू का अस्तित्व समाप्त हो जाए, जबकि वही धारा अन्य सभी धाराओं, नदियों को अपने में समेटती हुई आगे बढ़ती है और अयोध्या में फिर अचानक से प्रकट हो जाए।जब नदी एक ही है तो पन्चेश्वर के बाद की जितनी भी नदिया सरयू के साथ जुड़ी या मिली सरयू के नाम से रही होंगी इसलिए अयोध्या मे वह सरयू ही कही गई। ब्रिटिश गजेटियर मे भी सरयू, घाघरा और सारदा या शारदा पर्याय केतौर पर ही प्रयोग हुई हैं।
पंचेश्वर से, नदी आगे बहती है और पानी भारत और नेपाल के बीच विभाजित हो जाता है। नदी का आकार और चौड़ाई अब बहुत बढ़ गई है क्योंकि यह टनकपुर में तराई की तलहटी से होकर गुजरती है जहां नदी पर एक बांध (भारत और नेपाल के बीच एक सहयोग परियोजना) बनाया गया है। सिंचाई प्रयोजनों के लिए भारत और नेपाल के बीच पानी को मोड़ा जाता है। वास्तव में, यह बहुत पहले किया गया पहला रिवर लिंकिंग प्रोजेक्ट है जिसने मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश में सिंचाई उद्देश्यों के लिए पानी उपलब्ध कराने में मदद की है। शारदा नहर सुरई वन और पीलीभीत टाइगर रिजर्व से होकर गुजरती है जबकि मूल नदी वास्तव में जंगलों से होकर गुजरती है और अंत में लखीमपुर खीरी में निकलती है और अंत में आने वाली नदी में बहती है जिसे ‘घाघरा’ के नाम से जाना जाता है। पुनः यह एक और रहस्य है एक छोटी सी दूरी तय करने के बाद नई नदी पुरानी नदी के नाम को कैसे खत्म कर सकती है। जिस नदी को घाघरा कहा जा रहा है वह मूल नदी जो कैलाश मानसरोवर या हिमालय से निकलती है,को नेपाल में कर्णाली के नाम से जाना जाता है। इसलिए नेपाल में महाकाली को महाकाली के रूप में ही रखा जाता है, लेकिन इसे शारदा या सारदा में बदल दिया जाता है, जैसा कि अधिकांश अंग्रेजी अधिकारियों ने इसे इसी तरह उच्चारित किया था। व्यापक चर्चा में सारदा या सरजू या सरयू को उस नदी के पर्यायवाची के रूप में उपयोग किया जाता है जो तब तक अपनी यात्रा जारी रखती है जब तक कि वह बहराइच से आने वाली घाघरा नामक दूसरी नदी से नहीं मिल जाती। इनका विशाल संगम होता है और चहलारी घाट के बाद नदी की चौड़ाई और आकार अत्यंत विस्तृत हो जाता है और समुद्र जैसा दिखता है। नई नदी को सरयू के नाम से जाना जाना चाहिए था, लेकिन इस पर कोई स्पष्टता नहीं थी क्योंकि घाघरा नदी की कोई ऐतिहासिक पृष्ठभूमि नहीं है और साथ ही आधिकारिक तौर पर नदी का निर्माण घाघरा बैराज, बहराइच (मूल नदी नेपाल से करनाली है) में हुआ है, जबकि सरयू बागेश्वर से एक बड़ी यात्रा कर चुकी है। घाघरा बैराज से घाघरा की यात्रा, बहराइच जिले में कतर्नियाघाट टाइगर रेंज के कैलाशपुरी से लेकर लखीमपुर खीरी और सीतापुर की ओर शारदा या सरयू के साथ संगम तक की यात्रा बहुत छोटी है और बिना किसी ऐतिहासिक या पौराणिक महत्व की है इसलिए नई नदी को इसके ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व के कारण सरयू ही कहा जाना चाहिए। किसी को नहीं पता कि इतनी बड़ी गलती क्यों हुई लेकिन इसे सुधारने की जरूरत है। नदियों का नामकरण और सीमांकन महत्वपूर्ण है और यह केवल सरयू का मुद्दा नहीं है, बल्कि कुछ अन्य नदियों का भी मामला है, जिन्हें मैंने इन नदियों पर अपने काम के दौरान में पाया है। तथ्य स्पष्ट हैं. संगम के बाद शारदा और घाघरा नदी को सरयू के नाम से जाना जाना चाहिए था, लेकिन दुख की बात है या अज्ञानतावश, इसका नाम घाघरा ही रहा और केवल अयोध्या में इसे सरयू कहा गया, जिसके परिणाम स्वरूप विभिन्न सिद्धांत सामने आए जैसे कि नदी की ऐतिहासिकता को समझे बिना इसका अस्तित्व ही नहीं था। सरयू पहले से ही हिमालय में विद्यमान है और उत्तराखंड की नदियों में से एक मानी जाती है। दरअसल, उत्तर प्रदेश में भी शारदा और घाघरा के संगम पर स्थित नदी को ग्रामीण सरयू जी ही कहते हैं।
हिमालय और फिर उत्तर प्रदेश और बिहार की विभिन्न नदियों पर नज़र रखने की अपनी यात्रा के दौरान, मुझे एक दिलचस्प घटना मिली। सभी धार्मिक उद्देश्यों के लिए लोग उन नदियों का उल्लेख करेंगे जिनकी पौराणिक श्रेष्ठता है, इसलिए गोंडा और बहराइच, त्रिमुहानी घाट जैसे विभिन्न स्थानों में भी, पुराने साइन बोर्ड नदी को सरयू के रूप में संदर्भित करते हैं। अयोध्या के बाद के विभिन्न स्थानों में घाघरा के अधिकांश घाटों पर लोग या भक्त वास्तव में उसे सरयू के रूप में संदर्भित करते हैं। जब मैं बिहार के सारण जिले के चिरांद के पास तीनधारा जा रहा था, तो नाविक अशोक यादव लगातार नदी को सरयू जी बोलते थे और घाघरा का जिक्र कम ही करते।
किसी भी नदी के आकार या लंबाई से ज्यादा उसका पौराणिक महत्व मायने रखता है
यह समझना भी महत्वपूर्ण है कि भारत में नदियों से पौराणिक कथाएँ जुड़ी हुई हैं और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह एक जलधारा है या बड़ी, एक नदी अपने पौराणिक और धार्मिक संबंध के कारण बड़ी मानी जाती है। काली नदी का स्रोत काला पानी है लेकिन नेपाली पक्ष ने इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया क्योंकि उनका कहना है कि कुटियांग्ती से मिलने पर यह पूरी तरह से एक धारा है। (नेपाल का दावा है कि कुटियांगती ही असली महाकाली नदी है) लेकिन अंग्रेजों ने उनके दावे को मानने से इनकार कर दिया क्योंकि उन्होंने कहा कि यह आकार नहीं बल्कि पौराणिक मूल्य है और इसलिए उन्हें लगा कि काली का स्रोत ओम पर्वत के पास काला पानी है। यह तथ्य तब और पुष्ट हो जाता है जब हम गंगा और यमुना नदी की यात्रा को देखते हैं। गौमुख से निकलने वाली भागीरथी को गंगा नदी का स्रोत माना जाता है, इस तथ्य के बावजूद कि देवप्रयाग में अलकनंदा इसे गंगा बनाने के लिए इससे कहीं अधिक बड़ी है। इसी प्रकार, यमुना यमुनोत्री से एक छोटी धारा के रूप में शुरू होती है लेकिन शुरुआत में मिलने वाली अधिकांश नदियाँ मूल नदी से बड़ी दिखती हैं। हनुमान चट्टी पर हनुमान गंगा उससे भी बड़ी है और कालसी में भव्य संगम पर, टोंस नदी यमुना से लगभग ढाई गुना बड़ी है और फिर भी अपनी पहचान यमुना में विलीन कर लेती है। इसके बाद, भरेह में चंबल एक बहुत बड़ी नदी है लेकिन फिर से उसने अपना नाम यमुना रख लिया। प्रयागराज में यमुना गंगा से बड़ी है लेकिन उनके संगम के बाद जो नदी आगे बढ़ती है उसे गंगा के नाम से जाना जाता है।
हम नहीं जानते कि सरयू नदी के साथ यह अन्याय क्यों किया गया लेकिन समय आ गया है जब इसका जीर्णोद्धार किया जाना चाहिए। सरयू को वैधता न मिलने का कारण आर्थिक कारण प्रतीत होते हैं क्योंकि टनकपुर से आगे तक जल का उपयोग सिंचाई के लिए किया जाता रहा है। घाघरा के साथ भी ऐसा ही हुआ और दोनों नदियाँ मानसून के दौरान तबाही लाती हैं। इसका मुख्य कारण मानव निर्मित है क्योंकि लखमीपुरखिरी, पीलीभीत, सीतापुर बेल्ट के अधिकांश हिस्से को मानसून के दौरान भारी नुकसान का सामना करना पड़ता है। इसी तरह घाघरा की भी आपदा और तबाही की कुछ ऐसी ही कहानी है। कोई यह मान सकता है कि अगर सरयू को गंगा की तरह अंग्रेजों द्वारा वैध कर दिया जाता, तो उनके लिए इसके संसाधनों का दोहन करना और नदी के साथ खिलवाड़ करना मुश्किल होता। दरअसल, घाघरा बैराज से भी पानी लखीमपुर खीरी के सारदा सागर के पास सारदा-सरयू नदी में प्रवाहित किया जाता है। यह समझना महत्वपूर्ण है कि सरयू किसी धार्मिक ग्रंथ में लिखी कोई पौराणिक नदी नहीं बल्कि हकीकत है, एक खूबसूरत नदी है जो उत्तराखंड से निकलती है और अयोध्या आने से पहले विभिन्न जंगलों और कस्बों से होकर गुजरती है और अंततः बिहार के सारण जिले में गंगा नदी में मिल जाती है। सरकार इस पर निर्णय ले, जिससे सरयू की पहचान पंचेश्वर से लेकर सरदा के रूप में नहीं, बल्कि बिहार में तीन धारा में गंगा की यात्रा समाप्त होने तक सरयू के रूप में ही बहाल होगी। देश के लोगों को बता दें कि सरयू उत्तराखंड के सरमूल वनों से निकलती है और अयोध्या सहित विभिन्न स्थानों से होते हुए अंततः गंगा में मिल जाती है और गंगा के रूप में आगे बढ़कर बंगाल की खाड़ी तक अपनी शेष यात्रा पूरी करती है।